Monday, February 7, 2011

अगर आपके कर्म से भगवान के प्रति आकर्षण उत्पन्न नही होता तो शास्त्र इसे व्यर्थ का श्रम कहते है:Explanation by Maa Premdhara(102.6 FM)

Spiritual Program SAMARPAN On 6th Feb, 2011(102.6 FM)
समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा.नमस्कार.
अक्सर हमलोग सोचते हैं कि अगर हम अपना काम ईमानदारी से कर ले.हमारे कामकाज से अगर हमारे लोग संतुष्ट हो जाए तो भई वही पूजा है,वही भक्ति है.कई बार लोग कहते भी तो हैं :कर्म ही पूजा है और अपने ऑफिस में अपने डेस्क पर लिखकर टांग लेते हैं:कर्म ही पूजा है.यानि कि अगर आप एक accountant हैं तो balance sheet बनाना,काम का हिसाब-किताब रखना ये पूजा है.घर को संभालने वाली हमारी बहने सोचती हैं कि सुबह से लेकर रात तक अपने परिवार के लोगों को खुश रखना ही पूजा है.पर आप देखिये हमारा जो आज श्लोक है वो ऐसा नही मानता.आईये देखे क्या कहता है.

धर्मः स्वनुष्ठितः पुंसां विष्वक्सेनकथासु यः।
नोत्पादयेद्यदि रतिं श्रम एव हि केवलम्॥८॥(भागवतम,1.2.8)

अर्थात्
 देखा.यानि कि कोई भी व्यक्ति अपने धर्म,अपने व्यवसाय एवं पद के अनुसार.कितने सारे धर्म हैं -मानव धर्म,गृहस्थ का धर्म,student का धर्म.मान लीजिए आप एक student हैं.एक विद्यार्थी हैं और आपका धर्म है पढाई करना.और आप खूब पढाई करते भी हैं.सुबह से लेकर के रात तक पढाई करते हैं और सोचते हैं कि हमारे बहुत अच्छे नंबर आये.और आपके नंबर अच्छे आ भी जाते हैं.बहुत अच्छे नंबर आ जाते हैं.लेकिन ये श्लोक कहता है कि अच्छे नंबर आने से उतना बड़ा फायदा नही क्योंकि अच्छे नंबर आने से आप इस दुनिया में कुछ बन जायेंगे.कुछ जरूर कमा लेंगे.

लेकिन मनुष्य जीवन सिर्फ कमाई करने के लिए या पद बटोरने के लिए नही मिला है.प्रतिष्ठा बनाने के लिए नही मिला.आप प्रतिष्ठित मुकाम पर हो इसीलिए मनुष्य जीवन नही मिला.मनुष्य जीवन का उद्येश्य है भगवान की तरफ अग्रसर होना.भगवान से प्रेम करना.भक्ति करना.

और यदि आपकी पढाई से या आपके अन्य कार्य से आपके मन में भगवान के प्रति या उनके संदेशों के प्रति कोई आकर्षण पैदा ही नही होता.भगवान आपको boring लगते हैं.भगवान के messages,भगवान के दिव्य संदेश अगर आपको boring लगते हैं.आप कहते हैं -उफ़ क्या उबाऊ है ये सब.तो आप समझ लीजिए कि इसको हमारा शास्त्र कहता है श्रम एव हि केवलम् यानि आप जो भी कुछ कर रहे हैं कुछ नही सिर्फ व्यर्थ का श्रम कर रहे हैं.

तो बहुत बड़ी बात है ये.बहुत बड़ी बात.हमारी आँखें खोल देता है ये श्लोक.हम जो कि ये मान करके बैठे हैं कि हम चाहे कुछ भी करे अगर अपने धर्म,अपने व्यवसाय को अच्छी तरह से करेंगे तो ये हमारी पूजा है.हमारा शास्त्र,हमारा श्लोक कहता है -नही.पूजा ये नही है.मगर यदि आप इन्ही कामों को भगवान से जोड़कर करेंगे तो पूजा हो जायेगी.भक्ति हो जायेगी.
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कार्यक्रम समर्पण में आप सब का स्वागत है.मै हूँ आपके साथ प्रेमधारा..हम चर्चा कर रहे हैं बहुत ही सुन्दर श्लोक पर.श्लोक है:

धर्मः स्वनुष्ठितः पुंसां विष्वक्सेनकथासु यः।
नोत्पादयेद्यदि रतिं श्रम एव हि केवलम्॥८॥(भागवतम,1.2.8)

अर्थात्
कोई व्यक्ति अपने धन,व्यवसाय या अपने पद के अनुसार उचित कार्य करता है.यदि इन कार्यों ने उसके मन में भगवान के प्रति या भगवान के संदेशों के प्रति कोई आकर्षण पैदा नही करती तो ये सब कार्य व्यर्थ का श्रम है.

तो देखिये ये जो श्लोक है न वो हमें साफ-साफ तौर पर बताता है कि मनुष्य जीवन का उद्देश्य कुछ और है.मनुष्य जीवन का उपदेश सिर्फ एक अच्छे पेशे को अपनाना नही है.जी हाँ कि आप आज कुछ नही है.आप डॉक्टर बन जायेंगे,इंजीनियर बन जायेंगे,scientist बन जायेंगे.बहुत सारे ऐसे लोह हैं जो ये सोचते हैं कि आज मै डॉक्टर हूँ और ये मेरा धर्म है कि मै सबकी अच्छी तरह से देखभाल करूँ.अच्छा इलाज करूँ.सब को ठीक कर दूं.ठीक है.ठीक करना बुरी बात नही है.डॉक्टर का धर्म है कि वो लोगों को ठीक करे.

लेकिन सिर्फ उतने से ही आपके मनुष्य जीवन के कर्त्तव्यों की इति श्री नही हो जाती.ये श्लोक आपको बताता है नोत्पादयेद्यदि रतिं  यानि कि यदि भगवान की कथाओं में,भगवान में,भगवान की बातों में,आपके धर्म ने आपके कार्य ने कोई आकर्षण पैदा नही किया तो वो कार्य बेकार हो गया.बहुत बड़ी बात है.

आपको मै बता दूं कि हममे से 99% लोग अक्सर यही सोचते हैं कि हम जो अपना काम कर रहे हैं न,उन्हें बहुत अच्छी तरह से कर लेंगे न तो यानि कि वो काम ही पूजा है और हम सोचते हैं कि बाकी सब ये भगवान वगैरह क्या होता है.कुछ नही होता.कुछ लोग सोचते हैं कि भई ये सब अपने मन की creation है.आप अपने मन को संतुष्ट करने के लिए भगवान का सहारा लेते हैं.कोई -कोई भगवान को कल्पना की विषय वस्तु मान लेते हैं.

लेकिन मै तो यहाँ पर यही कहूँगी कि भक्ति ऐसी चीज है जिसे आप कर के देखते हैं,जब आप पूरी तरह भक्ति में डूबते हैं.जब आपको भगवान की जरूरत महसूस होती है और आप उनकी तरफ मुडते हैं तो आपको पता चलता है कि वाकई भगवान हकीकत हैं.भगवान ही सब कुछ है.भगवान कहते भी तो है न :

मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय ।(भगवद्गीता,7.7)
मुझसे बड़ा सत्य धनञ्जय और कुछ भी नही है.

तो हम छोटे-छोटे सत्य की डोर पकडे हुए हैं और क्या पता जिस सत्य को हमने सत्य समझा है वो सत्य न हो.असत्य हो क्योंकि परतरं सत्य यानि कि पर सत्य यानि परम सत्य भगवान हैं.तो इन परम सत्य को जब हम पकडते हैं,इनकी तरफ मुडते हैं  हम सारे tension से मुक्त हो जाते हैं क्योंकि जब भगवान ही सर्वेसर्वा हैं तो फिर खुद सोचने से क्या होगा.भगवान को ही सोचने दीजिए.
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कार्यक्रम में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा और हम चर्चा कर रहे हैं बहुत ही सुन्दर श्लोक पर जिसका अर्थ है:

कोई व्यक्ति अपने धन,व्यवसाय या अपने पद के अनुसार उचित कार्य करता है.यदि इन कार्यों ने उसके मन में भगवान के प्रति या भगवान के संदेशों के प्रति कोई आकर्षण पैदा नही करती तो ये सब कार्य व्यर्थ का श्रम है.

आखिर इतनी बड़ी बात क्यों कही गयी है.हमारा इतना बड़ा विश्वास कि हम जो कुछ करे ईमानदारी से करे.कभी बईमानी न करे तो वही पूजा है.इतना बड़ा विश्वास जो हमने अपने पुरखों से सुना है,अपने बड़ों से सुना है.इस विश्वास को तोडता हुआ ये श्लोक.आखिर क्यों?क्या जरूरत है कि हम भगवान के संदेशों के प्रति रति उत्पन्न करे.आकर्षण पैदा करे.आखिर क्यों?क्यों भगवान को हम अपने जीवन में लाए?

बड़ी सीधी सी बात है.जिसके हम अंश हैं.भगवान के हम अंश हैं
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।(भगवद्गीता,15.7)
भगवान कहते हैं.जिसके हम अंश हैं.यदि हम उसकी तरफ नही मुडेंगे तो हम सदा-सर्वदा असंतुष्ट रह जायेंगे.हम कभी भी tension free नही हो पायेंगे.कभी इस कारण से या कभी उस कारण से हम हमेशा depressed  रहेंगे.

बहुत अच्छी बात ये श्लोक आपको बताता है.बहुत बड़ी बात बताता है कि हमें भगवान से संदेशों के प्रति आकर्षण पैदा करना होगा.नही तो हम जो कुछ कर रहे हैं.चाहे हम अपना कोई ऐसा काम कर रहे हैं कि उसके लिए हमें बहुत medals मिले हैं.पर जैसे ही medals मिले हैं वैसे ही आपका अहंकार भी तो बढ़ गया.अप घमंडी हो गए और जब आप घमंड में डूबे हुए हैं तो आप अपने असली स्वरुप को भला कैसे देख पायेंगे कि आप ये देह नही आत्मा हैं.

और अगर आप आत्मा हैं.कई बार आपलोग कहते भी हैं holy soul,holy spirit.हम पवित्र आत्माएं हैं.कहते हैं तो कभी ये जानने की कोशिश की कि यदि आप आत्मा हैं तो आप आते कहाँ से हैं.और जब आप ये जानने की कोशिश करेंगे कि आप कहाँ से आते हैं.जैसे ही आप ये सवाल पूछने की कोशिश करेंगे,आप उत्तर तक पहुँचाने लगेंगे.उत्तर है आत्मा भगवान का अंश है.तो सोचिये आत्मा जो भगवान का अंश है यदि भगवान को भूल करके देह से अपनी पहचान करने लगे और देह की उपलब्धियों को,देह के medals को क्योंकि जो medals मिले हैं वो body को मिले हैं.body के through आत्मा ने कुछ कार्य किया और medals मिल गए और body के अभिमान में आत्मा फूल गयी और पहचान अपनी भूल गई.जैसे ही अपनी पहचान भूल गई वो आ फंसी चौरासी लाख योनियों में.बारम्बार,बारम्बार,करोड़ों बार आपको चौरासी लाख योनियों का चक्कर लगाना पडेगा.

तो ये बहुत बड़ा खतरा है.इसीलिए कहा गया है कि यदि आपके काम भगवान की कथाओं में आपकी दिलचस्पी पैदा नही करते तो वो काम फिजूल के हैं यानि श्रम एव हि केवलम्.
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कार्यक्रम में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा और हम लेते हैं कार्यक्रम का अगला श्लोक.बहुत ही सुन्दर श्लोक है ये.

कामस्य नेंद्रियपीतिर्लाभो जीवट यावता |
जीवस्य तत्त्वजिज्ञासा नार्थो यच्श्रेह कर्मभिः ||
अर्थात्
जीवन की इच्छाओं को कभी भी इंद्रतृप्ति की तरफ नही मोडना चाहिए.मनुष्य की इच्छा सिर्फ स्वस्थ जीवन जीने की होनी चाहिए क्योंकि मनुष्य जीवन परमसत्य के बारे में जिज्ञासा करने के लिए मिला है.इसके अलावा कर्मों का अन्य लक्ष्य नही होना चाहिए.

देखिये बहुत सुन्दर श्लोक है.भगवान ने हमें दस इन्द्रियाँ दी हैं.पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ दी हैं और पाँच कर्मेन्द्रियाँ दी है.पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ दी है आपको- दो आँख,नाक,कान,जिह्वा और आपकी skin यानि कि आपकी त्वचा.और ये सारी इन्द्रियाँ जो ज्ञानेन्द्रियाँ हैं,जिनके की पीछे आप भागते हैं,जिनके विषयों के पीछे आप भागते हैं,ये ज्ञानेन्द्रियाँ आपको इसलिए दी गई हैं कि आप इन ज्ञानेन्द्रियाँ  का इस्तेमाल भगवान से संबंधित ज्ञान को प्राप्त करने के लिए कीजिये.इसलिए नही दी गई हैं  कि आप इन ज्ञानेन्द्रियों को जड़ चीजों में लगाए,जड़ चीजों में खपाए.

देखा जाये तो जो कुछ,जिस चीज के पीछे हमारे ज्ञानेन्द्रियाँ भागती हैं वो जड़ ही तो है.माया का ही तो एक जाल है और माया के पीछे हम सब भागते हैं.तो यानि कि हम अपने शरीर को गलत जगह लगाते हैं और बाद में पछताते हैं.लेकिन कहते हीं न:
अब पछताए क्या होत,जब चिड़िया चुग गई खेत .

तू अपनी जिंदगी में ऐसा मत होने दीजिए.यहाँ पर बहुत सुन्दर तरीके से बताया है कि जीवन की इच्छाओं को कभी भी इंद्रतृप्ति की ओर नही मोड़नी चाहिए.इच्छा होनी चाहिए तो सिर्फ इतनी कि हाँ मुझे स्वस्थ रहना है.अब आप कहेंगे कि स्वस्थ रहना है ये भी इच्छा तो एक भौतिक इच्छा है.हाँ ये इच्छा भौतिक इच्छा हो सकती है यदि आप स्वास्थ्य इसलिए मांग रहे हैं ताकि आप दुनिया को और भोगे.तब तो ये भौतिक इच्छा है.

लेकिन यदि आपने इस शरीर को भगवान की अमानत समझ लिया और आपने सोचा कि भगवान की इस अमानत को हम भगवान के काम में लगाना चाहते हैं.इसीलिए ये हमारा फर्ज है कि हम भगवान की इस अमानत को बहुत अच्छे तरीके से सहेजकर,संभालकर रखे तो बहुत अच्छी बात है.भगवान का काम,शुरुआत इसी से होती है कि आप भगवान के बारे में  सुनना चाहे.आप जानना चाहे ब्रह्म के बारे में.शास्त्रों में वचन भी है:
अथातो ब्रह्मजिज्ञासा.
यानि कि भक्ति की शुरुआत या आध्यात्मिक यात्रा की शुरुआत होती है अथातो ब्रह्मजिज्ञासा से.जब आप भगवान के बारे में पूछने लगते हैं.जिज्ञासा करने लगते हैं.जब आप चाहते हैं कि आपकी जिंदगी में कोई ऐसा व्यक्ति आये जो आपको भगवान के बारे में बताए और आपको वहाँ तक ले जाए.यदि ऐसा है तो आपका जीवन धन्य है वरना शून्य है.
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समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा.हम चर्चा कर रहे हैं बहुत ही सुन्दर श्लोक पर.

कामस्य नेंद्रियपीतिर्लाभो जीवट यावता |
जीवस्य तत्त्वजिज्ञासा नार्थो यच्श्रेह कर्मभिः ||
अर्थात्
जीवन की इच्छाओं को कभी भी इंद्रतृप्ति की तरफ नही मोडना चाहिए.मनुष्य की इच्छा सिर्फ स्वस्थ जीवन जीने की होनी चाहिए क्योंकि मनुष्य जीवन परमसत्य के बारे में जिज्ञासा करने के लिए मिला है.इसके अलावा कर्मों का अन्य लक्ष्य नही होना चाहिए.


तो बहुत बड़ी बात कही गई है यहाँ पर.देखा जाए तो जब हम कर्म करते हैं तो हमारे कई सारे छोटे-छोटे targets होते हैं.छोटी-छोटी मंजिले होती हैं,छोटे-छोटे लक्ष्य होते हैं.हम सोचते हैं कि हम अगर business कर रहे हैं तो भई हमें एक करोड़ का turnover मिल जाए और जब हमें एक करोड़ का turnover,profit मिल जाता है तो हम सोचते हैं कि अब इससाल हमें पाँच करोड़ का profit मिल जाए.ऐसे ही करते-करते जिंदगी तमाम हो जाती है और ये श्लोक कहता है कि ऐसा नही करना चाहिए.इसी पर मुझे एक कहानी याद आती है छोटी-सी.मै आपको सुनाना चाहूंगी.

एक सेठ थे बोधराज जी और वो गावं के करोड़पतियों में गिने जाते थे.उनका व्यापार परदेश में चलता था,विदेश में चलता था.एक बार वहाँ से समाचार आया कि आप ज़रा यहाँ आकर के अपना व्यापार अच्छी तरह से संभाल लीजिए और वो बेचारे वहाँ के लिए रवाना हो गए.विदेश में पहुँच करके उन्होंने खूब कमाया,खूब कमाया और फिर एक दिन वो अपनी ढेर सारी कमाई के साथ वापस आ रहे थे तो रास्ते में बहुत सारे जंगल और बहुत सारी नदी पड़ती थी.इसके लिए उन्होंने दो पहरेदारों को अपने साथ रख लिया.

तो जब वो वापस आ रहे थे तो उनका गाँव आनेवाला था.तकरीबन पाँच एक मील की दूरी रह गई थी तो सेठ साहब ने सोचा कि भई इन पहरेदारों को मै यही से चलता कर दूं.अगर इन्होने मेरा घर देख लिया तो बारबार वहाँ आयेंगे और अगर वो वहाँ आ गए तो मुझे इन्हें अच्छा खिलाना पडेगा,पिलाना पडेगा.काफी कंजूस थे सेठ साहब.तो उन्होंने उन्हें रवाना कर दिया कि भई आप जाईये अब तो मेरा घर आ गया है.और बड़ा मन मसोस के वो लोग चले गए.

सेठ साहब जब आगे बढे तो उनको कुछ गुंडों ने घेर लिया,डाकूओं ने घेर लिया और जैसे ही डाकूओं ने घेर लिया ये तो हक्के-बक्के रह गए और अचानक इन्होने उनलोगों में से दो लोगों को पहचान लिया जो कभी सेठ साहब के यहाँ कर्मचारी रहे थे.अरे करमचंद तुम हो,अरे मानिकचंद तुम हो.दोनों ने भी सेठ साहब को पहचान लिया और उन्होंने कहा कि भई हम सेठ साहब को नही लूट सकते.हमने तो इनका नमक खाया है.इन्होने हमारी बड़ी हिफाजत की है कभी.बड़ी देखभाल की है.इसी बात पर वो जो डाकूओं के साथी थे उन्होंने कहा कि आपने नमक खाया होगा.हमने तो नही खाया.हम तो लूटेंगे और बस बहस छिड़ गई.दोनों पक्षों में लड़ाईयां होने लगी.इसी बीच दोनों कर्मचारियों ने कहा कि सेठ साहब आप यहाँ से चले जाइए जब तक ये लोग लड़ रहे हैं.

सेठ साहब की जान बच गई.किसी तरह वो घर आये.उन्होंने अपनी पत्नी को कहा कि भई देखिये सही बात कही गई है:
अठावन घड़ी कर्म के, तो दो घड़ी धर्म के.
यानि कि मैंने दो घड़ी जो धर्म में invest किया ,धर्म का कार्य किया और आज उसकी वजह से मेरी जान बच गई.

कितनी अच्छी बात है न.इसीलिए मनुष्य जीवन का इस्तेमाल आप मनुष्य जीवन का लक्ष्य समझने के लिए कीजिये,भगवान तक पहुँचने के लिए कीजिये.
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कार्यक्रम में आप सभी का स्वागत है.मै हूँ आपके साथ प्रेमधारा और हम चर्चा कर रहे हैं बहुत ही सुन्दर श्लोक पर.

कामस्य नेंद्रियपीतिर्लाभो जीवट यावता |
जीवस्य तत्त्वजिज्ञासा नार्थो यच्श्रेह कर्मभिः ||
अर्थात्
जीवन की इच्छाओं को कभी भी इंद्रतृप्ति की तरफ नही मोडना चाहिए.मनुष्य की इच्छा सिर्फ स्वस्थ जीवन जीने की होनी चाहिए क्योंकि मनुष्य जीवन परमसत्य के बारे में जिज्ञासा करने के लिए मिला है.इसके अलावा कर्मों का अन्य लक्ष्य नही होना चाहिए.

यानि कि देखिये कर्म करने की शक्ति हमें कौन देता है.भगवान देते हैं.आप सोचते हैं कि आप रोज खाना खाते हैं तो शक्ति अपने आप आ जाती है.जी नही खाना भी तो भगवान ही देते हैं न.
अन्नाद्भवन्ति भूतानि (भगवद्गीता,3.14)
तो सब कुछ भगवान आपको देते हैं.तो वो इसी लिए देते हैं कि आप स्वस्थ रहके भगवान के बारे में जिज्ञासा करे.उन्हें पाने का प्रयास करे.याद रखिये कि जब शरीर स्वस्थ रहेगा तभी तो आप भगवान के बारे में जिज्ञासा कर पायेंगे.लेकिन यदि आपका शरीर अस्वस्थ है.आपने खाट पकड़ ली है.आप bed-hidden हो गए हैं तो फिर आपका जो शरीर के प्रति ध्यान है वो ज्यादा होता चला जाएगा.ज्यादा उस तरफ चला जाएगा.क्योंकि शरीर बहुत दुखमय है तो आपका ध्यान भी उसी तरफ होगा.
इसीलिए कहा गया है:
असन्न  अपि क्लेशः आस्तेह
ये शरीर है इसीलिए सब दुःख है.शरीर से ही दुःख हमें मिलते हैं. तो भई अच्छी बात तो ये हैं कि अगला जन्म हमें ऐसा मिले कि जिसमे हमें material body नही मिले,भौतिक शरीर की प्राप्ति न हो.तो कहाँ,किस शरीर की प्राप्ति हो?ये जानना ही कहलाता है अथातो ब्रह्मजिज्ञासा.ब्रह्म की जिज्ञासा करना.भक्ति की राह में निकलना.

ये मनुष्य जीवन बहुत ही अनित्य है लेकिन बहुत ही useful है,अर्थदम है.आपसे यही request है,यही अपील है कि आप इस मनुष्य जीवन को सफल बनाइये.भगवान की भक्ति में जरूर संलग्न होईये.
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समर्पण में आपका स्वागत है.मै हूँ आपके साथ प्रेमधारा और अब हम आपके sms लेते हैं कार्यक्रम में.ये sms आया है मुरारी जी का दिल्ली से:
SMS:Please tell me why God tests His love ones so many times? 
Reply:ये कहते हैं कि ये बातायिये कि भगवान अपने भक्तों की परीक्षा इतनी बार क्यों लेते हैं?

मुरारी जी आप जानते हैं कि जब सोने को आग में तपाया जाता है तो कंचन हो जाता है.इसीप्रकार से जब भक्त बहुत सारी परीक्षाएं देते हैं तो भगवान के प्रिय हो जाते हैं.यानि कि वो परीक्षाएं देते देते वो शुद्ध हो जाते हैं.कहते हैं न:
मुश्किलें इतनी पडी हम पर कि आसां हो गए.
तो सारी मुश्किलें आसान हो जाती हैं और भगवान की कृपा पर आप भरोसा रखिये.जब आपकी परीक्षा वो लेते हैं तो pass भी स्वयं कर देते हैं.

SMS:राजीव शर्मा खतौली से पूछते हैं कि आत्मा हमारे कर्म या विकर्म करने में सहयोगी है?

Reply:राजीव जी क्या बात करते हैं आप.आपने अपने दिल को आत्मा बना दिया है क्या.आत्मा अलग है क्या आपसे.आप ही तो आत्मा हैं और यदि आप कर्म या विकर्म करेंगे तो आपको उसकी सजा या फिर इनाम लेना ही होगा क्योंकि आप आत्मा है.
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