Thursday, September 30, 2010

भगवान हमें कछुए का उदाहरण दे सीखा रहे हैं इन्द्रियों को संयमित करना : Explanation by Premdhara Parvati Rathor on 104.8 FM(28th Sept 2010)


104.8 FM पर प्रस्तुत है कार्यक्रम अराधना.मै हूँ आपके साथ प्रेमधारा पार्वती राठौर.नमस्कार.कैसे हैं आप.तो आज के कार्यक्रम में हम चर्चा करेंगे एक बहुत-ही सुन्दर श्लोक पर जिसमे भगवान ने बहुत ही सुन्दर बात कही है.एक बहुत ही सुन्दर जानवर का example उन्होंने दिया है और दिखाया है कि देखो हम जानवरों से कितना कुछ सीख सकते हैं.कितना कुछ.

इस संसार में ऐसे अनेकानेक उदाहरण हैं ,ऐसी अनेकानेक वस्तुएं हैं,जानवर हैं,जीव हैं जिससे हम बहुत कुछ सीख सकते हैं.भगवान ने एक कछुए का उदाहरण दिया है जो कि अपने अंगों को संकुचित करके अपने अंगों के भीतर कर देता है.इन्द्रियों की तुलना की गई है उसके अंगों के साथ.तो बहुत ही सुन्दर बात भगवान ने कही है.आईये हम चर्चा करते हैं श्लोक पर जिसमे भगवान ने ये बात कही है और इसके example के द्वारा भगवान ने बहुत बड़ी सीख दी है.तो सीख क्या है इसे जानने का प्रयास करते हैं.श्लोक है:

यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गनीव सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥(भगवद्गीता 2.58)
अर्थात
जिसप्रकार कछुआ अपने अंगों को संकुचित करके खोल के भीतर कर लेता है उसीतरह जो मनुष्य अपनी इन्द्रियों को इंद्रविषयों से खींच लेता है वो मूल चेतना में दृढतापूर्वक स्थिर होता है.


तो भगवान ने बहुत सुन्दर बात यहाँ कही है.बहुत सुन्दर शिक्षा यहाँ दी है.देखिये भगवान हमेशा जब भी कुछ बोलते हैं तो वो आपको ज्ञान से आप्लावित करने के लिए बोलते हैं.वो आपको शिक्षित करने के लिए बोलते हैं.आप अपनी universities की degrees पर आप कभी अभिमान न करना यदि आपको इतना नही पता कि हम अपनी इन्द्रियों को काबू कैसे करते हैं.एक जानवर से भगवान ने हमें सिखाया है.एक जानवर का दृष्टांत भगवान ने हमें दिया है कछुए का कि जिसतरह से कछुआ अपने अंगों को संकुचित करके खोल के भीतर कर लेता है उसीतरह जो मनुष्य अपनी इन्द्रियों को इन्द्रियविषयों से खींच लेता है.

यानि कि ये बात बतायी गयी है कि इन्द्रियाँ अपने इन्द्रियविषयों की तरफ जरूर भागेंगी.ये इन्द्रियों की प्रकृति है लेकिन बुद्धिमान वो है जो अपनी इन्द्रियों को इन्द्रियविषयों से खींच ले.अगर वापस खींच लेगा तो वो स्थितप्रज्ञ है नही तो आप समझ सकते हैं.

तो आप सुनते रहिये आराधना मेरे साथ.
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मै हूँ आपके साथ प्रेमधारा पार्वती राठौर.हम चर्चा कर रहे हैं बहुत ही सुन्दर श्लोक पर.

यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गनीव सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥(भगवद्गीता 2.58)
अर्थात
जिसप्रकार कछुआ अपने अंगों को संकुचित करके खोल के भीतर कर लेता है उसीतरह जो मनुष्य अपनी इन्द्रियों को इंद्रविषयों से खींच लेता है वो मूल चेतना में दृढतापूर्वक स्थिर होता है.


तो भगवान यहाँ स्थितप्रज्ञ की परिभाषा आपको एकबार फिर से बता रहे हैं कि जो भक्त होता है या योगी होता है वो अपनी इन्द्रियों को बेलगाम छोडता नही है.बेकाबू नही होने देता है.कभी भी उनकी इन्द्रियाँ उनके काबू से बाहर नही होती हैं.भक्त की परिभाषा ही यही होती है कि वो अपनी इन्द्रियों को निर्मल कर देता है.कैसे?भगवान नाम के जाप से या फिर भगवान की याद से या फिर किसी भी प्रकार से भगवान से जोड़  करके.उसकी इन्द्रियाँ निर्मल हो जाती हैं.विमल हो जाती हैं.

तो यहाँ भगवान यही बात कहते हैं कि आप कछुए को देखिये.कई बार आप गए होंगे समुद्र तट पर.कई बार आपने समुद्र की लहरों का मजा लिया होगा और वहाँ कछुए भी देखे होंगे.पर जब ही आपने कछुए देखे आप उनके पीछे भागते होंगे मस्ती करने के लिए लेकिन शायद ही कोई व्यक्ति हो जो ये सोचता हो कि अरे ! कछुआ अपने अंगों को कैसे अंदर समेत लेता है.तो यानि कि हमें भी अपनी इन्द्रियों को अपने काबू में करना चाहिए.हाँ.भगवान ने यही तो बताया है.शास्त्र भी.तो बहुत कम लोग इस बारे में सोचते होंगे.

तो देखिये कहीं से भी आप शिक्षा ले सकते हैं.कहीं से भी और भगवान एक छोटे से जानवर से आपको शिक्षा दिला रहे हैं.बात रहे हैं कि देखिये ये छोटा-सा जानवर जिसतरह से अपने अंगों को संकुचित कर लेता है बिल्कुल  ठीक उसी तरह से जब इन्द्रियों को ललचाने वाले विषय सामने देखे आप अपनी इन्द्रियों को समेत लीजिए.

मसलन आपको लगा मुझे फिल्म देखने जाना है.पर याद रखिये फिल्म देखने जाना बुरी बात नही है लेकिन फिर भी बहुत बुरी बात है.क्यों?क्योंकि इससे आपकी चेतना कलुषित होगी.इससे आपकी चेतना दूषित होगी.तब आप अपने मन को समझायिये कि अरे नही इससे हमारी चेतना दूषित होगी.इससे अच्छा वो साढ़े तीन घंटे हम भगवान का नाम ही क्यों न ले.सोचिये है न बड़ी अच्छी बात.

तो सुनते रहिये अराधना मेरे साथ.
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आराधना में मै हूँ आपके साथ प्रेमधारा पार्वती राठौर.हम चर्चा कर रहे हैं एक श्लोक पर.बहुत ही सुन्दर श्लोक है ये.

यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गनीव सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥(भगवद्गीता 2.58)
अर्थात
जिसप्रकार कछुआ अपने अंगों को संकुचित करके खोल के भीतर कर लेता है उसीतरह जो मनुष्य अपनी इन्द्रियों को इंद्रविषयों से खींच लेता है वो मूल चेतना में दृढतापूर्वक स्थिर होता है.


आप ये याद रखना कि जो इन्द्रियाँ हैं आपकी वो कुछ नही विषैले सर्प हैं.विषैले साप हैं.जहरीले सांप है. poisonous snacks हैं.कैसे?ये इतनी विषैली हैं,इतनी विषैली हैं कि जब आप इन्द्रियों की बात मानते हैं तो ये आपकी चेतना को विष से भर देती है.विष से और कभी भी ये इन्द्रियाँ आपको than you नही बोलती कि हाँ आपने हमारी demands को पूरी की.कभी भी नही बोलती.हमेशा बोलती है कि ओह! तुमने हमारे लिए किया ही क्या है.हमेशा.

आदमी बुढा हो जाता है.कई बार वो बिस्तर से भी लग जाता है बीमार हो करके लेकिन तब भी इन्द्रतृप्ति  की इच्छा उसकी बलवती रहती है.डॉक्टर कहता है कि नही आप इन्हें ये नही खिलाना लेकिन तब भी उसकी ख्वाहिश रहती है कि अगर मुझे वो मिल जाता ,मरने से पहले मै वो खा लेता तो शायद मुझे बहुत अच्छा लगता.

तो ये इन्द्रियाँ इतनी,इतनी बलवान होती हैं.जो भक्त है,जो भगवान का भक्त है वो एक दक्ष संपेरा होता है.सँपेरे के समान उसे बहुत ही alert होना होता है.कैसे?क्योंकि एक संपेरा एक सांप को वश में कर सकता है और जो भक्त है वो अपनी चलायमान इन्द्रियों को वश में कर लेता है बड़े आराम से.और भगवान ने बताया है कि इन्द्रियों को जब आप इन्द्रियविषयों से खींच ले.

अब इन्द्रियों के इन्द्रियविषयों क्या हैं?आँख का जो इन्द्रियविषय है वो है रूप.आँख रूप देखती है.नाक का है गंध.नाक गंध लेती है.कान के हैं शब्द.त्वचा का है स्पर्श और जिह्वा का है स्वाद.ये हमारे इन्द्रियविषय हैं.ये पाँच जो ज्ञान इन्द्रियाँ हैं उनके पाँच इन्द्रियविषय हैं.और जब आप इन्द्रियविषय से हट जाएँ यानि आपको लगे कि अरे वाह मुझे बहुत चटपटा खाना है लेकिन तब आप सोचे कि अरे चटपटा खाने से क्या होगा.रजोगुण कि प्राप्ति ही तो होगी और आप सोचे कि नही simple खाना खाना है.सात्विक आहार तो समझ लीजिए कि आप एक अच्छे  पथ पर अग्रसर हो गए.याद रखिये.

तो सुनते रहिये अराधना मेरे साथ.
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कार्यक्रम में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा पार्वती राठौर.हम चर्चा कर रहे हैं बहुत ही सुन्दर श्लोक पर.

यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गनीव सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥(भगवद्गीता 2.58)
अर्थात
जिसप्रकार कछुआ अपने अंगों को संकुचित करके खोल के भीतर कर लेता है उसीतरह जो मनुष्य अपनी इन्द्रियों को इंद्रविषयों से खींच लेता है वो मूल चेतना में दृढतापूर्वक स्थिर होता है.


तो भगवान ने आपको बहुत सुन्दर शिक्षा दी है और इस शिक्षा से लाभ उठाईये.अपनी इन्द्रियों को अपने वश में रखना सीखिए.ये नही कि अभी आपको आँख बोल रही है कि बाएं चलो मुझे वो देखना है और आपको मुँह बोलता है कि नही दाहिने चलो चाटवाला खड़ा है.मुझे चाट खानी है और आपको कान बोलता है कि नही नही मुझको तो वो गाने सुनने हैं,वहाँ चलो.तब आप सोचिये आप बेचारे आपकी हालत क्या हो जायेगी क्योंकि आप तो अकेले हैं न.आप आत्मा हैं न.अगर आप अपनी दस इन्द्रियों की दस बातें मानेंगे एकसाथ वो भी तो क्या हालत हो जायेगी .

आपकी इसीलिए भगवान जानते हैं.भगवान भाई आपके परमपिता हैं.आपको बनाया हैं उन्होंने.तो भगवान अनते हैं कि आत्मा कहाँ जाकर के मजबूर हो जाती है.जब वो अपने देह में रम जाती है.अपने आप को देह मानने लगती है तब उसका पतन प्रारंभ होता है.जब आप अपने आप को शरीर मानोगे तभी तो आप अपने शरीर की जरूरतों को पूरा करने के लिए 24 hrs लगे रहोगे.चौबीसों घंटे.तब क्या होगा?तटब तो समझ लोजिये कि आपकी human life का loss हो जाएगा.नुकसान हो जाएगा.

तो इसीलिए भगवान ने आपको ये शिक्षा दी है कि आप अपनी इन्द्रियों को उनके इन्द्रियविषयों में रमने मत देना.ज्यादा मत रमने देना.इसका अर्थ ये नही है कि आपको भूख लगी है तो आप खाना छोड़ दे.इसका अर्थ ये नही है कि आप कुछ भी सुनना छोड़ दे.जी नही.अगर कुछ बेकार चीज आपके सामने आ जाती है तो उसे ignore कर दीजिए.यानि कि उसे अनदेखा कर दीजिए.

लेकिन हाँ अगर भगवान का अर्पित प्रसाद आपके सामने आता है तो उसे जरूर खाईये.यदि भगवान के गुणगान आपके कान में पड़ते हैं तो उसे जरूर सुनिए.याद रखिये यही सब करने के लिए आपको मनुष्य जीवन मिला है.यदि भगवान का रूप आपके सामने आता है तो आप उसे जरूर देखिये और भगवान के भक्तों का स्पर्श कीजिये.भगवान के भक्तों से जरूर गले मिलिए क्योंकि मनुष्य जीवन तभी सार्थक होगा जब आप भगवान और उनके भक्तों की क़द्र करेंगे.

तो सुनते रहिये अराधना मेरे साथ.
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कार्यक्रम में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा पार्वती राठौर और अब लेते हैं आपका sms.
SMS:
ये सवाल हमसे पूछा है राघव ने सिलमपुर से.ये कहते हैं कि 
जो लोग भगवान में विश्वास नही करते हैं उन्हें आप क्या कहेंगी?किसप्रकार से वो भगवान में विश्वास करें.क्या वो कुछ पढ़े ताकि उनकी जिंदगी में भी कुछ अच्छा हो?

राघव देखिये आप जो कहते हैं न कि जो लोग भगवान में विश्वास नही करते हैं.ये बहुत दुःख की बात है क्योंकि भगवान हैं और वो अपने होने का प्रमाण कई कई बार प्रस्तुत करते हैं.जब आप साँस लेते हैं तो आप सोचते हैं कि ये साँस मै ले रहा हूँ.लेकिन आप जाकर के ICU में देखिये ,hospital में ICU में देखिये.आप देखेंगे कि इतनी सारी नलियाँ उनके अंदर लगाईं गई हैं ऑक्सीजन जाए .कार्बनडाईक्साइड्स retain न हो .उनके शरीर में रह न जाये.कितनी सारी चीजें लगाईं जाती है और उन्हें ventilator पर रख दिया जाता है.

तो सोचिये साँस लेना ये भी कौन आपको मुहैया करा रहा है.कौन शक्ति दे रहा है कि आप साँस भी ले पपा रहे हैं.हाँ.वो भगवान ही तो हैं.

बहरहाल  यदि कोई व्यक्ति  भगवान में विश्वास नही करता है तो भाई हम तो यही कहेंगे कि मनुष्य जीवन आपको मिला आपको मिला है.प्रयास कीजिये कि आपका मनुष्य जीवन सुधर जाए.प्रभु में विश्वास करने का प्रयास कीजिये और इसके लिए जरूरी है भक्तों का संग.यदि आप भक्तों का संग करेंगे और कुसंग को त्याग देंगे तो आप अवश्य ही ,अवश्य ही भगवान को प्राप्त कर पायेंगे.

इसी के साथ इजाजत दीजिए प्रेमधारा पार्वती राठौर को.नमस्कार.

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Monday, September 27, 2010

कौन है भगवान की नजर में विद्वान : Explanation by Premdhara Parvati Rathor on 104.8 FM(27th Sept 2010)

104.8 FM पर प्रस्तुत है कार्यक्रम अराधना.मै हूँ आपके साथ प्रेमधारा पार्वती राठौर.कैसे हैं आप?तो भाई आज के कार्यक्रम में हम चर्चा करेंगे भगवान के द्वारा कहे गए एक बहुत ही सुन्दर श्लोक पर.प्रभु ने एक बहुत सुन्दर बात कही है और वो भी तब जब भगवान का भक्त अर्जुन बहुत-ही शोकाकुल थे.बहुत ही शोक से ग्रस्त थे.उन्हें समझ नही आ रहा था कि वो क्या करे ,क्या न करे.तो भगवान ने कहा कि देखो तुम कहते तो बहुत विद्वतापूर्ण बात हो.तुम्हे लगता है कि तुम विद्वान हो.लेकिन क्या सच में तुम विद्वान हो.

भगवान ने विद्वान कौन है इसकी परिभाषा बतायी है.भगवान ने बताया है कि जो सुख और दुःख  में धीर बना रहता है.जो न तो जीवित के लिए शोक करता है और न ही मृत के लिए.वही विद्वान है.जो हमेशा शोकाकुल रहता है यानि वो व्यक्ति  अभी भी कही-न-कही से attachment का शिकार है.attachment यानि आसक्ति.आसक्ति का शिकार है और देखिये सारा खेल आसक्ति और विरक्ति का है.

यदि हमारा मन इस भौतिक जगत में लग गया तो हम बहुत-बहुत आसक्त कहलायेंगे.और यदि हम आसक्त हो गए  तो फिर हमें लौटकर दुबारा यही जन्म लेना पडेगा.मै आपको बता दूं अगर आप यहाँ दुबारा जन्म लेते हैं तो इसका अर्थ ये है कि आपने आत्महत्या कर ली.आत्महत्या यानि आत्मा की हत्या.

तो आज का श्लोक बहुत-ही सुन्दर श्लोक है जिस पर हम पूरे कार्यक्रम में चर्चा करेंगे.श्लोक ध्यान से सुनिए:

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे ।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ॥(भगवद्गीता 2.11)


श्री भगवान ने कहा- तुम पांडित्यपूर्ण वचन कहते हुए उनके लिए शोक कर रहे हो जो शोक करने योग्य नही हैं. विद्वान होते हैं वो न तो जीवित के लिए और न ही मृत के लिए शोक करते हैं.

तो देखिये कितनी सुन्दर बात भगवान ने बतायी है.अर्जुन को बहुत ही शोक था.वो बार-बार यही कहते थे भगवान  से कि भगवान हम युद्ध तो कर रहे हैं पर इस युद्ध में हम मारेंगे किसे.हम मरेंगे अपनो को.यानि अपने अपनो को.ये सारे हमारे अपने हैं.ये मेरे बाबा हैं जिन्होंने मुझे उँगली पकड़कर चलना सीखाया.वो मेरे गुरु हैं जिन्होंने मुझे समस्त शास्त्रों की विद्या दी.समस्त शस्त्रों की विद्या दी.मै इन पर हाथ उठाऊंगा.इन पर हथियार उठाउंगा.

तो अपनी बात के समर्थन में अर्जुन ने अनेकानेक तर्क दिए थे.अनेकानेक बात कही थी जिससे ऐसा जाहिर होता था कि मानो अर्जुन को बहुत कुछ पता है.वो जानते हैं कि सही क्या है और गलत क्या है.तो भगवान ने उनकी मनोधारणाओं को तोड़ दिया अपने इस श्लोक के साथ.तो आईये आज हम चर्चा करेंगे इसी श्लोक पर.आप सुनते रहिये अराधना मेरे साथ.
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हम चर्चा कर रहे है बहुत ही सुन्दर श्लोक पर.

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे ।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ॥(भगवद्गीता 2.11)

श्री भगवान ने कहा- तुम पांडित्यपूर्ण वचन कहते हुए उनके लिए शोक कर रहे हो जो शोक करने योग्य नही हैं. विद्वान होते हैं वो न तो जीवित के लिए और न ही मृत के लिए शोक करते हैं.


तो देखिये इसमे विद्वान की एक परिभाषा दी है भगवान ने.हमलोग सोचते हैं कि अगर हमारे पास ढेर सारी डिग्रियाँ होंगी या हमारे पास कोई ऊँचा प्रतिष्ठामय पद होगा या हमारे पास बहुत पैसे होंगे या हम कुछ भी बोलते रहेंगे,बोलते रहेंगे और लोगों को impress करते रहेंगे तो हम विद्वान कहलायेंगे.तो वो विद्वान नही है.ये विद्वतापूर्ण कार्य नही है.विद्वतापूर्ण कार्य भगवान ने बताया है कि जो विद्वान होते हैं.जो पंडित होते हैं.पंडित यानि विद्वान.जिन्हें पता है कि जीवन का मूल्य क्या है.जिन्हें पता है कि मनुष्य जीवन का असल मोल क्या है.ऐसे लोग न ही जीवित के लिए शोक करते हैं और न ही मृत के लिए.

वो ये नही कहते कि हाय! ये क्यों पैदा हो गया.इसे नही पैदा होना चाहिए था.या वो ये नही कहते कि हाय ! वो मर  क्यों गया.क्योंकि वो अच्छी तरह से जानते हैं कि ये जो शरीर है वो जड़ है और इस शरीर के अंदर रहनेवाला जो तत्त्व है ,जिसकी वजह से ये शरीर चलायमान है वो तत्त्व,आत्मा है.वही हमारी असली पहचान है.वही हम है.

और आप देखिये कि भगवान ने इसी बात की तरफ भगवान ने इस श्लोक में इशारा किया है.कईबार हम लोग सोचते हैं कि हम बहुत विद्वतापूर्ण बात कर रहे हैं तो वास्तव में वो बहुत मूर्खतापूर्ण बातें होती है क्योंकि विद्वान वो होता है जो कभी भी जीवित और मृत के लिए शोक से बाहर होता है.शोक नही करता कभी भी.दुखी नही होता.धीर-गंभीर होता है.

तो भाई धीर-गंभीर होने का जो राज है वो क्या है.कैसे होंगे आप धीर-गंभीर.वो आप तभी होंगे जब आप भगवान की सेवा में लगेंगे.जब आप भगवान से प्रेम करेंगे.जब आप भगवान के लिए जीयेंगे और जब आप भगवान से अपने आप को जोड़ लेंगे.तब आपके अंदर आयेगी धीरता भी,गंभीरता भी.

और आप सुनते रहिये अराधना प्रेमधारा पार्वती राठौर के साथ.
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बहुत सुन्दर श्लोक है आपके लिए.

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे ।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ॥(भगवद्गीता 2.11)

श्री भगवान ने कहा- तुम पांडित्यपूर्ण वचन कहते हुए उनके लिए शोक कर रहे हो जो शोक करने योग्य नही हैं. विद्वान होते हैं वो न तो जीवित के लिए और न ही मृत के लिए शोक करते हैं.

तो देखिये भगवान ने बहुत सुन्दर बात यहाँ आपको बतायी है.बहुत सुन्दर जानकारी आपको दी है.ये आपको बताया है कि अगर आप सच में विद्वान कहलाना चाहते हैं तो आपको ये खुशी और गम इससे ऊपर उठना पडेगा.इसी बात पर मुझे एक बहुत सुन्दर कथा याद आती है.

"एक बार एक राजा था.राजा के पास कोई संतान नही थी.राजा था चित्रकेतु.और फिर एक ऋषि उनसे मिलने आये.ऋषि का नाम था अंगिरा.अंगिरा ऋषि ने उन्हें वरदान दिया कि ठीक है तुम्हे पुत्र होगा लेकिन उस पुत्र का नाम तुम रखना हर्षशोक.हर्षशोक पैदा हुआ.हर्षशोक जब पैदा हुआ तो पूरा देश खुशियाँ मनाने लगा.राजा की अनेकानेक रानियाँ थी.वो सब जलभुन गई.सबको बहुत दुःख हुआ कि हमसे तो औलाद पैदा हुई और यहाँ ये बच्चा पैदा हुआ है.अब राजा हमें देखता भी नही.सिर्फ हर्षशोक के पास रहता है.उसकी माँ के पास रहता है.

तो फिर उन सारी रानियों ने plan बनाया.उन सारी रानियों ने उस बच्चे को खत्म कर दिया.उस बच्चे को जहर पिला दिया और वो बच्चा मर गया.हर्षशोक मर गया.हर्षशोक जो हर्ष का विषय बना था अपने माँ-बाप के लिए वो विषाद का विषय बन गया.शोक का विषय बन गया.

फिर चित्रकेतु जब दुःख में डूब गए तो उनके पास मिलने के  लिए एक महाऋषि आये नारद जी.नारद जी परम विद्वान.उन्होंने चित्रकेतु को समझाया और फिर कहा कि ठीक है थोड़ी देर के लिए मै आपके इस बच्चे को जीवित कर देता हूँ.आप इन्ही से पूछिए कि ये किसका बच्चा है.बच्चे को जीवित किया गया तो हर्षशोक ने आँखें खोलते ही कहा -आप कौन हैं?चित्रकेतु को बड़ा अजीब लगा.वो अपने को विद्वान समझते थी.उन्होंने कहा अरे तुम मुझे नही पहचानते बेटा.मै तुम्हारा पिता हूँ और ये तुम्हारे माँ है.हम तुम्हारे लिए शोकाकुल हैं.

हर्षशोक ने कहा - आप माँ-बाप हैं.कौन से जन्म के माँ-बाप हैं.इस जन के.पिछले जन्म के.कब के माँ-बाप हैं.ये सुनते ही चित्रकेतु को बिल्कुल ये बात समझ आ गई.एक आत्मा का एक आत्मा से संबंध होता भी है तो सिर्फ इसलिए कि वो परमात्मा का अंश है.वरना शरीर का संबंध शरीर के साथ है और शरीर मर्त्य है.याद रखिये.

तो सुनते रहिये अराधना मेरे साथ.
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अराधना में आपके साथ हूँ  मै प्रेमधारा पार्वती राठौर.हम चर्चा कर रहे हैं बहुत ही प्यारे श्लोक पर.आपने श्लोक सुना और श्लोक का अर्थ मै एकबार फिर से आपको बता दूं.

श्री भगवान ने कहा- तुम पांडित्यपूर्ण वचन कहते हुए उनके लिए शोक कर रहे हो जो शोक करने योग्य नही हैं. विद्वान होते हैं वो न तो जीवित के लिए और न ही मृत के लिए शोक करते हैं.

तो देखिये ये जो श्लोक भगवान ने कहा है.ये बात जो बताई है वो तब बताई जब अर्जुन ने भगवान को गुरु मान लिए.इससे पहले अर्जुन भगवान को अपना सखा मानते थे और फिर जब वो उनसे बात करते थे तो इस तरह से बात करते थे कि अर्जुन भी भगवान को सलाह देते थे.लेकिन जब वो किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए.जब उन्हें समझ नही आया कि मै क्या करूँ.मै आ तो गया हूँ युद्ध में लेकिन समझ नही आता कि अपने सामनेवालों पर हथियार उठों या छोड़ दूं.राज्यप्राप्ति की जो इच्छा थी वो धूमिल हो रही थी.

तो उन्होंने भगवान की शरण ले ली और यही हम सबको करना चाहिए.हमें अपने बल पर कुछ प्राप्त करने का प्रयास नही करना चाहिए.क्या प्राप्त करेंगे आप.ये जड़ जगत है.पदार्थ यहाँ है सबकुछ.वो सब मर्त्य है यानि सबकी समाप्ति होना अवश्यम्भावी है.तो क्या प्राप्त करना चाहते है आप.जो भी आप प्राप करना चाहते हैं वो कभी-न-कभी तो समाप्त होगा न.

और यही बात अर्जुन को समझ आ गई थी.इसीलिए उन्होंने भगवान कको गुरु बना लिया था.तब भगवान ने उन्हें समझाया कि देखो तुम ज्ञान प्राप्त करो यानि तुम ये बता रहे हो कि तुम ज्ञानी हो पर ज्ञान का अर्थ वो बहुत अलग है.ज्ञान का अर्थ है पदार्थ को जानना.आत्मा को जानना और ये भी जानना कि पदार्थ और आत्मा ,इनकी उत्पत्ति हुई कहाँ से है.कौन इनका नियामक है.कौन इनका controller है.ये जानना बहुत जरूरी है.

तो भगवान चाहते हैं कि उनके जो शिष्य हैं.उनके जो भक्त हैं वो असली ज्ञानी बने.और जो ज्ञानी होता है वो जानता है कि पदार्थ में रमना,पदार्थ की आसक्ति बुरी है.क्यों?क्योंकि आप कितने भी पदार्थ एकत्र कर ले आप कभी खुश नही रह सकते.आपको संपूर्णता हासिल नही होगी.आपको संपूर्णता हासिल तभी होगी.आपको चैन हासिल तभी होगा ,आपको खुशी हासिल तभी होगी जब आप समझ जाएँ कि पदार्थ से कुछ होनेवाला नही है.आत्मा की खुशी चाहिए तो आपको इनदोनो के नियामक को जानना होगा.प्रभु को जानना होगा.

तो सुनते रहिये अराधना मेरे साथ.
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104.8 FM पर मै हूँ आपके साथ प्रेमधारा पार्वती राठौर.अब समय है आपका एक प्रश्न लेंने का.
ये प्रश्न हमसे पूछा है संदीप राठौर ने दिलशाद गार्डन से.ये पूछते हैं कि 
जीवन में स्थिर कैसे हुआ जाए?स्थिरता का क्या लक्षण है?

तो देखिये संदीप.आपने बहुत अच्छा प्रश्न पूछा है और इस प्रश्न का उत्तर भगवान ने बहुत ही खुबसूरती से दिया है.भगवान कहते हैं 
प्रजहाति यदा कामान्‌ सर्वान्पार्थ मनोगतान्‌ ।
आत्मयेवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥(भगवद्गीता 2.55)

कि जब मनुष्य मनोधर्म से उत्पन्न होनवाली इन्द्रतृप्ति की समस्त कामनाओं का परित्याग कर देता है  और जब इसतरह से विशुद्ध हुआ उसका मन आत्मा में संतोष प्राप्त करता है तो वो विशुद्ध दिव्य चेतना को प्राप्त कहा जाता है.स्थितप्रज्ञ कहा जाता है.

यानि जन मनुष्य मनोधर्म से उत्पन्न होनेवाली.देखिये जो आपकी इन्द्रतृप्ति की लालसा है.जो आप सोचते हैं.जो आपका मन इधर-उधर भागता है .मै ये कर लूं,वो कर लूं.इसे प्राप्त कर लूं,उसे प्राप्त कर लूं.मेरा accumulation अच्छा हो जाए.मेरा bank balance अच्छा हो जाए.मेरी एक बहुत अच्छी पत्नी हो और मेरा बहुत अच्छा settle life  हो.ये सारा कुछ.ये सारी इच्छाएं उत्पन्न कहाँ होती हैं?ये उत्पन्न होती हैं मन में.

और जो व्यक्ति मन में उत्पन्न इच्छाओं को पूरा करने के लिए भागता रहता है.दौडता रहता है.उसे ही अपना धर्म मान लेता है.वो व्यक्ति हमेशा अस्थिर रहता है.हमेशा unstable रहता है.उसमे stability कहाँ से आ सकती है.तो भगवान कहते हैं कि पहले तो आप मन से उत्पन्न होनेवाली इन्द्रतृप्ति की समस्त कामनाएं हैं उसका परित्याग कर दो.है न.सोचो मत.जब आप अपनी शरण लोगे तो सोचोगे ही लेकिन जब आप भगवान की शरण ले लेंगे तब आप कभी नही सोचेंगे इन कामनाओं के बारे में.

तो भगवान कहते हैं कि जैसे ही आप इन कामनाओं का परित्याग कर देंगे और आपका मन अपनाप में संतोष प्राप्त करता है.आत्मा भगवान का अंश है.यदि आप भगवान में संतोष प्राप्त करने लगते हैं.भगवान के बारे में आप सोचने लगते हैं.भगवान से सम्बंधित कार्य करने लगते हैं तो आपका मन जो है संतुष्ट होने लगेगा और याद रखना आप स्थिरप्रज्ञ हो जायेंगे.आपके जीवन में stability आ जायेगी.

मेरे ख्याल से आपको इस जबाब से कोई न कोई help मिलेगी.

इसी के साथ अब इजाजत दीजिए अब प्रेमधारा पार्वती राठौर को.नमस्कार.