Friday, May 27, 2011

भगवान सम्पूर्ण जगत के पिता,आध्यात्मिक गुरु और परम नियंता हैं :Explanation by Maa Premdhara(102.6 FM)

Spiritual Program SAMARPAN On 26th March, 2011(102.6 FM)
कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा .नमस्कार.कैसे हैं आप.अक्सर लोग भगवान को विभिन्न नामों से पुकारते हैं.कोई उन्हें पिता कहता है तो कोई स्वामी,कोई परमेश्वर तो कोई ईश्वर,कोई भगवान तो कोई परम महान.हर इंसान भगवान की ओर निहारता है.हर इंसान.अपनी मान्यता के अनुसार उन्हें किसी-न-किसी संबोधन से पुकारता है,बुलाता है.शास्त्र भी कहते हैं कि भगवान ही परम पिता हैं.पितामह भी वही हैं और माता भी असल में वही हैं.

हमारा आज का श्लोक भी भगवान के अनेक roles पर अनेक संबोधनों के साथ प्रकाश डाल रहा है.श्लोक ध्यान से सुनिए.श्लोक है:
पिता गुरुस्त्वं जगतामधीशो 
दुरत्ययः काल उपात्तदण्डः | 
हिताय चेच्छातनुभिः समीहसे 
मानं विधुन्वन् जगदीशमानिनाम् || (श्रीमद्भागवत,10.27.6)

अर्थात् 
हे भगवन ! आप इस सम्पूर्ण जगत के पिता,आध्यात्मिक गुरु और परम नियंता भी हैं.आप दुर्लंघ्य काल हैं जो पापियों को उन्ही के लाभ के लिए दंड देता है.निस्संदेह स्वेच्छा से लिए जानेवाले विविध अवतारों में आप उन लोगों का मिथ्या गर्व दूर करते हैं जो अपने को इस जगत का स्वामी मान बैठते हैं.

तो देखिये यहाँ भगवान को कहा गया है कि वे सम्पूर्ण जगत के पिता हैं.जी हाँ,जो create करता है,जो सृजन करता है,जो बनाता है,जो रचना करता है वही तो पिता कहलाता है और शास्त्र कहते हैं कि भगवान ने ही सम्पूर्ण जगत को बनाया है.भगवान ने ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को बनाया है.भगवान ने ही सूरज,चाँद,सितारों को बनाया है.इसलिए भगवान सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के पिता हैं क्योंकि वही बीजप्रदः पिता हैं.भगवान कहते भी हैं:
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः । 
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ॥(भगवद्गीता,14.4)
भगवान स्वयं कहते हैं कि सभी योनियों को हे कुन्तीपुत्र मैंने ही बनाया है.सभी योनियों का बीज मैंने ही प्रदान किया है और बीज जो प्रदान करता है पिता उसे ही कहते हैं.

इसीलिए जो पिता होता है उसका अपने creation पर,अपनी रचना पर पूरा अधिकार होता है और उसका कर्त्तव्य भी होता है कि उसकी रचना,उसके बच्चे सही मार्ग पर चले.मार्ग से कही भटक न जाए.ये जिम्मेदारी पिता की होती है.तो पिता अनेक बार बहुत-ही,बहुत-ही विनम्र तरीके से पेश आता है अपने बच्चों के साथ और कई बार बहुत सख्त भी हो जाता है.

तो भगवान हमारे पिता हैं और कईबार वे बहुत ही प्यार से हमारे साथ पेश आते हैं किन्तु काल के रूप में वे अक्सर सख्त भी हो जाते हैं.तो हम भगवान की इन्ही विविध प्रकार की भूमिकाओं पर चर्चा करेंगे.आप नबे रहिये हमारे साथ.सुनते रहिये कार्यक्रम समर्पण.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा और हम चर्चा कर रहे हैं बहुत ही सुन्दर श्लोक पर:
पिता गुरुस्त्वं जगतामधीशो 
दुरत्ययः काल उपात्तदण्डः | 
हिताय चेच्छातनुभिः समीहसे 
मानं विधुन्वन् जगदीशमानिनाम् || (श्रीमद्भागवत,10.27.6)

अर्थात् 
हे भगवन ! आप इस सम्पूर्ण जगत के पिता,आध्यात्मिक गुरु और परम नियंता भी हैं.आप दुर्लंघ्य काल हैं जो पापियों को उन्ही के लाभ के लिए दंड देता है.निस्संदेह स्वेच्छा से लिए जानेवाले विविध अवतारों में आप उन लोगों का मिथ्या गर्व दूर करते हैं जो अपने को इस जगत का स्वामी मान बैठते हैं.

तो भगवान सम्पूर्ण जगत के पिता हैं.ये बात आप जानते हैं.हम कहते भी हैं:
तुम्ही हो माता,पिता तुम्ही हो.
और भगवान स्वयं भी कहते हैं :
पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः ।(भगवद्गीता,9.17)
मै पिता भी हूँ,माँ भी हूँ और पितामह भी मै ही हूँ.तो संबंध तो स्थापित हो गया कि हमारे असली पिता भगवान हैं क्योंकि आत्मा भगवान का अंश है.भगवान कहते हैं:
ममैवांशो जीवलोके भगवद्गीता,15.7)
तो आत्मा असल में भगवान का अंश है.तो जिसका अंश है वही तो पिता हो सकता है.बेशक हम शरीर विभिन्न प्रकार के धारण करते हैं.इस योनि में हमारे पिता कोई और हैं.अगली योनि में कोई और होंगे.पिछली योनि में,पिछले जन्म में कोई और थे.लेकिन जो असल नाता है वो एकमात्र भगवान के साथ है.

और जैसे कि पिता अपने बच्चे के भले के लिए कई बार सख्त हो जाता है.जैसे मान लीजिए पिता ने अपने बच्चे को थोड़े पैसे दिए क्योंकि बच्चे ने कहा-पापा!पापा!थोड़े पैसे दे दो हमें स्कूल में ये पैसे मंगवाए गए हैं.कुछ extra course करना पड़ रहा है.पिता ने दे दिए और बच्चे ने झूठ बोल करके पैसों का गलत इस्तेमाल कर लिया.कही वो सिनेमा देखने चला गया.कही कुछ करने लगा और अचानक पिता को ये बात पता चली.पिता ने अपने बच्चे को दो थप्पड़ मार दिए और कहा कि आज रात का ये खाना नही खायेगा.इसे खाना मत देना या आज ये अपनी मम्मी के पास नही सोयेगा.ईसे बाहर के कमरे में सुला दो.यही इसकी सजा है.

तो देखने में लगेगा कि पिता कितने सख्त हो गए.लेकिन पिता ने बच्चे को control करने के लिए,उसके भले के लिए ही ये सजा दी.इसीतरह से कईबार हमें भी कुछ सजाएं मिलती है.कईबार हमारे भी आँसू निकल आते हैं.कई बार हम पर भी विपत्तियां पड़ती है.हम पर भी दुःख के पहाड़ टूट पड़ते हैं.लेकिन इन दुखों को इसीप्रकार से लेना चाहिए कि भगवान ने हमारे पाप कम करने के लिए,हमारा शोधन करने के लिए,हमे शुद्ध करने के लिए ही ये परिस्थियां हमें कृपा स्वरुप दी है.

जब आप ऐसा समझेंगे तो आप आगे बढ़ने लगेंगे.आपको अपने पिता से,भगवान से कोई शिकायत नही रहेगी.आप भी उन्हें प्रेम करने लगेंगे.याद रखिये.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा और हम चर्चा कर रहे हैं बहुत ही सुन्दर श्लोक जिसका अर्थ है: 
हे भगवन ! आप इस सम्पूर्ण जगत के पिता,आध्यात्मिक गुरु और परम नियंता भी हैं.आप दुर्लंघ्य काल हैं जो पापियों को उन्ही के लाभ के लिए दंड देता है.निस्संदेह स्वेच्छा से लिए जानेवाले विविध अवतारों में आप उन लोगों का मिथ्या गर्व दूर करते हैं जो अपने को इस जगत का स्वामी मान बैठते हैं.

तो यहाँ जो दूसरी बात कही गई है वो कहा है कि भगवान आप गुरु हैं.आध्यात्मिक गुरु हैं.भगवान आध्यात्मिक हैं.भगवान की ये जो माया है ये भौतिक है और भगवान आध्यात्मिक हैं और भगवान जानते हैं कि भाई ये जो मेरे अंश हैं वे भी आध्यात्मिक हैं.मेरे बच्चे भी आध्यात्मिक हैं.पर  माया से ढक दिए गए हैं.इन्होने इच्छा की थी कि मै इस माया को भोगूँ इसलिए इन्हें ढकना पड़ा ताकि इन्हें ये अभिमान बना रहे कि मै देह हूँ.देह समझेंगे अपने आप को तभी तो देह संबंधी रिश्तों को निभा पायेंगे.उनमे आनंद ढूँढ पायेंगे.

हालाँकि उनमे आनंद इतना होता नही है.हर चीज एक दुःख को जन्म देती है.लेकिन फिर भी भगवान जानते हैं कि आप भी आध्यात्मिक हैं तो भगवान गाहे-बगाहे ऐसी परिस्थितियां पैदा कर देते हैं आपके लिए कि आपको इस जगत से दुःख मिले और आप एक उब महसूस करे.आप उब जाए और आप ढूँढे असल आनंद को.तब भगवान जो आपके ह्रदय में चैत्य गुरु के रूप में विद्यमान हैं.भगवान आपके ह्रदय में रहते हैं.वो जानते हैं कि मुझे अपने इस बच्चे को आध्यात्मिक दुनिया की तरफ मोडना है.

तो भगवान आपको किसी भक्त से मिला देते हैं या आपके अंदर एक ऐसी इच्छा को जगा देते हैं जो आध्यात्मिक इच्छा कही जा सकती है कि भाई ये सारी चीजें मैंने देख ली.इतने दुःख देख लिए.इस दुनिया पर कैसे विश्वास करूँ.इस दुनिया में कोई किसी का नही होता.आप इतने दुखी हो जाते हैं कि आपको भगवान को याद करना ही पडता है.जब आप भगवान को याद करते हैं और जब आपको पता चलता है कि भगवान से ही आपका असल नाता है तो आप पूर्णरूपेण भगवान के हो जाते हैं.दोनों हाथ उठा लेते हैं और कहते हैं कि भगवान मै सिर्फ-और-सिर्फ आपका हूँ.तब भगवान आध्यात्मिक गुरु की भूमिका निभाते हैं.आपके लिए ऐसे मार्ग को प्रशस्त कर देते हैं जिसपर चल करके आप अंततः इस भौतिक जगत से छूट सकते हैं.

तो ये सब अपने आप नही होता.जब भगवान की अहैतुकी कृपा होती है आप पर गुरु के रूप में तो ये होता है.तब आप पर विपदाएँ पड़ती हैं और आप उन विपदाओं से घबराकर भगवान की शरण ले लेते हैं और भगवान की यदि आप शरण ले लेते हैं तो सच में आप उदारमना कहलाये जायेंगे.आपका सौभाग्य तब जागृत हो जाएगा.याद रखिये.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा और हम चर्चा कर रहे हैं बहुत ही सुन्दर श्लोक पर:
पिता गुरुस्त्वं जगतामधीशो 
दुरत्ययः काल उपात्तदण्डः | 
हिताय चेच्छातनुभिः समीहसे 
मानं विधुन्वन् जगदीशमानिनाम् || (श्रीमद्भागवत,10.27.6)

अर्थात् 
हे भगवन ! आप इस सम्पूर्ण जगत के पिता,आध्यात्मिक गुरु और परम नियंता भी हैं.आप दुर्लंघ्य काल हैं जो पापियों को उन्ही के लाभ के लिए दंड देता है.निस्संदेह स्वेच्छा से लिए जानेवाले विविध अवतारों में आप उन लोगों का मिथ्या गर्व दूर करते हैं जो अपने को इस जगत का स्वामी मान बैठते हैं.

तो भगवान परम नियंता हैं.हम अपने आप को controller मानते हैं.नियंता मानते हैं.जो कमजोर होता है हम उनपर शासन चलाते हैं.boss अपने subordinate पर शासन चलाता है.पति अपनी पत्नी पर या पत्नी अपने पति पर.माँ-बाप अपने बच्चों पर.इसतरह से जो भी कमजोर होता है हम उसपर शासन चलाते हैं.है कि नही.

लेकिन याद रखिये कि आप बेशक अपने आप को ईश्वर समझ ले लेकिन परमेश्वर सिर्फ एक ही है और वो परम नियंता है.उनकी इच्छा के आगे आपकी इच्छा नही चलेगी.आप चाहे बड़े-बड़े महल बना ले.बड़ी-बड़ी सभ्यताओं का विकास कर ले लेकिन भगवान की जब इच्छा होगी तो वे सभ्यताएं पानी में समा जायेगी.वे सभ्यताएं भूकम्प के चपेट में आ जायेगी.आप कुछ भी कर ले लेकिन काल के आगे आपकी एक न चलेगी.आप सिर्फ अवाक होकर देखते रह जायेंगे कि जो चीज मैंने तिनका-तिनका करके बटोरी थी.इतना श्रम किया था.वो आज मेरे साथ नही है.

और फिर भगवान की परम इच्छा के आगे आपको घुटने टेकने ही पड़ेगे.आपको ये स्वीकार करना ही पड़ेगा कि कोई है जिसके हाथ में हमारी डोर है.कोई है जिसके हाथ में इस जगत की डोर है.कोई है जिसके हाथ में यहाँ के राजा-महाराजाओं की भी डोर है और वो परम नियंता,परम भगवान परमेश्वर हैं.है न.

तो भगवान दुर्लंघ्य काल है जो पापियों को उन्ही के लाभ के लिए दंड देते हैं.जैसे कि यदि एक जज किसी को कोई दंड देता है तो वो इसलिए देता है कि भाई इसके पाप कुछ कम हो सके.ये व्यक्ति सुधर सके.थोडा ये पश्चाताप  करे और फिर से एक अच्छा नागरिक बन जाए.इसीप्रकार से भगवान भी लोगों को दंड देते हैं,ये सोच करके कि इस दंड से ये आदमी सुधर जायेगा.ये आदमी पवित्र हो जायेगा.तो इसीलिए भगवान दुर्लंघ्य काल हैं जो पापियों को उन्ही के लाभ  के लिए दंड देते हैं ताकि पापी अपने पाप से मुक्त हो सके.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा और हम चर्चा कर रहे हैं बहुत ही सुन्दर श्लोक पर जिसका अर्थ है:
हे भगवन ! आप इस सम्पूर्ण जगत के पिता,आध्यात्मिक गुरु और परम नियंता भी हैं.आप दुर्लंघ्य काल हैं जो पापियों को उन्ही के लाभ के लिए दंड देता है.निस्संदेह स्वेच्छा से लिए जानेवाले विविध अवतारों में आप उन लोगों का मिथ्या गर्व दूर करते हैं जो अपने को इस जगत का स्वामी मान बैठते हैं.

तो यहाँ पर एक शब्द आया है हिताय.भगवान जो कुछ करते हैं वो सारे जगत के लाभ के लिए करते हैं और जब ये सब होता है तो हम कईबार समझ नही पाते लेकिन बाद में भगवान की कृपा होती है तो समझ आता है.लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो समझना चाहते नही.जो भगवान को मानना चाहते नही.जिनके करनी और कथनी में फर्क होता है.ऐसी ही एक कथा मुझे याद आती है:

जोधपुर के नरेश थे जशवंत जी.वे बड़े ही न्यायी थे,प्रजा-वत्सल थे.उनके जीवन की नीति थी कि सबके सुख में अपना सुख मानना और प्रतिक्षण वे दूसरों का भला करने के लिए जागरूक रहते थे.एकबार उन्होंने सोचा कि मेरा ये एकलौता नौजवान कुंवर आज्ञाकारी है या नही.जरा इसकी परीक्षा लेनी चाहिए.तो उन्होंने कुंवर को बुलाया और कहा कि कुंवर मै जैसा कहूँगा क्या तुम वैसा करोगे.पुत्र ने हाथ जोड़कर बहुत ही विनम्र भाव से कहा कि पिताजी मै कभी भी आपकी आज्ञा का उल्लंघन नही करूँगा.कृपया आप आज्ञा देकर तो देखिये.

तो राजा ने कहा कि बेटा,मेरी हार्दिक इच्छा है कि जिसदिन मेरी मृत्यु हो जाए उस दिन जो कपड़े और आभूषण मेरे तन पर हो उनको उतरना मत और न उनकी अदला-बदली करना.जैसा का तैसा ही मुझे चिता पर जला देना.कोई तुम्हे कितना ही समझाए किन्तु तुम किसी की सुनना मत.कुंवर ने कहा कि पिताजी,ईस आदेश का मै पूर्णतया ध्यान रखूँगा.

राजा ने कुंवर का परिक्षण लेने का निर्णय किया.उन्हें यौगिक क्रियाओं का अच्छा अभ्यास था और वे साँस को रोकने क्रिया में माहिर थे.कुछ महीनों बाद एक दिन राजा ने बहुत ही बहुमूल्य कपड़े और आभूषण पहनकर कुंवर को बुलाया.जैसे ही कुंवर ने प्रवेश किया तो वे बोले कि कुंवर आज मेरे शरीर में काफी बेचैनी है.साँस रुक-रुककर आ रही है.पेट में भी काफी दर्द है.सिर पीड़ा से फटा जा रहा है.अचानक किस पाप का फल मुझे मिल रहा है जो भयंकर रोग ने मेरे शरीर पर आक्रमण कर दिया है.

ये कहते-कहते महाराज जसवंत सिंह ने साँस को रोक लिया और आँखें स्थित करते-करते जमीन पर लुढक गए.शरीर एकदम प्राणविहीन जैसा हो गया.मुँह से झाग भी निकल गया.बस अब तो कुंवर को विश्वास हो गया कि पिताजी मर गए हैं.राजमंत्री उसी समय वहाँ पर उपस्थित हुए.कुंवर ने मंत्री से कहा कि मंत्रीवर कुछ दिन पहले मेरे पिता ने मुझसे कहा था कि जिसदिन मेरा देहावसान होगा उस दिन शरीर पर रखे हुए बहुमूल्य कपड़ो और आभूषणों को उतारना मत.मुझे उन्ही के साथ जला देना.

फिर मंत्रीवर मै सोच रहा हूँ कि जो होना था सो हो गया.अब तो आयु की डोरी टूट गई.उसे तो पुनः जोड़ा जा सकता नही.अब पिताजी नही रहे तो उनकी काया मिट्टी हो गई.यदि बहुमूल्य वस्त्र-आभूषण नही निकालेंगे तो ये सब व्यर्थ में काया के साथ ही जल जायेंगे.इसलिए मेरी इच्छा है कि ये सब वस्त्र-आभूषण उतारकर उन्हें कम कीमत वाले वस्त्र-आभूषण पहना दिए जाए जिससे राज्य का अधिक नुकसान न हो.यूँ ही वस्त्र और आभूषण मुझे बहुत पसंद हैं.यदि निकाल देंगे तो मै पहन लूँगा और जब ये काम आप कर ले उसके बाद ही सारी प्रजा को आप इनकी मृत्यु का समाचार देना.

ये सारी बातें राजा सुन रहे थे और सोच रहे थे कि इस संसार में मानव का स्वार्थ बहुत गहरा है.तभी तो महापुरुष कहते है कि स्वार्थ का ये संसार.सोचिये संसार इतना स्वार्थी है कि बेटा भी आपका अपना नही रहता.आपके अपने थे,हैं और रहेंगे सिर्फ भगवान.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा और हम चर्चा कर रहे हैं बहुत ही सुन्दर श्लोक पर जिसका अर्थ है:
हे भगवन ! आप इस सम्पूर्ण जगत के पिता,आध्यात्मिक गुरु और परम नियंता भी हैं.आप दुर्लंघ्य काल हैं जो पापियों को उन्ही के लाभ के लिए दंड देता है.निस्संदेह स्वेच्छा से लिए जानेवाले विविध अवतारों में आप उन लोगों का मिथ्या गर्व दूर करते हैं जो अपने को इस जगत का स्वामी मान बैठते हैं.

तो यहाँ एक और जानकारी आपको बड़ी ही खास दी गई है और वो ये कि भगवान जब पृथ्वी पर आते हैं.प्रकट होते हैं तो वे स्वेच्छा से आते हैं.अपनी इच्छा से आते हैं.कईबार लोग कहते हैं कि अरे भगवान ने जन्म लिया.वो भगवान कैसे गए.उनके जन्म में और आपके जन्म में ये फर्क है कि आप अपनी इच्छा से नही आते.आपको भेजा जाता है.आपके गुण और कर्म के द्वारा आपको जन्म लेना पड़ता है.कोई भी आपके माँ-बाप हो सकते हैं.आप अपने माँ-बाप को चुन नही सकते.

पर भगवान बहुत ही प्यारे हैं.भगवान अपने प्यारे-प्यारे भक्तों को अपने माँ-बाप होने का दर्जा देते हैं और जब भगवान अवतार लेते हैं तो बड़े ही ध्यान से सुनिए -भगवान उस समय धर्म की रक्षा करने के लिए अवतार लेते हैं.दुष्टों का संहार करते हैं और साधुओं की,भक्तों की रक्षा करते हैं.भक्तों को आनंद देते हैं और उनके आनंद के लिए वे विभिन्न प्रकार की लीलाएं करते हैं.

यहाँ बताया गया है कि जब भगवान दुष्टों का संहार भी करते हैं तो वो भी उनके लाभ के लिए होता है.ऐसे लोगों के लाभ के लिए जो अपने आप को इस जगत का स्वामी मान बैठते हैं.भगवान हैं इस जगत के असली स्वामी लेकिन यदि कोई दुष्ट अपने को इस जगत का स्वामी मान बैठे तो बताईये फिर आगे वो कैसे प्रगति कर पायेगा.वो तो वही रूका रह जायेगा.उसकी चेतना जगत में रह जायेगी और उसे बारम्बार जगत में आना-जाना पड़ेगा.इसीलिए भगवान दया करके उसके सामने ऐसे हालात पैदा कर देते हैं.ऐसे हालात पैदा कर देते हैं कि उसका सारा मनोबल टूट जाता है और वो समझ जाता है कि इस जगत का स्वामी मै नही हूँ.

ऐसे लोगों का भगवान मिथ्या गर्व दूर करते हैं.भगवान जब अवतार लेकर आते हैं और जब ऐसे दुष्टों का संहार भी करते हैं तो भी वे उन दुष्टों की भलाई के लिए ये काम करते हैं.इतना पाप  बढ़ चुका है कि अब कुछ हो नही सकता तो भगवान कृपावश ऐसे व्यक्ति को मृत्यु प्रदान करते हैं और मृत्यु के साथ ही उसका उद्धार भी कर देते हैं.उसे आध्यात्मिक लोक पहुँचा देते हैं.पर ये बात उस समय समझ नही आती लेकिन एक भक्त समझ जाता है कि भगवान ने देखों न कितनी कृपा कर दी है.

यही तो फर्क है एक भक्त में और एक अभक्त में.भक्त समझ जाता है और अभक्त समझ ही नही पाता कि भगवान बहुत दयालु हैं.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा और अब बारी है आपके SMS की.
SMS: ये SMS भेजा है अंजली ने.कहती है कि बिना भक्ति के जीवन ऐसा हो जाता है जैसे समंदर के अंदर भी प्यासा बिन पानी के रह जाता है.
Reply: बिल्कुल सही बात है अंजली जी.मगर जो समंदर है उसकी quality ये है कि उसमे बहुत नमक होता है और आप मीठे पानी के आदी हैं.सिर्फ भक्ति में ही मिठास होती है और आप भक्ति की मिठास को ढूँढ रहे हैं लेकिन यहाँ-वहाँ चीनी खा रहे हैं और आपको लगता है कि यही मीठापन है.

भाई भक्ति कीजिये और तब जो मिठास आपको अनुभव होगी वस्तुतः वही आनंद है.

SMS: ये अगला प्रश्न आया है राकेश कुमार का.ये पूछते हैं कि क्या स्वर्ग-नर्क यही पृथ्वी पर है या कही अलग है?
Reply: शास्त्र बताते हैं राकेशजी कि स्वर्ग ऊपर है.पृथ्वी से भी ऊपर है और जो नर्क है वो पृथ्वी से नीचे जो पाताल लोक हैं उसकी तरफ,उसके पास में है.मुख्य नर्क चौबीस-पच्चीस कहे जाते हैं लेकिन छोटे -मोटे नर्क सकड़ों-हजारों है.

लेकिन हाँ आप जब अपने कर्म के अनुसार जब पृथ्वी पर दुःख भोगते हैं तो उन दुखों को नर्क जैसे दुःख कहे जाते हैं और जब सुख भोगते हैं तो कहते हैं कि हाँ भाई,यही स्वर्ग है.

हमें कर्म ऐसे करने चाहिए कि हम स्वर्ग और नर्क से ऊपर जा सके.यानि आध्यात्मिक लोक में जा सके.स्वर्ग में जायेंगे तो भी लौटना पड़ेगा और नर्क में जायेंगे तो भी वापस आना पडेगा.हमेशा आप वहाँ के वासी बनके नहीं रह सकते.इसलिए कर्म आपके ऐसे होने चाहिए कि आप भगवद्धाम जा पाए.
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Wednesday, May 25, 2011

एक शुद्ध भक्त भगवान से उनके चरणकमलों की सेवा के अतिरिक्त और कुछ नही चाहता:Explanation by Maa Premdhara(102.6 FM)

Spiritual Program SAMARPAN On 20th March, 2011(102.6 FM)
कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा .नमस्कार.कैसे हैं आप.अच्छा यदि मै आपसे कहूँ कि आज अभी इस समय ऐसा मुहूर्त्त है कि आप भगवान से जो कुछ मांगेंगे वो सारी मुरादें आपकी पूरी हो जायेंगी तो ये बताईये अभी आप भगवान से क्या माँगियेगा?

क्या कहा नौकरी.लीजिए वो भाई साहब कह रहे हैं गाड़ी.अरे ! उधर बहनजी ने मकान की फरमाइश कर डाली और इधर सेठजी को एक और दुकान बड़े से माल में खोलनी है.वो डॉक्टर साहब अब  अपना नर्सिंग होम बनाना चाहते हैं और ये वकील साहब अब अपनी सफल practice चाहते हैं.वो बेटा परीक्षा में first आना चाहता है तो ये बिटिया पायलट बनना चाहती है.अरे इन्होने तो अपने demands की लंबी लिस्ट ही बना डाली.

यानि सबके पास कुछ-न-कुछ मांग है और ये सारी मांगे आपकी अपनी खुशी के लिए,इन्द्रियतृप्ति के लिए है.इस भीड़ में शायद कोई ऐसा भी है जिसने शुद्ध वर माँगा है.क्या होता है शुद्ध वर?इसी की जानकारी दे रहे हैं हम हमारे आज के श्लोक के द्वारा.श्लोक ध्यान से सुनिए:
न कामयेन्यं तव पादसंवनाद
अकिंचन प्रार्थ्य तमाद्वरं विभो ।
आराध्यकस्त्वां ह्यपवर्गदं हरे 
वृणीत आयों वरमात्मबंधन ||(श्रीमद्भागवत,10.51.55)
अर्थात् 
हे सर्वशक्तिमान !मै आपके चरणकमलों की सेवा के अतिरिक्त और किसी वर की कामना नही करता क्योंकि यह वर उनलोगों के द्वारा उत्साहपूर्वक चाहा जाता है जो भौतिक कामनाओं से मुक्त हैं.हे हरि ! ऐसा कौन प्रबुद्ध व्यक्ति होगा जो मुक्तिदाता आपकी पूजा करते हुए ऐसा वर चुनेगा जो उसका ही बंधन बने?

तो देखिये ये श्लोक आपको बता रहा है कि आपको भगवान से क्या मांगना चाहिए.क्या है वो चीज जो आपके लिए मुक्ति के दरवाजे खोल सकती है?उस सेवा की जानकारी,उस वर की जानकारी,उस कामना की जानकारी ये श्लोक यहाँ दे रहा है.एक शुद्ध भक्त भगवान से उनके चरणकमलों की सेवा के अतिरिक्त और कुछ नही चाहता.अगर आपसे कोई कहे कि भाई हम तो भगवान के पास जाते हैं और भगवान से कुछ नही मांगते.सिर्फ उनके चरणकमलों की सेवा मांगते हैं.तो आपमें से बहुत से लोग कहेंगे कि अरे !ये क्या करते हैं आप.अवसर को यूँ ही हाथ से जाने देते हैं.अगर भगवान कहते हैं कि मांगों तो कुछ अच्छी चीज मांग ली होती न.कुछ लाभ हो जाता.

लेकिन जो व्यक्ति भगवान से कुछ भी न मांगकर सिर्फ उनकी सेवा मांगता है वो व्यक्ति बहुत ऊँचे platform पर स्थित होता है.वो बहुत शुद्ध भक्त होता है.अगर ऐसे शुद्ध भक्तों का संग आपको प्राप्त हो जाए तो समझियेगा कि आपने वाकई कोई बहुत बड़ा पुण्य कर्म किया है कि ऐसा भक्त और ऐसे भक्तों का संग आपको मिल सका.

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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा  और हम चर्चा कर रहे हैं बहुत ही सुन्दर श्लोक पर:

न कामयेन्यं तव पादसंवनाद
अकिंचन प्रार्थ्य तमाद्वरं विभो ।
आराध्यकस्त्वां ह्यपवर्गदं हरे 
वृणीत आयों वरमात्मबंधन ||(श्रीमद्भागवत,10.51.55)
अर्थात् 
हे सर्वशक्तिमान !मै आपके चरणकमलों की सेवा के अतिरिक्त और किसी वर की कामना नही करता क्योंकि यह वर उनलोगों के द्वारा उत्साहपूर्वक चाहा जाता है जो भौतिक कामनाओं से मुक्त हैं.हे हरि ! ऐसा कौन प्रबुद्ध व्यक्ति होगा जो मुक्तिदाता आपकी पूजा करते हुए ऐसा वर चुनेगा जो उसका ही बंधन बने?

कितनी सुन्दर बार यहाँ बतायी गई है.है न.भगवान सर्वशक्तिमान  हैं.भगवान ने आपको शरीर दिया.आप आत्मा के रूप में भगवान के ही अंश हैं.भगवान ने आपको ये कर्मक्षेत्र दिया.ये जगत दिया जहाँ आप विभिन्न प्रकार के कर्म करते हैं.भगवान ने आपको आपके वो सारे रिश्ते-नाते दिए जिनपर आप गर्व करते हैं.सबकुछ भगवान ने दिया.इसपर भी भगवान जब आप पर प्रसन्न होते हैं तो आपसे कहते हैं कि आप हमसे कुछ वर माँगिये और तब भी हमारी जो demands है खत्म नही होती.हम कहते हैं कि हाँ!हाँ! आप हमें ये दीजिए,वो दीजिए.बहुत सारी मांगे हमारी होती हैं.हम कहते हैं कि भगवान हमें वर दीजिए.

और देखिये हमारी प्रार्थनाएँ भी कुछ इसीप्रकार की होती हैं.है न.
जन्म देहि ,विद्या देहि,भार्या देहि और जाने क्या-क्या देहि,देहि.

दो,दो,दो और मै लूँ,लूँ,लूँ.बस यही चलता रहता है.है न.हम कभी नही सोचते कि हे भगवान!आप हमारे लिए इतना कुछ करते हैं.इतना कुछ आपने हमें दिया.हमने आपको क्या दिया?हम कभी ये नही सोचते.हम सोचते हैं कि नही,भगवान का काम है देना और भगवान को उसी कसौटी पर हम मापते हैं कि क्या भगवान ने हमारी इच्छा पूरी कि?अगर नही तो हम भगवान को बदल देते हैं.किसी और को भगवान बना लेते हैं.

लेकिन आप शायद जानते नही हैं कि आप जिसप्रकार के वर की कामना करते हैं.भौतिक वरों की कामना करते हैं वो क्या है 
अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्‌ ।(भगवद्गीता,7.23)
भगवान कहते हैं कि वो अन्तवत्तु हैं.वो समाप्त हो जायेंगे.ऐसे वर आपके साथ नही जायेंगे.तो क्यों ऐसी चीज की कामना करते हैं जो temporary है लेकिन ऐसे वर की कामना वही करते हैं जिन्हें ये भौतिक जगत सुखमय लगता है.जी यहाँ हमेशा बने रहना चाहते हैं.जो सोचते हैं कि हाँ,यहाँ बहुत सुख है.जो ये सोच ही नही पाते कि यहाँ सुख नही दुःख है.जो दुखों को देख ही नही पाते ऐसे लोग ही भगवान से भौतिक वर चाहते हैं.

मै आपको बता दूँ कि ये बुद्धिमानी का विषय नही है.ये बुद्धिमत्ता का विषय नही है.अगर आप बुद्धिमान है तो वर इसप्रकार के मांगिये जो आपके साथ जा सके.भगवान से भक्ति मांगिये ताकि आपका जीवन सफल बन सके.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा  और हम चर्चा कर रहे हैं बहुत ही सुन्दर श्लोक पर जिसका अर्थ है :
हे सर्वशक्तिमान !मै आपके चरणकमलों की सेवा के अतिरिक्त और किसी वर की कामना नही करता क्योंकि यह वर उनलोगों के द्वारा उत्साहपूर्वक चाहा जाता है जो भौतिक कामनाओं से मुक्त हैं.हे हरि ! ऐसा कौन प्रबुद्ध व्यक्ति होगा जो मुक्तिदाता आपकी पूजा करते हुए ऐसा वर चुनेगा जो उसका ही बंधन बने?

तो यहाँ देखिये एक शब्द है मुक्तिदाता.भगवान मुक्ति प्रदान कर सकते हैं.फर्ज कीजिये कि आप एक बहुत बड़े जेल में हैं और इस जेल में आप जन्म-जन्म से हैं,वर्षों से हैं और अचानक पास आपके देश का राजा आ जाए और वो कहे कि वत्स मै आपसे बहुत खुश हूँ.इतना खुश हूँ,इतना खुश हूँ कि क्या कहूँ.तुम मुझसे कुछ मांग लो और आपप कहे कि अगर आप मुझसे इतना खुश हैं राजाजी तो आप मुझे यहाँ पर एक soft bed दे दीजिए.सुन्दर,नरम,मुलायम बिस्तर होगा तो अच्छी नींद आयेगी या आप कहे कि ऐसा है कि चक्की पीसते-पीसते मेरे हाथ बहुत दुःख जाते हैं तो आप यहाँ मुझे एक electric machine दे दीजिए ताकि मै जेल में जो गेंहूँ पीसता हूँ उसे electric machine में पीस लूँ.

तो बताईये इससे वर मांगना मूर्खता होगी कि नही.अरे आपको तो भगवान से मुक्ति चाहिए.वो राजा जो आपके पास आया उसे अगर आप कह दे कि अरे आप मुझे इस जेल से बाहर निकाल लीजिए.यही वर सबसे उत्तम वर है या आप कहे कि हे राजाजी! आप मुझे अपने चरणों की सेवा दे दीजिए.जहाँ भी आप रहे वहाँ मै आपके चरणों की सेवा करता रहूँ.बताईये automatically आप मुक्त हो जायेंगे कि नही.सोचिये.बुद्धि लगाईये तब आपको समझ में आएगा.

तो यहाँ यही कहा गया है कि हे भगवान ! जो लोग ये समझ गए हैं कि ये भौतिक जगत दुखों का घर है.यहाँ पर कुछ भी प्राप्त करना बेवकूफी है.यहाँ पर खुश रहने की उम्मीद करना,सुखी रहने की expectation लिए जीवन गुजारना ये बेवकूफी है,मूर्खता है,जो लोग ये बात अच्छी तरह से समझ गए हैं वे कभी भी ऐसे वर नही चाहेंगे जिससे उनकी भौतिक जिंदगी लंबी हो.

सोचिये.अगर आप सोचे कि हे भगवान एक गाड़ी दे दीजिए.गाड़ी मिल भी गई तो क्या?अब आपको और हजार झंझट भी मिल जायेंगे उसके साथ.गाड़ी कही चोरी न हो जाए.उस पर कही कोई scratch न लगा दे.ये न हो जाए,वो न हो जाए.पेट्रोल डला है कि नही.पेट्रोल की कीमत बहुत ज्यादा बढ़ गई है.सैकड़ो झंझट और खड़े हो उठते हैं.तो ऐसे वर आप क्यों चाहेंगे.यदि आपको मुक्ति मिलती है तो आप मुक्ति भला क्यों नही चाहेंगे.

तो सोचिये यही,यही एक ताज्जुब की बात है कि भगवान कहते हैं कि आप मेरी तरफ आओ.मै आपको मुक्त कर दूंगा.तो भी सिर्फ मुट्ठी भर लोग ही उनकी तरफ क्यों मुड़ते हैं?क्यों बाकी लोग गृहस्थी का बहाना बनाकर भगवान से कट जाते हैं.भगवान को अपनी जिंदगी में कोई अहमियत नही देते.हैं न हैरानी की बात.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा  और हम चर्चा कर रहे हैं बहुत ही सुन्दर श्लोक पर:

न कामयेन्यं तव पादसंवनाद
अकिंचन प्रार्थ्य तमाद्वरं विभो ।
आराध्यकस्त्वां ह्यपवर्गदं हरे 
वृणीत आयों वरमात्मबंधन ||(श्रीमद्भागवत,10.51.55)
अर्थात् 
हे सर्वशक्तिमान !मै आपके चरणकमलों की सेवा के अतिरिक्त और किसी वर की कामना नही करता क्योंकि यह वर उनलोगों के द्वारा उत्साहपूर्वक चाहा जाता है जो भौतिक कामनाओं से मुक्त हैं.हे हरि ! ऐसा कौन प्रबुद्ध व्यक्ति होगा जो मुक्तिदाता आपकी पूजा करते हुए ऐसा वर चुनेगा जो उसका ही बंधन बने?

तो देखिये भगवान के चरणकमलों की सेवा मांगना किसी आम आदमी के वश की बात नही है.ये खास आदमी ही करेगा.ऐसा आदमी जिसके मन से सारी कामनाएँ खत्म हो चुकी होंगी.देखिये वास्तव में ये possible नही है कि मन से सारी कामनाएँ खत्म हो जाए.लेकिन हाँ ये possible है,ये संभव है कि उन कामनाओं का रूप बदल जाए.आपकी कामनाएं अब भगवान के लिए हो.सारी कामनाएँ विमल हो जाए.सारी कामनाएँ भगवान से जुड़ जाए.जब ऐसा हो जाता है तभी एक भक्त भगवान के चरणकमलों की सेवा मांगता है.

क्यों मांगता है?क्योंकि भगवान के चरणकमलों में ही कोई व्यक्ति निर्भय रह सकता है.भगवान कहते भी हैं न कि अगर आप मेरी सेवा करेंगे तो मै आपका योग क्षेम वहन कर लूँगा.तो एक भक्त भगवान कके चरणकमलों की सेवा मांगता है.वो कहता है कि 
न धनं न जनं न सुन्दरीं 
कवितां वा जगदीश कामये।
मम जन्मनि जन्मनीश्वरे 
भवताद् भक्तिरहैतुकी त्वयि॥

हे भगवान न मुझे धन चाहिए,न जन चाहिए, न कोई सुन्दरी चाहिए,न ही चाहता हूँ कि कोई मुझे glorify करे,मेरे ऊपर कवितायें लिखे.हे प्रभु!मेरा हर जन्म सिर्फ आपकी सेवा के लिए हो.शुद्ध भक्त तो ये भी नही कहता कि मेरा जन्म न हो.वो हर जन्म में अपने भगवान की,अपने ईश्वर की सेवा चाहता है.

देखिये एक आम आदमी कहता है कि अरे भाई मुझे धन दो.ये भगवान मुझे followers दो,अनुयायी दो.लोग मेरे पीछे चले.मै यशस्वी बनूँ,मेरा नाम हो और मुझे सुन्दर स्त्री मिले.लोग मुझे awards दे,पदक दे.हाँ,मेरी ख्याति दूर-दूर तक फ़ैल जाए.पड़-प्रतिष्ठा की लालच में एक व्यक्ति कहाँ-कहाँ नही भटकता.क्या-क्या नही करता और जब वो भगवान के सामने आता है तो उनसे भी वो यही मांग बैठता है.

लेकिन यहाँ कहते हैं कि हे भगवान ये सारी जो demands हैं न वो कुछ और नही बंधन है.सारी मांगे आपके भौतिक जीवन को और लंबी कर देंगी.आपको इन इच्छाओं की पूर्त्ति के लिए कई-कई बार चौरासी लाख योनियों में भटकना पडेगा.आप कभी भी मुक्त नही हो पायेंगे.

तो असली मुक्ति है कि आप अपनी इच्छाओं से मुक्त हो जाएँ और भगवान के हो जाए.भगवान के चरणकमलों की सेवा के अतिरिक्त आपके अंदर और कोई इच्छा कभी भी शेष न रहे.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा  और हम चर्चा कर रहे हैं बहुत ही सुन्दर श्लोक पर जिसका अर्थ है :
हे सर्वशक्तिमान !मै आपके चरणकमलों की सेवा के अतिरिक्त और किसी वर की कामना नही करता क्योंकि यह वर उनलोगों के द्वारा उत्साहपूर्वक चाहा जाता है जो भौतिक कामनाओं से मुक्त हैं.हे हरि ! ऐसा कौन प्रबुद्ध व्यक्ति होगा जो मुक्तिदाता आपकी पूजा करते हुए ऐसा वर चुनेगा जो उसका ही बंधन बने?

तो भगवान यहाँ आर बता रहे हैं कि देखिये आपको अगर कोई वर चाहिए न तो आप एक ही वर मांगना.वह वह ऐसा है कि आपको हमेशा-हमेशा के लिए मुक्त कर देगा.इस जीवन में रहते हुए आप मुक्त हो जायेंगे.आप सिर्फ मेरे चरणकमलो की सेवा मांगिये.लेकिन बावजूद इसके इंसान ऐसा नही करता.क्यों?क्योंकि वो अहंकार का मारा होता है.उसे लगता है कि वो लोग जिन्हें कोई काम नही होता वो लोग भक्ति करते हैं.वो लोग भगवान-भगवान करते हैं जो कर्मठ लोग हैं वो भगवान-भगवान नही करते है.भगवान का सहारा नही लेते हैं.अपना सहारा खुद बनते हैं.

तो हमें अपनी बुद्धि पर काफी अभिमान होता है.ऐसे ही किसी आश्रम में अनेक छात्र रहते थे.उनमे से एक student को अपनी बुद्धि पर बहुत अभिमान रहता था.एक दिन उनके गुरु ने उनको एक कथा सुनाई.

घने जंगल में एक बकरी रहती थी.वो अपने को काफी चतुर मानती थी.उसके शरीर पर घने,लंबे,नर्म बाल थे जिसकारण वह बहुत सुन्दर दिखती थी.एक दिन वो घास चर रही थी तभी शिकारियों की नजर उस पर पडी.उन्होंने उसका पीछा करना शुरू किया.बकरी भागती-भागती,भागती-भागती जंगल में एक ऐसी जगह पहुँची जहाँ अंगूर की घनी बेली थी.बकरी बलों के पीछे जाकर छिप गई.

जब पीछा करते हुए शिकारी वहाँ पहुँचे तो बकरी को देख न सके.बड़ी देर तक वहाँ ढूँढने के बाद वो आगे बढ़ गए.बकरी अपनी चतुराई पर बहुत खुश है.तभी उसका ध्यान अंगूर के कोमल पत्तों पर गया.उसने अंगूर के बेल को चरना  शुरू कर दिया.थोड़ी ही देर में उसने सारी झाडी चट कर डाली.तभी शिकारी उसे ढूँढते हुए वापस आ गए और उन्होंने बकरी को देख लिया.थोड़ी देर पीछा करने के बाद उन्होंने उसका शिकार कर लिया.शिकारी आपस में कह रहे थे कि यदि बकरी ने ये झाडी साफ़ न की होती तो इसे पकड़ना नामुमकिन था.बकरी ने अपना आश्रय स्वयं नष्ट किया और वो शिकार हो गई.

गुरु ने कथा यही समाप्त करके कहा कि सफलता के नशे में मनुष्य अपना विवेक खो देता है और स्वयं को संकट में डाल लेता है.इसीलिए अहंकार से बचना चाहिए.

तो देखिये इसतरह बकरी ने अपना आश्रय स्वयं नष्ट किया था उसी तरह हम इस मनुष्य शरीर को प्राप्त करने के बावजूद मनुष्य शरीर का धर्म नही निभाते.हम मनुष्य शरीर में ही भगवान को प्राप्त कर सकते हैं और अपने लिए अपनी मुक्ति का द्वार खोल सकते हैं.लेकिन हम इन्द्रियतृप्ति के पीछे ऐसे अंधे हो जाते हैं,ऐसे पागल हो जाते हैं कि हमें अपना आश्रय नष्ट करते समय तनिक भी,तनिक भी हिचकिचाहट नही होती.हम भगवान को अपनी जिंदगी से हटा देते हैं.

सोचिये जब हम ऐसा करते हैं तो दुर्भाग्य और मृत्यु हमारा शिकार कर लेती है और हमें फिर से चौरासी लाख योनियों में ले जाकर पटक देती है.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा . हम चर्चा कर रहे हैं बहुत ही सुन्दर श्लोक पर:

न कामयेन्यं तव पादसंवनाद
अकिंचन प्रार्थ्य तमाद्वरं विभो ।
आराध्यकस्त्वां ह्यपवर्गदं हरे 
वृणीत आयों वरमात्मबंधन ||(श्रीमद्भागवत,10.51.55)
अर्थात् 
हे सर्वशक्तिमान !मै आपके चरणकमलों की सेवा के अतिरिक्त और किसी वर की कामना नही करता क्योंकि यह वर उनलोगों के द्वारा उत्साहपूर्वक चाहा जाता है जो भौतिक कामनाओं से मुक्त हैं.हे हरि ! ऐसा कौन प्रबुद्ध व्यक्ति होगा जो मुक्तिदाता आपकी पूजा करते हुए ऐसा वर चुनेगा जो उसका ही बंधन बने?

तो देखिये समझदारी इसी में है कि हम भगवान से भगवान को ही मांग ले.न कि भगवान को एक ऐसा माध्यम बना ले जोकि हमारे लिए हमारी कामनाओं की पूर्त्ति में सहायक हो.ऐसा नही करना चाहिए.ऐसा करना मूर्खता है.हमने इस श्लोक में आज सुना कि भगवान की पूजा ये सोचकर के नही करनी चाहिए कि भगवान आप हमारी गरीबी काट दीजिए.भगवान हमें बच्चा नही है हमें बच्चा दो.हमारा घर नही है हमारा घर दो.मेरी शादी नही हो रही है मेरी शादी  हो जाए.ऐसी चीजे भगवान से नही मंगनी चाहिए.अरे यदि आपके प्रारब्ध में ये सारी चीजें हैं तो automatically मिल जायेंगे.स्वतः,अपनेआप.भगवान को आप इन चीजों की पूर्त्ति के लिए जरिया मत बनाईये.भगवान से भगवान को ही मांग लेना चाहिए.भगवान से भगवान की सेवा मांगनी चाहिए.

तो आप भी इस प्रकार से समझदार हो कि आपकी समझ में आ जाए कि भगवान को हमें use नही करना चाहिए.भगवान से हमें सिर्फ-और-सिर्फ प्रेम करना चाहिए.जब आप भगवान से प्रेम करने लगेंगे तो आप देखेंगे कि आपको किसी भी प्रकार की चिंता कभी नही सताएगी क्योंकि आप भगवान की इच्छा में अपनी इच्छा मिला देंगे.कोई भी चीज जो आपके against हुई,आपके खिलाफ हुई तो आप सोचेंगे कि ये भगवान का ही प्रसाद है.और कोई भी चीज जो आपके पक्ष में हुई उसे भी आप समझेंगे कि ये भगवान का ही प्रसाद है.

तो इसीलिए भगवान से जुडिये और भगवान से भगवान को मांगने कि बुद्धि पैदा कीजिये.इसी में आपका सर्वोच्च  कल्याण है.याद रखिये.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा  और अब बारी है आपके SMS को कार्यक्रम में शामिल करने की.
SMS:  अनुराधा और दिनेश मालवीय नगर से पूछते हैं कि भक्ति कितने प्रकार की होती है?
Reply: अनुराधा और दिनेश जी भक्ति नौ प्रकार की होती  है अर्थात् नौ प्रकार से आप भगवान को भज सकते हैं-श्रवण,कीर्तन,स्मरण,पादसेवन,दास्यम्,अर्चनं,वन्दनं,साख्यम् और आत्मनिवेदनम्.नौ तरीके हैं जिससे आप भगवान का भजन कर सकते हैं.उनकी भक्ति कर सकते हैं लेकिन कलयुग में सबसे important श्रवण और कीर्तन को बताया गया है.

जी हाँ,जब आप भगवान के नामो का कीर्तन करते हैं और उसे सुनते हैं या आप हरिकथा सुनते हैं तो इससे आप भगवान के प्रति प्रेम को विकसित कर लेते हैं.तो आप भी इसप्रकार की भक्ति में संलग्न होईये न ताकि आपका  कल्याण हो सके.
SMS: महेश उत्तराखंड से पूछते हैं कि ये बताईये कर्मयोग क्या होता है?
Reply: महेशजी अपने कर्मों को जब आप भगवान से जोड़ लेते हैं.जब आपके सारे कर्म भगवान के लिए होते हैं.जब भगवान को भोक्ता मान लेते हैं और स्वयं भोक्ता मानने से इनकार कर देते हैं तब आप कर्मयोग में स्थित कहे जाते हैं.कर्मयोग तो संको ही करना चाहिए.भगवान से युक्त होकर आप कोई कर्म करेंगे तो वह बहुत ही अच्छा रहेगा.
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Tuesday, May 24, 2011

आखिर वे जो सत्संग में ध्यानपूर्वक प्रवचन सुनते हैं वे किसतरह के लोग होते हैं:Explanation by Maa Premdhara(102.6 FM)

Spiritual Program SAMARPAN On 19th March, 2011(102.6 FM)
कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा .नमस्कार.कैसे हैं आप.एकदिन की बात है एक महान संत हमारे मुहल्ले में आए.मुझे जैसे ही पता चला उनके आगमन का तो मै उस स्थान पर गई.उस स्थान के सामने था एक रेस्टोरेंट.थोड़ी-ही देर में देखते-देखते उस रेस्टोरेंट में अनेकानेक लोग खाने के लिए जमा हो गए.छुट्टी थी सो घर में कोई खाना बनना नही चाहता था.सब-के-सब लाइन लगाकर खाने का कूपन ले रहे थे.और थोड़ी-ही दूर पर संत श्री भगवद कथा सुना रहे थे.पर उस सत्संग में कुल मिलाकर तीस-चालीस लोग ही आए थे.आनेवाले लोगों में भी कुछ बड़े ही मजे से खर्राटे भर रहे थे.वही दो-चार जने बहुत-ही ध्यानपूर्वक संत जी को सुन रहे थे.

मै सोचने लगी कि लोग कहते हैं कि जनसंख्या बढ़ गई है पर सत्संगों में जनसंख्या इतनी कम क्यों रह जाती है?सारी जनसंख्या क्यों माल,होटल और सिनेमाहाल में नजर आती है.आखिर वे जो सत्संग में ध्यानपूर्वक प्रवचन सुनते हैं वे किसतरह के लोग होते हैं.वो बाकियों के अलग क्यों होते हैं और ऐसे संग से भला उन्हें मिलता क्या है?


ऐसे ही प्रश्नों का जवाब छुपा है हमारे आज के श्लोक में.ध्यान से सुनिए:

भवापवर्गो भ्रमतो यदा भवेत् 
जनस्य तर्ह्यच्चुत सत्समागमः |
सत्सङ्गमो यर्हि तदैव सद्गतौ
परावरेशे त्वयि जायते मतिः || (श्रीमद्भागवत,10.51.53)
अर्थात् 
हे अच्यूत ! जब भ्रमणशील जीव का भौतिक जीवन समाप्त हो जाता है तो वह आपके भक्तों की संगति प्राप्त कर सकता है.और जब वह उनकी संगति करता है तो भक्तों के लक्ष्य और समस्त कारणों के कारण तथा उनके प्रभावों के स्वामी आपके प्रति उसमे भक्ति उत्पन्न होती है.

तो सुना आपने .कितनी सुन्दर बात एक भक्त आपको बता रहा है.एक भक्त कह रहे हैं भगवान से,भगवान को संबोधित करते हुए,भगवान को glorify करते हुए ,भगवान की महिमा का गुणगान करते हुए .कितनी बड़ी बात यहाँ कही गई है.

भक्त कहते हैं कि हे भगवान जब भ्रमणशील जीव का भौतिक जीवन समाप्त हो जाता है तो वो आपके भक्तों की संगति प्राप्त कर सकता है.

पहली बात इस श्लोक से उभरकर सामने आयी वो ये कि जीव भ्रमणशील है.जानते हैं,दो प्रकार के जीव होते हैं.एक नित्यमुक्त और एक नित्यबद्ध.नित्यमुक्त जीव कौन से होते हैं और नित्यबद्ध कौन से इसके बारे में हम चर्चा करेंगे.आप सुनते रहिये कार्यक्रम समर्पण.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा  और हम चर्चा कर रहे हैं बहुत-ही सुन्दर श्लोक पर.श्लोक एक बार फिर से आपके लिए:

भवापवर्गो भ्रमतो यदा भवेत् 
जनस्य तर्ह्यच्चुत सत्समागमः |
सत्सङ्गमो यर्हि तदैव सद्गतौ
परावरेशे त्वयि जायते मतिः || (श्रीमद्भागवत,10.51.53)
अर्थात् 
हे अच्यूत ! जब भ्रमणशील जीव का भौतिक जीवन समाप्त हो जाता है तो वह आपके भक्तों की संगति प्राप्त कर सकता है.और जब वह उनकी संगति करता है तो भक्तों के लक्ष्य और समस्त कारणों के कारण तथा उनके प्रभावों के स्वामी आपके प्रति उसमे भक्ति उत्पन्न होती है.


तो देखिये यहाँ एक बात सामने आयी कि जीव भ्रमणशील है.है न.जीव चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करता है.जीव यानि हम.हम आत्मा हैं और हम चौरासी लाख योनियाँ धारण करते हैं.क्यों?क्योंकि हमने भौतिक जीवन अपनी मर्जी से अंगीकार किया है,स्वीकार किया है.हमारे पास choice है,विकल्प है.हम चाहे तो हम आध्यात्मिक जीवन स्वीकार कर सकते हैं.पर अपनी इच्छाओं के वशीभूत होकर जब हम भौतिक जिंदगी को ही सब कुछ मानने लगते हैं तो हमें भौतिक शरीर प्राप्त होने लगते हैं.

तो मैंने आपसे कहा था कि जीव दो प्रकार के होते हैं.एक नित्यबद्ध और दूसरा नित्यमुक्त.नित्यमुक्त जीव वो होते हैं जो भगवान के लोकों में,आध्यात्मिक लोकों में सदा-सर्वदा से रहते आए हैं और वे भगवान की सेवा करते हैं.
नित्यबद्ध वो जीव होते हैं जो भगवान की भौतिक शक्ति में निहित हैं यानि ये जो जगत है,ये जो ब्रह्माण्ड है ये भगवान की भौतिक शक्ति है.और जब जीव इस भौतिक शक्ति को enjoy करना चाहता है,उसे भोगना चाहता है तो जीव यहाँ पर आ जाता है.लाया जाता है.

यह भौतिक जगत जो जेल की तरह है ये हमें punishment देने के लिए है,हमें सजा देने के लिए है और सजा आप जानते हैं कि इसलिए दी जाती है कि कोई सुधरे.सुधार हो.ये हमारे लिए rectification center है. तो जीव जब यहाँ पर भगवान से अलग होकर के भोग वांछा करता है,भोगना चाहता है तो उसे यहाँ पर लाया जाता है.ऐसा जीव यदि अपनी भौतिक जिंदगी से उब जाए और भगवान की तरफ मुड जाए तो कहा जाता है कि उसकी भौतिक जिंदगी अब समाप्त होनेवाली है.

लेकिन ये संभव तभी हो पाता है जब जीव भगवान के भक्तों का संग करे.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा  और हम चर्चा कर रहे हैं बहुत-ही सुन्दर श्लोक पर.जिसका अर्थ है 
हे अच्यूत ! जब भ्रमणशील जीव का भौतिक जीवन समाप्त हो जाता है तो वह आपके भक्तों की संगति प्राप्त कर सकता है.और जब वह उनकी संगति करता है तो भक्तों के लक्ष्य और समस्त कारणों के कारण तथा उनके प्रभावों के स्वामी आपके प्रति उसमे भक्ति उत्पन्न होती है.


तो देखिये बहुत किस्मतवाले होते हैं वे लोग जिन्हें भक्तों का संग प्राप्त होता है.

मै आपको बताती हूँ कि जैसा आपका संग होगा वैसे ही आपके रंग-ढंग होंगे.यदि कोई व्यक्ति बहुत अच्छी तरह से पढ़ना चाहता है ,marks लाना चाहता है तो उसे एक अच्छे विद्यार्थी का संग करना पड़ेगा और यदि कोई व्यक्ति भक्ति में आगे जाना चाहता है तो उसे एक भक्त का संग करना ही पडेगा.हरकोई ये बात जानता है कि यदि हम भक्ति करेंगे तो हमें भगवान प्राप्ति होगी.लेकिन अफ़सोस की बात ये हैं कि ये बात जानने के बावजूद बहुत से लोग भक्ति की तरफ मुडते नही हैं.आखिर क्यों?क्यों ऐसा होता है?

तो यहाँ ये श्लोक बता रहा है कि जिसका भौतिक जीवन समाप्त हो जाता है वही भक्तों की संगति प्राप्त कर सकता है.यानि सबलोगों को भक्तों का संग नसीब नही होता.ऐसे लोगों के सामने यदि भक्त आ भी जाए और भगवान के बारे में कुछ चर्चा करने भी लगे तो ऐसे व्यक्ति दुर्भाग्यवश भक्तों को अलग हटा देते हैं.भक्तों से किनारा कर लेते हैं.उनके पास नही आते.उन्हें avoid करते हैं.

जिन लोगों का सौभाग्य पूर्णरूपेण फलित हो जाए.जिन लोगों का सौभाग्य जागृत हो जाए ऐसे ही लोग भगवान के भक्तों का संग करते हैं.वे विभिन्न तीर्थस्थानों में जाते ही इसलिए हैं कि वहाँ उन्हें भगवान के विशुद्ध भक्तों का संग प्राप्त हो.
क्या होता है जब हम भक्तों का संग प्राप्त करते हैं?
भक्त भगवान की चर्चा में हमेशा तल्लीन रहते हैं.भक्त हमेशा भगवान की महिमा का गायन करते हैं.भक्त हमेशा भगवान की दैवीय प्रकृति में अवस्थित रहते हैं और भक्त हमेशा,हमेशा जीव को भगवान की अंतरंगा शक्ति की तरफ खींचते हैं.तो भक्त बहुत-बहुत important होते हैं.बहुत-बहुत जरूरी होते हैं.सत्संग बहुत जरूरी होता है.लेकिन ये प्राप्त वही कर पाता है जिसके पाप समाप्ति पर हैं,जिसके पाप समाप्त हो चुके हैं और जिसके पुण्य फलित हो गए हैं वही भक्तों का संग प्राप्त कर पाता है.वरना भक्तों का महत्त्व,भगवान का महत्त्व सभी को आसानी से समझ में नही आता.

यदि आपको भगवान का महत्त्व समझ में आने लगा है तो याद रखिये आप सौभाग्यशाली होने लगे हैं.आपका सच्चा सौभाग्य जाग गया है.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा  और हम चर्चा कर रहे हैं बहुत-ही सुन्दर श्लोक पर:

भवापवर्गो भ्रमतो यदा भवेत् 
जनस्य तर्ह्यच्चुत सत्समागमः |
सत्सङ्गमो यर्हि तदैव सद्गतौ
परावरेशे त्वयि जायते मतिः || (श्रीमद्भागवत,10.51.53)
अर्थात् 
हे अच्यूत ! जब भ्रमणशील जीव का भौतिक जीवन समाप्त हो जाता है तो वह आपके भक्तों की संगति प्राप्त कर सकता है.और जब वह उनकी संगति करता है तो भक्तों के लक्ष्य और समस्त कारणों के कारण तथा उनके प्रभावों के स्वामी आपके प्रति उसमे भक्ति उत्पन्न होती है.


तो देखिये यहाँ जो बात बतायी गई है कि जब जीव का भौतिक जीवन समाप्त हो जाता है तो भक्तों का संग प्राप्त करता है.देखिये जब भौतिक जीवन समाप्त होगा तभी आध्यात्मिक जीवन शुरू होगा या ये भी कह सकते हैं कि जब आपको भक्तों का संग प्राप्त होगा तभी आपका आध्यात्मिक जीवन शुरू होगा.यहाँ एक बात बहुत-ही सुन्दर तरीके से बताई गई है कि भक्तों का लक्ष्य सिर्फ एक होता है.भक्तों की बुद्धि व्यावसायित्मिका होती है.one pointed.एक ही point पर उनकी बुद्धि टिकी रहती है और वो point है भगवान.वे सिर्फ-और-सिर्फ भगवान के होते हैं.सिर्फ-और-सिर्फ भगवान से प्रेम करते हैं.सिर्फ-और-सिर्फ भगवान के हो जाना चाहते हैं और चूकि भक्त भगवान के रंग में इतना रंगा होता है कि उसका सारा शरीर,उसका मन,उसकी बुद्धि सब आध्यात्मिक हो जाती है.जो व्यक्ति भी ऐसे आध्यात्मिक व्यक्ति की शरण में आता है वो व्यक्ति भी उनके प्रभाव से मुक्त नही रह पाता.वो भगवान की भक्ति में अग्रसर हो जाता है.एक श्लोक है बहुत सुन्दर:

तुलयाम लवेनापि न स्वर्ग नापुनर्भवन । 
भगवत्सहिगसत्गस्य मत्र्यानांकिमुताशिष: (श्रीमद्भागवत,1.18.13)
अर्थात् 
यदि आप एक क्षण के लिए भी भगवद्भक्त का संग कर ले.तो उस संग के आगे न तो स्वर्ग और न ही अपवर्ग यानि कि मोक्ष,इसका कोई मूल्य रह जाता है.ये सब तुच्छ प्रतीत होते हैं.

क्यों?क्योंकि भगवान के भक्त से मिलने के बाद ही आपकी भक्ति प्रारम्भ होती है और आप तभी भगवान को समझ पाते हैं.याद रखिये कि जब तक आप भगवान को समझ नही पायेंगे तो प्रेम कैसे कर पायेंगे.जब तक भगवान से प्रेम नही होगा आपको तब तक आपका भवबंधन कभी कटेगा नही.आपको बार-बार इस जगत में आना पड़ेगा,जाना पडेगा.

तो भगवान से प्रेम यही एकमात्र रास्ता है कि आप इस भौतिक जगत से बाहर चले जायेंगे.भगवान से प्रेम किये बगैर ये हासिल नही होगा और भगवान के भक्तों का संग किए बगैर आपको भगवान की भक्ति कभी नसीब नही होगी.याद रखिये.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा  और हम चर्चा कर रहे हैं बहुत-ही सुन्दर श्लोक पर.जिसका अर्थ है 
हे अच्यूत ! जब भ्रमणशील जीव का भौतिक जीवन समाप्त हो जाता है तो वह आपके भक्तों की संगति प्राप्त कर सकता है.और जब वह उनकी संगति करता है तो भक्तों के लक्ष्य और समस्त कारणों के कारण तथा उनके प्रभावों के स्वामी आपके प्रति उसमे भक्ति उत्पन्न होती है.


तो देखिये भगवान को प्रेम से ही प्राप्त किया जा सकता है और ये प्रेम करना आपको सिखाते हैं भक्त.क्यों?क्योंकि उन्हें भगवान से बहुत प्रेम होता है.अगर आप किसी ऐसे व्यक्ति का संग करेंगे जो कि बहुत बुरे स्वभाव का है तो जल्द ही आपका स्वभाव भी बुरा हो जाएगा लेकिन यदि आप किसी ऐसे व्यक्ति का संग करे जी बहुत ही अच्छे स्वभाव का है,जो भगवान का प्रेमी है तो आपको भी भगवान से प्रेम करना आ जाएगा.इसे जितनी जल्दी आप सीख लेंगे उतने ही फायदे में रहेंगे.

तो प्रेम बहुत important है.हम यहाँ कहते हैं भगवान से प्रेम लेकिन अगर आप अपने आम रिश्तों को भी देखे तो वहाँ आप प्रेम न करे तो वे रिश्ते किसी काम के नही रहते.उन रिश्तों से आपको सुख प्राप्त नही हो सकता.

ऐसे ही एक माँ अपने बेटे की शरारतों से बहुत परेशान रहा करती थी.वो अपने बेटे को बहुत समझाती थी.उस पर बहुत गुस्सा किया करती थी.लेकिन वो बच्चा कोई बात ही नही समझता था.बच्चे की हरकतों से माँ बहुत परेशान रहने लगी.एक दिन वो अपने बेटे को लेकर एक फ़कीर के पास गई.फ़कीर से माँ न कहा कि बाबा ! मेरा बेटा बहुत शरारतें करता है.ये बहुत उपद्रवी है.अगर आप इसे थोडा डरा देंगे तो हो सकता है कि ये ठीक हो जाए.

फ़कीर ने जब ये सुना तो वो खड़ा होकर अपनी आँखें निकाल कर इतनी जोड़ से चिल्लाया कि बच्चा तो डर के मारे भाग ही गया.उसकी माँ भी घबराकर बेहोश हो गई.थोड़ी देर बाद बच्चा अपनी माँ के पास लौटा.तब तक माँ को होश आ गया था.माँ ने होश में आने पर फ़कीर से कहा कि आपने तो हद ही कर दी.मैंने आपसे इतना डराने के लिए तो नही कहा था.फ़कीर ने कहा कि मैया भय का कोई पैमाना नही होता.भय तो भय होता है.जब भय निकल जाता है तो पता ही नही चलता कि उसे कहाँ रोका जाए.माँ बोली कि मैंने तो बच्चे को डराने को कहा था पर आपने तो मुझे भी डरा दिया.

फ़कीर ने कहा कि भय जब प्रकट होता है तो ऐसा नही हो सकता कि वो एक को डराए और दूसरे को न डराए.तुम्हारी क्या बात करे.मै तो स्वयं भी भयभीत हो गया था.देखो जहाँ भय है वहाँ प्रेम नही हो सकता.इसीलिए अब कभी भी अपने बच्चे को डराने की कोशिश न करना.सुधारने का काम डर से नही प्रेम से होता है.

तो देखिये जब दुनियावी रिश्ते प्रेम से सँभलते हैं तो फिर आध्यात्मिक रिश्तों में तो प्रेम बहुत जरूरी है.इसलिए भगवान से प्रेम कीजिये और सदा-सदा के लिए सुखी ह जाईये.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा  और हम चर्चा कर रहे हैं बहुत-ही सुन्दर श्लोक पर:

भवापवर्गो भ्रमतो यदा भवेत् 
जनस्य तर्ह्यच्चुत सत्समागमः |
सत्सङ्गमो यर्हि तदैव सद्गतौ
परावरेशे त्वयि जायते मतिः || (श्रीमद्भागवत,10.51.53)
अर्थात् 
हे अच्यूत ! जब भ्रमणशील जीव का भौतिक जीवन समाप्त हो जाता है तो वह आपके भक्तों की संगति प्राप्त कर सकता है.और जब वह उनकी संगति करता है तो भक्तों के लक्ष्य और समस्त कारणों के कारण तथा उनके प्रभावों के स्वामी आपके प्रति उसमे भक्ति उत्पन्न होती है.


तो देखिये आपको इस प्रश्न का जवाब मिल गया कि सत्संग में ज्यादा लोग क्यों नही होते क्योंकि ज्यादातर लोगों का भौतिक जीवन अभी समाप्त नही हुआ है.अभी उनकी खुशनसीबी नही जागृत हुई है कि वे किसी भक्त का संग करे.उनमे अभी भगवान के प्रति कोई रुचि,कोई जिज्ञासा जागृत नही हुई है और यहाँ बताया गया है कि भगवान भक्तों के एकमात्र लक्ष्य हैं.बह्क्तों के लक्ष्य भगवान ही हैं.भगवान समस्त कारणों तथा उनके प्रभावों के स्वामी हैं.

हम सोचते हैं कि जो कुछ भी होता है उसका स्वामी मै हूँ.जो कुछ भी मुझे मिलता है वे सारे प्रभाव मेरे द्वारा उत्पन्न होते हैं लेकिन यहाँ ये स्पष्ट कर दिया गया है.साफ तौर पर बता दिया गया है कि जितने भी कारण हैं वे भगवान के कारण हैं.भगवान की वजह से उनका वजूद है और जितने भी फल आप देखते हैं,जितने भी प्रभाव हैं,कारणों के जितने भी फल हैं वे सब भगवान की वजह से उत्पन्न होते हैं.

तो भगवान है इसीलिए समस्त कारण उत्पन्न होते हैं,उनके प्रभाव उत्पन्न होते हैं.आपका इसमें कोई role नही होता.आपका तो इतना-सा role है कि आप ये समझ जाए कि भगवान समस्त कारणों के अंतिम कारण हैं और जो ये बात जान लेता है वो सौभाग्यशाली है.क्यों?क्योंकि तब उसे कुछ और जानने की जरूरत रहेगी कहाँ.जब आपने अंतिम जिसे कहते हैं न ultimate को जान लिया तो फिर बीच में छोटी-छोटी चीजों को जानकर  क्या हासिल होगा.तब आप ultimate के हो जायेंगे.भगवान के हो जायेंगे.

तो यहाँ भगवान को एक नाम से पुकारा गया है.वो है अच्यूत.हे अच्यूत.अच्यूत वो जो अपनी बात से कभी डगमगाए नही,गिरे नही.जबकि हमारी और आपकी हालत क्या है?हम आज एक promise करते हैं तो दूसरे ही दिन उसे तोड़ देते हैं.कईबार तो हमें याद भी नही रहता कि हमने कहा क्या था.क्या प्रण लिया था.कईबार नया साल शुरू होता है तो हम बहुत सारे संकल्प लेते हैं लेकिन फिर एक-दो महीने में सारे संकल्प भूल जाते हैं पर भगवान अपने भक्तों को कभी नही भूलते.भगवान अपने प्रण को कभी नही भूलते.भगवान अपने promises को कभी नही भूलते.भगवान महान है.

इसीलिए वो अच्यूत हैं.तो ऐसे अच्यूत की शरणागत भला कौन नही होना चाहेगा.भला कौन अपनी भौतिक जिंदगी को सदा-सर्वदा के लिए समाप्त नही करना चाहेगा.आपको अपनी भौतिक जिंदगी को समाप्त करने के लिए सचेत हो जाना चाहिए.है कि नही.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा  और अब बारी है आपके SMS को कार्यक्रम में शामिल करने की.
SMS: अलवर राजस्थान से गोपाल पूछते हैं कि मै ईश्वर को पाना चाहता हूँ.मुझे कोई रास्ता बताईये.
Reply: गोपाल जी ये तो बहुत-ही सुन्दर इच्छा है कि आप ईश्वर को पाना चाहते हैं.और देखिये भगवान को पाने का जो सबसे सुन्दर ढंग है वो है भगवान का निरंतर भजन करना.उनके  नामों का कीर्त्तन करना.उसके लिए जो qualification है,जो योग्यता है वह है 
तृनाद्पि सुनिचेन तरोरपि सहिष्णुना
अमानि न मानदेन कीर्त्तनीय सदा हरि.
कि आप अपने आप को तृण से भी अधिक तुच्छ समझे.घास का तिनका होता है न उससे भी ज्यादा तुच्छ समझे और आपकी जो सहिष्णुता है याकि कि जो आपकी tolerance power है वो एक पेड़ की तरह होनी चाहिए.पेड़ कितना सहनशील होता है.धूप,सर्दी,गर्मी,बरसात सबकुछ सहन करता है और जब कोई बच्चा उसको पत्थर मारता है तो भी  बदले में वो फल ही प्रदान करता है.तो इतना सहिष्णु होना होगा और अमानि न मानदेन अपने लिए किसी मान की अपेक्षा नही करनी है.कभी भी अपने लिए मान की अपेक्षा मत कीजियेगा और दूसरों को सदा मान दीजियेगा.
अगर आप ये सब अपना सके तो आप भगवान का भजन कर पायेंगे और तभी आपको भगवान प्राप्त भी हो जायेंगे.

SMS: रोहिणी से अनुपमा पूछती हैं कि हमारी उत्पत्ति भगवान से हुई तो भगवान की उत्पत्ति कहाँ से हुई?
Reply: आपमें,हम में और भगवान में एक बहुत बड़ा फर्क है और वो ये कि हम भगवान के अंश हैं लेकिन भगवान किसी के अंश नही हैं.भगवान कि उत्पत्ति कही से नही हुई.
अनादिरादिर्गोविन्दः सर्व-कारण-कारणं(ब्रह्म-संहिता)
शास्त्रों में ये उल्लेख आया है इसीलिए वे भगवान हैं.नही तो भगवान की उत्पत्ति कही और से होती तो वो कही और जहाँ से उत्पत्ति होती वे भगवान हो जाते.भगवान कहते भी हैं 
अहमेवासमेवाग्रे(श्रीमद्भागवत,2.9.33)
यानि इस सृष्टि से पहले भी मै था,अभी भी मै हूँ और बाद में भी मै ही रहूँगा.

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