Sunday, February 27, 2011

क्यों है हम सब अशांत,क्या है वो विधि जो हमें शांति दे सकती है:Explanation by Maa Premdhara(102.6 FM)

Spiritual Program SAMARPAN On 27th Feb, 2011(102.6 FM)
कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा .नमस्कार.कैसे हैं आप.एक दिन बस में मैंने एक आदमी को गाते हुए सुना
दुखी मन मेरे सुन मेरा कहना,
जहाँ नही चैना वहाँ नही रहना.
यानि कि जहाँ चैन नही,शांति नही वहाँ रहने को मन नही करता.आज के  दौड़ में आपके पास बहुत पैसा हो सकता है.खूब नाम भी हो सकता है और दुनिया भर का साजोसामान भी हो सकता है.पर आज के  दौड़ में जो लोगों के पास नही है वो है चैन,शांति,सुख.जब आदमी गरीब होता है तो सोचता है कि खूब अमीर हो जाऊंगा तो जरूर शांत  हो जाऊंगा.यदि by chance उसकी लॉटरी लग जाए तो वो सोचता है कि रुपये कैसे खर्च करूँ और कैसे बचाऊं.और फिर इसे मै कैसे बढ़ाऊ.इसी उधेरबुन में वो अशांत होता जाता है.दुखी हो जाता है.

बड़े-बड़े देशों में अशांति रहती है.शांति कायम करने के प्रयास किये जाते रहते हैं.शांति सम्मलेन होते हैं.शांति पुरस्कार भी दिए जाते हैं.बावजूद इसके घर से लेकर बाहर और बाहर से लेकर पूरी दुनिया में अशांति का साम्राज्य छाया हुआ है.

आखिर क्यों है हम सब अशांत.क्या है वो विधि जो हमें शांति दे सकती है.इसी की चर्चा है आज के श्लोक में.कृपया ध्यान से सुनिए:

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना ।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्‌ ॥(भगवद्गीता,2.66)
अर्थात्

भगवान कहते है कि जो व्यक्ति ईश्वर से जुड़ा हुआ नही है उसकी न तो बुद्धि दैवीय होती है,न ही उसके पास स्थिर मन होता है जिसके बिना शांति की कोई संभावना नही है और शांति के बिना भला कोई कैसे सुखी रह सकता है.

तो भगवान बड़ी ही सुन्दर बात आपको बता रहे हैं.भगवान कहते हैं कि देखिये यदि कोई व्यक्ति भगवान से जुड़ा हुआ नही है.यदि कोई व्यक्ति सिर्फ अपनी आकांक्षाओं से जुड़ा है,अपनी आशाओं से जुड़ा है,अपनी इच्छाओं से जुड़ा है और अपनी इच्छाओं के बीच,अपनी आशाओं के बीच वो कभी भगवान को भी नही आने देता.वो नही सोचता है कि अरे पहला कदम मै बढाऊंगा.बाकी भगवान कर लेंगे.नही वो कहता है कि मुझे ही सब कुछ करना है और ये पूरा जगत मुझे जीतना है.

भगवान से जिसकी बुद्धि नही जुडी रहती है.जो बस अपनी इंद्रतृप्ति के लिए सुबह से लेकर रात तक काम करते रहता है.ऐसे व्यक्ति के पास कभी भी दैवीय बुद्धि नही होती.divine intelligence नही होती.उसके पास जो intelligence होती है.जो बुद्धि होती है,वो material बुद्धि होती है.इस भौतिक धरातल पर उसकी बुद्धि काम करती है.इसीलिए वो अशांत रहता है.वो शांत नही हो पाता है.

तो भगवान यहाँ आपको बहुत सुन्दर तरीका बताते हैं कि यदि आप मुझसे जुड जाए यानि ईश्वर से जुड जाए तो आपकी सारी problems दूर हो जायेंगी और आपके पास शांति स्वमेव आ जायेगी.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा और हम चर्चा कर रहे हैं बहुत ही सुन्दर श्लोक पर:

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना ।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्‌ ॥(भगवद्गीता,2.66)
अर्थात्

भगवान कहते है कि जो व्यक्ति ईश्वर से जुड़ा हुआ नही है उसकी न तो बुद्धि दैवीय होती है,न ही उसके पास स्थिर मन होता है जिसके बिना शांति की कोई संभावना नही है और शांति के बिना भला कोई कैसे सुखी रह सकता है.


है न.यानि कि जिसकी बुद्धि सकाम उद्यम से जुडी रहती है.जो सकाम कर्मी होता है.जो अपने हर काम के पीछे कोई फल चाहता है.ऐसा व्यक्ति सकाम कर्मी होता है.ऐसे व्यक्ति की बुद्धि सकाम होती है.ऐसे व्यक्ति की बुद्धि निष्काम नही हो सकती.निष्काम बुद्धि होना,निष्काम कर्म होना ये बहुत ही दुर्लभ है.जो व्यक्ति भगवान से जुड़ा नही है,वो इस चीज को प्राप्त नही कर सकता.

तो यहाँ भगवान बता रहे हैं कि यदि आपकी बुद्धि दैवीय नही है,आपके पास मन स्थिर नही है तो आप अशांत होगे.यानि कि शांति मन में आती है.शांति का जो receptionist है जो शांति को receive करता है वो receiver है मन.शांति मन में आती है.उसके बाद बुद्धि में आती है और उसके बाद सम्पूर्ण आत्मा में फ़ैल जाती है.लेकिन मन ही अगर अस्थिर है तो कैसे काम चलेगा.सोचिये आपका अस्थिर मन कैसे आपको स्थिरता देगा.Possible नही है.

जैसे कि मान लीजिए परसो आपका examination है और आप बैठे हुए हैं कि भई मुझे पढ़ना है.आप पढ़ने के लिए बैठे हैं और अचानक आपका मन कहता है कि चलो भई क्रिकेट खेलने चला जाए.शाम हो गई है.यार-दोस्त बाहर जम गए हैं.मुझे भी चलना चाहिए और आप अगर अपने मन की बात सुन लेते हैं तो जरूर क्रिकेट खेलकर आते हैं.इसके बाद आपके parents,आपके अभिभावक आप पर चिल्लाते हैं,गुस्सा करते हैं.आपके नंबर भी कम आते हैं और आप अशांत हो जाते हैं.आप डर जाते हैं कि exam में जाने क्या-क्या आएगा.मैंने तो कुछ भी prepare नही किया.कोई तैयारी नही है मेरी.आप अशांत हो जाते हैं.

तो अस्थिर मन अशांति का कारण होता है.चुकी मन अस्थिर होता है इसलिए उसके पीछे जो बुद्धि कार्य कर रही है वो भी दैवीय बुद्धि नही है.वो भौतिक में ,भौतिक पदार्थों में लिप्त है.यानि कि आप सोचते हैं कि आपको सुख एक टेलीविजन दे सकता है.लेकिन इसी टेलीविजन को आप बारहों घंटे देखते हैं तो आपकी आँखें भी खराब हो जाती है और आप देखते हैं कि आप चिडचिडे हो जाते हैं.आपको कुछ अच्छा नही लगता है.

तो अगर आप अपनी जिंदगी में गौर से देखे तो आप देखेंगे कि जहाँ से आप सुख प्राप्त करने का प्रयास कर रहे हैं वस्तुतः वो मृग मरीचिका है.वो सुख है ही नही.आप लग रहा है कि शायद वो सुख है.तो शायद आप सुख परिभाषा अभी ठीक से जानते नही हैं.इसे जानने का प्रयास कीजिये.

हम मिलते हैं आपके साथ थोड़ी -ही देर में.सुनते रहिये समर्पण.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा और हम चर्चा कर रहे हैं बहुत ही सुन्दर श्लोक पर.बहुत--ही सुन्दर श्लोक है:
भगवान कहते है कि जो व्यक्ति ईश्वर से जुड़ा हुआ नही है उसकी न तो बुद्धि दैवीय होती है,न ही उसके पास स्थिर मन होता है जिसके बिना शांति की कोई संभावना नही है और शांति के बिना भला कोई कैसे सुखी रह सकता है.

कितनी सही बात भगवान कहते हैं.सोचिये एक ऐसे घर के बारे में जहाँ दिन-रात कलह होती हो.पत्नी पति से लड़ती हो.पति पत्नी से लड़ता हो.बच्चे आपस में लड़ते हो.तो सोचिये कि ऐसे घर में कौन जाना चाहेगा.कौन रहना चाहेगा.सोचिये कि एक आदमी दिनभर काम करता हो.सुबह से लेकर के रात तक काम करता हो.फिर सोचे कि जल्दी से मै घर जाऊं और घर जाके आराम करूँ.मेरी पत्नी मीठी-मीठी बातें करे.बच्चे मेरे पास आये.मेरे पास प्यार से बैठे.मुझसे प्यार से बात करे.

और अचानक उसे लगता है कि नही,नही पत्नी आजकल प्यार से बात नही करती,बच्चे भी बहुत demanding हो गए हैं.बात-बात पर ताने सुना देते हैं कि अंकल जी तो ये लाते हैं आप क्या लाते हैं.अंकल के पास तो ये है आपके पास क्या है.आपने हमें क्या दिया या पत्नी भी बात-बात पर आपसे लड़ाई करती है.तो क्या आप उस घर में जाना चाहेंगे.नही.क्योंकि वो घर अशांत है.अशांति की जड़ है और जहाँ अशांति है वहाँ दुःख है.वहाँ सुख कैसे हो सकता है.

तो भगवान यही कहते हैं कि जब व्यक्ति भगवान से जुड़ा नही रहता है तो वो अपनी कामनाओं से जुड़ा रहता है.अपनी कामनाओं को पूरा करने के चक्कर में वो घूमता रहता है.और देखिये ये जो शब्द है न अपनी कामना बहुत विस्तृत है.सिर्फ अपनी ही नही अपनी पत्नी की,अपने बच्चों की.हम उनकी कामनाओं को भी अपनी कामना समझ के उन्हें पूरा करने के चक्कर में दिन-रात लगे रहते हैं.दिन-रात.जब हम उनकी कामनाओं को पूर्ण नही कर पाते हैं तो हमें अनेकानेक इल्जाम सहने पड़ते हैं और हमारा मन व्यथित हो जाता है.

जाहिर सी बात है कि जब आपने भगवान के लिए नही सोचा.आपने सोचा मैंने ये सब कमाया अपने बच्चों के लिए,अपनी पत्नी के लिए,अपने पति के लिए,अपने अपनों के लिए और भगवान?अरे भगवान तो दाता हैं.भगवान तो देने का नाम है.भगवान तो हमें देंगे.और देंगे किसलिए ताकि हम और इंद्रतृप्ति कर सके.अगर वो हमें हमारे sense  gratification के लिए और नही देंगे तो भगवान ही किस काम के.ऐसी हमारी सोच रहती है.

क्योंकि हम भगवान से जुड नही पाते हैं इसीलिए हम सदा-सर्वदा अशांत रहते हैं.पर मै आपको बता दूँ कि बड़े-बड़े लोगों को ये बात पता नही,गूढ़ रहस्य पता नही कि भई जिसने हमें इस संसार में भेजा है,कम-से-कम उसका शुक्रिया तो कहे.जिसने हमें इतना कुछ दिया है भोगने के लिए कम-से-कम हम उसे शुक्रिया तो कहे.कम-से-कम हम उसे ये तो कहे कि प्रभु ये सब आपके कारण है.लेकिन हम ये सोचते भी नही.

और होता क्या है?हम इतने दुखी हो जाते हैं,इतने दुखी हो जाते हैं कि हम बीमार हो जाते हैं और कहलाये जाते हैं कि हम depression के शिकार हैं.है न सही बात.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा और हम चर्चा कर रहे हैं बहुत ही सुन्दर श्लोक पर जिसका अर्थ है:
भगवान कहते है कि जो व्यक्ति ईश्वर से जुड़ा हुआ नही है उसकी न तो बुद्धि दैवीय होती है,न ही उसके पास स्थिर मन होता है जिसके बिना शांति की कोई संभावना नही है और शांति के बिना भला कोई कैसे सुखी रह सकता है.

तो देखिये यहाँ सारी अशांति की जड़ चाहे वो व्यक्ति विशेष की बात हो,घर विशेष की बात हो,मोहल्ला विशेष की बात हो,राज्य विशेष की बात हो या फिर देश विशेष की बात हो या विश्व स्तर की बात हो यहाँ बताया गया है कि यदि व्यक्तियों की बुद्धि भगवान से अयुक्त है.भगवान से युक्त नही है तो हमेशा अशांत रहेगी.भगवान कहते हैं :
बहुशाका ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्‌ ॥(भगवद्गीता,2.41)
कि जिस व्यक्ति की बुद्धि व्यवसायित्मिका नही है.जो इस बात को नही समझ पाया कि भगवान ही समस्त कारणों के अंतिम कारण हैं और हमें उन्ही की शरणागत होना है.जो इस बात को स्वीकार नही कर पाया ,ऐसे व्यक्ति की बुद्धि अनेकानेक शाखाओं में विभक्त रहती है.और सोचिये यदि बुद्धि अनेकानेक शाखाओं में विभक्त रहेगी तो आप कैसे अपना काम कर पायेंगे.कैसे.possible नही है.

आपकी बुद्धि इसतरह से होनी चाहिए जैसे अर्जुन को चिड़िया की सिर्फ आँख ही दिखाई दी और उसे कुछ नजर नही आया.इसीप्रकार से जब हमें सिर्फ हमारे जीवन का उद्देश्य ही नजर आएगा.वो भी स्पष्ट रूप से कि हाँ भगवद प्राप्ति,भगवान से मिलन,भगवान के प्रति प्रेम का विकास,यही हमारे जीवन का सर्वोपरी उद्देश्य है.जब हमें ये बात समझ आ जायेगी तब समझ लीजियेगा कि हमारी बुद्धि व्यवसायित्मिका हो जायेगी.दैवीय हो जायेगी.भगवान कहते भी हैं:
अज्ञश्चश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति ।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ॥(भगवद्गीता,4.40)

भगवान कहते हैं कि जिसकी भगवान में श्रद्धा नही  है और जो भगवान पर doubt करता है.संदेह करता है भगवद विषय पर.भगवद चर्चा पर जिसे संदेह है.जो भगवान के बंदों पर संदेह करते हैं.भगवान कहते हैं कि ऐसे लोगों का विनाश हो जाता है और ऐसे लोगों को न इस संसार में सुख प्राप्त हो सकता है,न दूसरे संसार में सुख प्राप्त हो सकता है.ऐसे व्यक्ति सदा-सर्वदा के लिए विनष्ट हो जाते हैं.

तो सोचिये.भगवान पर श्रद्धा होना,ये बहुत जरूरी है और मै आपको बताऊँ कि भक्ति की शुरुआत श्रद्धा से ही होती है.ये श्रद्धा की भगवान हैं,हमें सुनते हैं और हमारा भला चाहते हैं.वही हमारे परमपिता हैं.ये श्रद्धा होना बहुत जरूरी है.तो कैसे होगी ये श्रद्धा?साधुसंग से.जब आप भक्तों का संग करेंगे और भक्तों के संग में बैठकर हरिकथा सुनेंगे,भगवान की चर्चा सुनेंगे तो ये बुद्धि आपकी विमल होगी,व्यवसायित्मिका होगी,one pointed होगी,अपने  उद्देश्य की तरफ आप शीघ्रता से बढते चले जायेंगे.

और जब ऐसा होगा तब आपको शांति भी मिलेगी और सुख भी.याद रखिये.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा और हम चर्चा कर रहे हैं बहुत ही सुन्दर श्लोक पर:
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना ।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्‌ ॥(भगवद्गीता,2.66)
अर्थात्

भगवान कहते है कि जो व्यक्ति ईश्वर से जुड़ा हुआ नही है उसकी न तो बुद्धि दैवीय होती है,न ही उसके पास स्थिर मन होता है जिसके बिना शांति की कोई संभावना नही है और शांति के बिना भला कोई कैसे सुखी रह सकता है.
नही रह सकता,सुखी नही रह सकता.यदि व्यक्ति अपनी इंद्रतृप्ति के बारे में सोचता रहे और बार -बार सोचता रहे लेकिन अपनी इंद्रतृप्ति से वो संतुष्ट न हो पाए.बार-बार सोचे कि अरे ये भी रह गया.अभी तो मुझे ये करना था.मुझे वो पाना था.पा न सका.ये करूँगा,वो करूँगा.सोचा था पर कर न सका.ऐसा व्यक्ति असंतुष्ट हो जाता है.है न.तब वो अशांत हो जाता है.और इसीपर मुझे एक छोटी-सी कहानी याद आयी.आप ध्यान से सुनिए:

एक बार किसी संपन्न राज्य के राजा के पास एक साधु आये.राजा ने पूछा कि महात्मन आपकी क्या सेवा करूँ?साधु बोले कि महाराज ये एक छोटा-सा बर्त्तन है.कृपया इसे भरवा दीजिए.राजा बोला कि महात्मा जी इस छोटे-से बर्तन को अभी-अभी मै अमूल्य हीरे-जवाहरात और सोने-चांदी से भरवा देता हूँ ताकि बाकी जीवन आपको धन की जरूरत ही न पड़े.

राजा का आदेश पाते ही कोषाध्यक्ष ने उस पात्र को भरना शुरू कर दिया लेकिन वो पात्र भर ही नही पा रहा था.देखते-देखते सारा खजाना खाली हो गया.राजा ने पूछा -महात्मा जी ये बर्त्तन किस धातु का बना है.मेरा तो सारा खजाना खाली हो गया लेकिन ये भरा ही नही.साधु बोले-महाराज ये मनुष्य की खोपड़ी की हड्डी से बना है.इस कपाल की लिप्सा कभी भी पूरी नही होती.ये सुनते ही राजा चौंक पड़े और उन्होंने ने विनम्रतापूर्वक कहा कि आपकी बात सुनकर तो मेरी उत्सुकता बढ़ गई है.कृपया विस्तार से बताएँ.

तब साधु महाराज ने समझाया-राजन तृष्णा एक ऐसा गहरा घड़ा है जिसे सम्पूर्ण पृथ्वी के हीरों आदि से भी नही भरा जा सकता.ये तृष्णा मनुष्य को बन्दर की तरह नचाती है,कुत्ते की तरह दर-दर भटकाती है,उल्ले के समान सूरज के प्रकाश में भी अंधा बना देती है और मछली की तरह लोभ में फँसा कर जीवन को संकट में डाल देती है.तृष्णा के अनेक रूप हैं लेकिन मै उन रूपों का वर्णन नही कर सकता क्योंकि ये मेरी सीमा के बाहर है.

तो सुना आपने जो व्यक्ति अपने दिमाग का इस्तेमाल सिर्फ अपने सुख को बटोरने में करता है,शारीरिक सुख को बटोरने में करता है,जो भगवान से अलहदा रहता है,उनसे जुड़ता नही है वो सदा-सर्वदा तृष्णायुक्त जीवन व्यतीत करता है.उसके जीवन में,जीवन के अंतिम समय तक कोई-न-कोई चाह,कोई-न-कोई इच्छा रह जाती है और उस इच्छा के चलते उसे दुबारा से जीवन धारण करना पड़ता है .शरीर धारण करना पड़ता है और ये एक अफ़सोस की बात है.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधाराहम चर्चा कर रहे हैं बहुत ही सुन्दर श्लोक पर :
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना ।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्‌ ॥(भगवद्गीता,2.66)
अर्थात्

भगवान कहते है कि जो व्यक्ति ईश्वर से जुड़ा हुआ नही है उसकी न तो बुद्धि दैवीय होती है,न ही उसके पास स्थिर मन होता है जिसके बिना शांति की कोई संभावना नही है और शांति के बिना भला कोई कैसे सुखी रह सकता है.

तो भगवान बड़ी ही सुन्दर बात आपको बता रहे हैं.भगवान कहते हैं कि देखिये यदि कोई व्यक्ति भगवान से जुड़ा हुआ नही है.यदि कोई व्यक्ति सिर्फ अपनी आकांक्षाओं से जुड़ा है,अपनी आशाओं से जुड़ा है,अपनी इच्छाओं से जुड़ा है और अपनी इच्छाओं के बीच,अपनी आशाओं के बीच वो कभी भगवान को भी नही आने देता.वो नही सोचता है कि अरे पहला कदम मै बढाऊंगा.बाकी भगवान कर लेंगे.नही वो कहता है कि मुझे ही सब कुछ करना है और ये पूरा जगत मुझे जीतना है.

भगवान से जिसकी बुद्धि नही जुडी रहती है.जो बस अपनी इंद्रतृप्ति के लिए सुबह से लेकर रात तक काम करते रहता है.ऐसे व्यक्ति के पास कभी भी दैवीय बुद्धि नही होती.divine intelligence नही होती.उसके पास जो intelligence होती है.जो बुद्धि होती है,वो material बुद्धि होती है.इस भौतिक धरातल पर उसकी बुद्धि काम करती है.इसीलिए वो अशांत रहता है.वो शांत नही हो पाता है.

तो भगवान यहाँ आपको बहुत सुन्दर तरीका बताते हैं कि यदि आप मुझसे जुड जाए यानि ईश्वर से जुड जाए तो आपकी सारी problems दूर हो जायेंगी और आपके पास शांति स्वमेव आ जायेगी.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा और हम चर्चा कर रहे हैं बहुत ही सुन्दर श्लोक पर:

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना ।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्‌ ॥(भगवद्गीता,2.66)
अर्थात्

भगवान कहते है कि जो व्यक्ति ईश्वर से जुड़ा हुआ नही है उसकी न तो बुद्धि दैवीय होती है,न ही उसके पास स्थिर मन होता है जिसके बिना शांति की कोई संभावना नही है और शांति के बिना भला कोई कैसे सुखी रह सकता है.


है न.यानि कि जिसकी बुद्धि सकाम उद्यम से जुडी रहती है.जो सकाम कर्मी होता है.जो अपने हर काम के पीछे कोई फल चाहता है.ऐसा व्यक्ति सकाम कर्मी होता है.ऐसे व्यक्ति की बुद्धि सकाम होती है.ऐसे व्यक्ति की बुद्धि निष्काम नही हो सकती.निष्काम बुद्धि होना,निष्काम कर्म होना ये बहुत ही दुर्लभ है.जो व्यक्ति भगवान से जुड़ा नही है,वो इस चीज को प्राप्त नही कर सकता.

तो यहाँ भगवान बता रहे हैं कि यदि आपकी बुद्धि दैवीय नही है,आपके पास मन स्थिर नही है तो आप अशांत होगे.यानि कि शांति मन में आती है.शांति का जो receptionist है जो शांति को receive करता है वो receiver है मन.शांति मन में आती है.उसके बाद बुद्धि में आती है और उसके बाद सम्पूर्ण आत्मा में फ़ैल जाती है.लेकिन मन ही अगर अस्थिर है तो कैसे काम चलेगा.सोचिये आपका अस्थिर मन कैसे आपको स्थिरता देगा.Possible नही है.

जैसे कि मान लीजिए परसो आपका examination है और आप बैठे हुए हैं कि भई मुझे पढ़ना है.आप पढ़ने के लिए बैठे हैं और अचानक आपका मन कहता है कि चलो भई क्रिकेट खेलने चला जाए.शाम हो गई है.यार-दोस्त बाहर जम गए हैं.मुझे भी चलना चाहिए और आप अगर अपने मन की बात सुन लेते हैं तो जरूर क्रिकेट खेलकर आते हैं.इसके बाद आपके parents,आपके अभिभावक आप पर चिल्लाते हैं,गुस्सा करते हैं.आपके नंबर भी कम आते हैं और आप अशांत हो जाते हैं.आप डर जाते हैं कि exam में जाने क्या-क्या आएगा.मैंने तो कुछ भी prepare नही किया.कोई तैयारी नही है मेरी.आप अशांत हो जाते हैं.

तो अस्थिर मन अशांति का कारण होता है.चुकी मन अस्थिर होता है इसलिए उसके पीछे जो बुद्धि कार्य कर रही है वो भी दैवीय बुद्धि नही है.वो भौतिक में ,भौतिक पदार्थों में लिप्त है.यानि कि आप सोचते हैं कि आपको सुख एक टेलीविजन दे सकता है.लेकिन इसी टेलीविजन को आप बारहों घंटे देखते हैं तो आपकी आँखें भी खराब हो जाती है और आप देखते हैं कि आप चिडचिडे हो जाते हैं.आपको कुछ अच्छा नही लगता है.

तो अगर आप अपनी जिंदगी में गौर से देखे तो आप देखेंगे कि जहाँ से आप सुख प्राप्त करने का प्रयास कर रहे हैं वस्तुतः वो मृग मरीचिका है.वो सुख है ही नही.आप लग रहा है कि शायद वो सुख है.तो शायद आप सुख परिभाषा अभी ठीक से जानते नही हैं.इसे जानने का प्रयास कीजिये.

हम मिलते हैं आपके साथ थोड़ी -ही देर में.सुनते रहिये समर्पण.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा और हम चर्चा कर रहे हैं बहुत ही सुन्दर श्लोक पर.बहुत--ही सुन्दर श्लोक है:
भगवान कहते है कि जो व्यक्ति ईश्वर से जुड़ा हुआ नही है उसकी न तो बुद्धि दैवीय होती है,न ही उसके पास स्थिर मन होता है जिसके बिना शांति की कोई संभावना नही है और शांति के बिना भला कोई कैसे सुखी रह सकता है.

कितनी सही बात भगवान कहते हैं.सोचिये एक ऐसे घर के बारे में जहाँ दिन-रात कलह होती हो.पत्नी पति से लड़ती हो.पति पत्नी से लड़ता हो.बच्चे आपस में लड़ते हो.तो सोचिये कि ऐसे घर में कौन जाना चाहेगा.कौन रहना चाहेगा.सोचिये कि एक आदमी दिनभर काम करता हो.सुबह से लेकर के रात तक काम करता हो.फिर सोचे कि जल्दी से मै घर जाऊं और घर जाके आराम करूँ.मेरी पत्नी मीठी-मीठी बातें करे.बच्चे मेरे पास आये.मेरे पास प्यार से बैठे.मुझसे प्यार से बात करे.

और अचानक उसे लगता है कि नही,नही पत्नी आजकल प्यार से बात नही करती,बच्चे भी बहुत demanding हो गए हैं.बात-बात पर ताने सुना देते हैं कि अंकल जी तो ये लाते हैं आप क्या लाते हैं.अंकल के पास तो ये है आपके पास क्या है.आपने हमें क्या दिया या पत्नी भी बात-बात पर आपसे लड़ाई करती है.तो क्या आप उस घर में जाना चाहेंगे.नही.क्योंकि वो घर अशांत है.अशांति की जड़ है और जहाँ अशांति है वहाँ दुःख है.वहाँ सुख कैसे हो सकता है.

तो भगवान यही कहते हैं कि जब व्यक्ति भगवान से जुड़ा नही रहता है तो वो अपनी कामनाओं से जुड़ा रहता है.अपनी कामनाओं को पूरा करने के चक्कर में वो घूमता रहता है.और देखिये ये जो शब्द है न अपनी कामना बहुत विस्तृत है.सिर्फ अपनी ही नही अपनी पत्नी की,अपने बच्चों की.हम उनकी कामनाओं को भी अपनी कामना समझ के उन्हें पूरा करने के चक्कर में दिन-रात लगे रहते हैं.दिन-रात.जब हम उनकी कामनाओं को पूर्ण नही कर पाते हैं तो हमें अनेकानेक इल्जाम सहने पड़ते हैं और हमारा मन व्यथित हो जाता है.

जाहिर सी बात है कि जब आपने भगवान के लिए नही सोचा.आपने सोचा मैंने ये सब कमाया अपने बच्चों के लिए,अपनी पत्नी के लिए,अपने पति के लिए,अपने अपनों के लिए और भगवान?अरे भगवान तो दाता हैं.भगवान तो देने का नाम है.भगवान तो हमें देंगे.और देंगे किसलिए ताकि हम और इंद्रतृप्ति कर सके.अगर वो हमें हमारे sense  gratification के लिए और नही देंगे तो भगवान ही किस काम के.ऐसी हमारी सोच रहती है.

क्योंकि हम भगवान से जुड नही पाते हैं इसीलिए हम सदा-सर्वदा अशांत रहते हैं.पर मै आपको बता दूँ कि बड़े-बड़े लोगों को ये बात पता नही,गूढ़ रहस्य पता नही कि भई जिसने हमें इस संसार में भेजा है,कम-से-कम उसका शुक्रिया तो कहे.जिसने हमें इतना कुछ दिया है भोगने के लिए कम-से-कम हम उसे शुक्रिया तो कहे.कम-से-कम हम उसे ये तो कहे कि प्रभु ये सब आपके कारण है.लेकिन हम ये सोचते भी नही.

और होता क्या है?हम इतने दुखी हो जाते हैं,इतने दुखी हो जाते हैं कि हम बीमार हो जाते हैं और कहलाये जाते हैं कि हम depression के शिकार हैं.है न सही बात.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा और हम चर्चा कर रहे हैं बहुत ही सुन्दर श्लोक पर जिसका अर्थ है:
भगवान कहते है कि जो व्यक्ति ईश्वर से जुड़ा हुआ नही है उसकी न तो बुद्धि दैवीय होती है,न ही उसके पास स्थिर मन होता है जिसके बिना शांति की कोई संभावना नही है और शांति के बिना भला कोई कैसे सुखी रह सकता है.

तो देखिये यहाँ सारी अशांति की जड़ चाहे वो व्यक्ति विशेष की बात हो,घर विशेष की बात हो,मोहल्ला विशेष की बात हो,राज्य विशेष की बात हो या फिर देश विशेष की बात हो या विश्व स्तर की बात हो यहाँ बताया गया है कि यदि व्यक्तियों की बुद्धि भगवान से अयुक्त है.भगवान से युक्त नही है तो हमेशा अशांत रहेगी.भगवान कहते हैं :
बहुशाका ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्‌ ॥(भगवद्गीता,2.41)
कि जिस व्यक्ति की बुद्धि व्यवसायित्मिका नही है.जो इस बात को नही समझ पाया कि भगवान ही समस्त कारणों के अंतिम कारण हैं और हमें उन्ही की शरणागत होना है.जो इस बात को स्वीकार नही कर पाया ,ऐसे व्यक्ति की बुद्धि अनेकानेक शाखाओं में विभक्त रहती है.और सोचिये यदि बुद्धि अनेकानेक शाखाओं में विभक्त रहेगी तो आप कैसे अपना काम कर पायेंगे.कैसे.possible नही है.

आपकी बुद्धि इसतरह से होनी चाहिए जैसे अर्जुन को चिड़िया की सिर्फ आँख ही दिखाई दी और उसे कुछ नजर नही आया.इसीप्रकार से जब हमें सिर्फ हमारे जीवन का उद्देश्य ही नजर आएगा.वो भी स्पष्ट रूप से कि हाँ भगवद प्राप्ति,भगवान से मिलन,भगवान के प्रति प्रेम का विकास,यही हमारे जीवन का सर्वोपरी उद्देश्य है.जब हमें ये बात समझ आ जायेगी तब समझ लीजियेगा कि हमारी बुद्धि व्यवसायित्मिका हो जायेगी.दैवीय हो जायेगी.भगवान कहते भी हैं:
अज्ञश्चश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति ।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ॥(भगवद्गीता,4.40)
भगवान कहते हैं कि जिसकी भगवान में श्रद्धा नही  है और जो भगवान पर doubt करता है.संदेह करता है भगवद विषय पर.भगवद चर्चा पर जिसे संदेह है.जो भगवान के बंदों पर संदेह करते हैं.भगवान कहते हैं कि ऐसे लोगों का विनाश हो जाता है और ऐसे लोगों को न इस संसार में सुख प्राप्त हो सकता है,न दूसरे संसार में सुख प्राप्त हो सकता है.ऐसे व्यक्ति सदा-सर्वदा के लिए विनष्ट हो जाते हैं.

तो सोचिये.भगवान पर श्रद्धा होना,ये बहुत जरूरी है और मै आपको बताऊँ कि भक्ति की शुरुआत श्रद्धा से ही होती है.ये श्रद्धा की भगवान हैं,हमें सुनते हैं और हमारा भला चाहते हैं.वही हमारे परमपिता हैं.ये श्रद्धा होना बहुत जरूरी है.तो कैसे होगी ये श्रद्धा?साधुसंग से.जब आप भक्तों का संग करेंगे और भक्तों के संग में बैठकर हरिकथा सुनेंगे,भगवान की चर्चा सुनेंगे तो ये बुद्धि आपकी विमल होगी,व्यवसायित्मिका होगी,one pointed होगी,अपने  उद्देश्य की तरफ आप शीघ्रता से बढते चले जायेंगे.

और जब ऐसा होगा तब आपको शांति भी मिलेगी और सुख भी.याद रखिये.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा और हम चर्चा कर रहे हैं बहुत ही सुन्दर श्लोक पर.आज का श्लोक है :
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना । 
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्‌ ॥(भगवद्गीता,2.66)
अर्थात्

भगवान कहते है कि जो व्यक्ति ईश्वर से जुड़ा हुआ नही है उसकी न तो बुद्धि दैवीय होती है,न ही उसके पास स्थिर मन होता है जिसके बिना शांति की कोई संभावना नही है और शांति के बिना भला कोई कैसे सुखी रह सकता है.
तो देखिये भगवान यहाँ बहुत-ही सुन्दर बात आपको बता रहे हैं.देखिये यदि आप भगवान से जुड जाते हैं तब आपका सुख आपका नही रहता.भगवान का हो जाता है.आपका दुःख भी तो आपका नही रहता.है न.यानि आप भगवान स्व जुड गए तो आप कहते हैं कि भगवान ये सुख जो मुझे मिल रहा है वो वास्तव में आपने दिया और ये जो दुःख मुझ तक आया वास्तव में आपने इतनी कृपा की कि मुझे तो बहुत दुःख मिलने थे.मेरे तो बड़े ही विकर्म थे,बड़े ही पाप थे लेकिन आपने इतनी कृपा कर दी कि प्रभु ये दुःख कितना कम होकर के मेरे पास आया.मेरे कर्म काटने के लिए आपने इतनी कृपा कर दी कि दुःख दुःख ही नही रहा.है न.शायद मै आग से जल जाता लेकिन देखिये मुझे आग बस छू भर गई.है न.आप ऐसा सोचने लगते हैं.

लेकिन जिसकी बुद्धि भगवान से नही जुडी है वो कहेगा कि अरे कितना दुखी हूँ मै.भगवान क्या सो गए थे.क्या उन्होंने देखा नही कि मै कितना दुखी हूँ.भगवान ने मेरी मदद क्यों नही की.भगवान हमारी मदद क्यों नही करते.अगर भगवान हैं तो वो मदद करे.तो ऐसा व्यक्ति महा अज्ञानी होता है जो ये सोचता है कि भगवान यदि हैं तो मेरी मदद करे.

अजी भगवान तो हैं.आपकी मदद कर भी रहे हैं.आप नही समझ पा रहे हैं तो ये आपकी problem है क्योंकि भगवान कहते हैं:
ज्ञानं लब्धवा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥(भगवद्गीता,4.39)
यदि आपको परा का ज्ञान हो जाए.भगवान की परा प्रकृति.भगवान की परा प्रकृति जो जीवात्मा है,उसका ज्ञान हो जाये,परमात्मा का ज्ञान हो जाए और spiritual places यानि भगवान के लोकों का ज्ञान हो जाए,आपके जीवन का जो अभीष्ट है उसका ज्ञान हो जाए तो आपको तुरंत ही शांति प्राप्त हो जायेगी.

लेकिन आप परा का ज्ञान नही लेते.आप अपरा का ज्ञान लेते हैं.Material energy जो भगवान की है,जो माया है उसका ज्ञान लेकर के खुश हो जाते हैं.इसलिए फँस जाते हैं.तो इससे अगर हम ऊपर उठते हैं और भगवान के चरणों की शरण ग्रहण करते हैं तो हमारी बुद्धि विमल होती है और तब हमारे अंदर स्वयं ही ज्ञान का प्रादुर्भाव होता है.ज्ञान उत्पन्न होता है जिससे हम ये देख पाते हैं कि सच में मै कर्त्ता नही हूँ.ये तो प्रकृति है जी कार्य कर रही है और मै इसके लहरों में कभी ऊपर आता हूँ तो कभी नीचे जाता हूँ.

यदि ये देखने की शक्ति हमारे अंदर आ जाए तो हम पूर्ण ज्ञानी हो सकते हैं.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा और अब बारी है आपके sms की.
SMS: राँची से दर्शन कहते हैं:
If an egg is broken by outside force life ends.If broken by inside force life begins.Great things always begins through inside.trust yourself.
Reply: यानि जब अंडे को बाहर से तोडा जाता है तो जिंदगी खत्म हो जाती है लेकिन जब अंडा खुद ही अंदर से टूटता है तो जिंदगी शुरू होती है और इसीलिए बड़ी-बड़ी चीजें तभी होती हैं जब आप अंदर से उसकी शुरुआत करे.इसलिए खुद पर भरोसा रखिये.
जी हाँ दर्शन जी आपने बिल्कुल सही कहा कि खुद पर भरोसा रखना चाहिए.लेकिन उससे भी ज्यादा जरूरी है कि आप भगवान के शरणागत हो क्योंकि जब आप भगवान की शरण में रहेंगे तो आपको न तो अच्छे की आकांक्षा रहेगी और न तो आपको किसी बुरे चीज का डर रहेगा.क्योंकि कहते हैं न:
अकुतो भयं
यानि जब हम भगवान की शरण में आ जाते हैं तो फिर डर किस बात का.तब तो भगवान ही हमारा सारा कार्यभार सँभालते हैं.

SMS :धर्मशाला से अजय पूछते हैं कि नरक के द्वार का नाम बताईये?
Reply : अजय जी शास्त्र में एक श्लोक है :

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्‌॥(भगवद्गीता,16.21)


अर्थात् 
नरक के तीन द्वार हैं:काम,क्रोध और लोभ.

यानि अंतहीन कामनाएँ,अनेकानेक कामनाएँ और जब कामनाएँ पूरी नही होती तो आपको क्रोध आ जाता है.जब आपकी कामनाएँ पूरी होने लगती हैं तो और,और,और प्राप्त हो,इसका लोभ आ जाता है और आप कभी भी भगवान की तरफ मुड नही पाते.सदा-सर्वदा इन इन्द्रियों के मायाजाल में पीस जाते हैं.इन इन्द्रियों की demands को पूरी करने में रह जाते हैं.भगवान की इस माया के चक्कर में रह जाते हैं.लेकिन भगवान तक नही पहुँच पाते.जो कि इस माया के अध्यक्ष हैं और यही जीवन का सबसे बड़ा loss हो जाता है.

ये याद रखिये.
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Friday, February 25, 2011

कौन है जिसकी अध्यक्षता में प्रकृति काम करती है:Explanation by Maa Premdhara(102.6 FM)

Spiritual Program SAMARPAN On 26th Feb, 2011(102.6 FM)
कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा .नमस्कार.कैसे हैं आप? कई बार हम newspaper या पंचांग में पढते हैं कि सूरज कल सुबह इतने बजे निकलेगा और अगले दिन जब सूरज ठीक समय पर निकल आता है तो हम अखबार वालों की या फिर मौसम विभाग की प्रशंसा करते हैं कि अरे वाह ! कितनी accurate भविष्यवाणी करते हैं ये सब.लेकिन शायद ही कोई ये सोचता हो कि भई कौन है जो सूरज को duty देता है कि भई आपको इतने बजे ही उदित होना है और इतने बजे ही अस्त होना है.कौन है जो ये सुनिश्चित करता है कि सारी ऋतुएँ,सारे seasons अपने-अपने समय पर आये.

आखिर जनवरी में लू क्यों नही चलती और जून में यहाँ बर्फ क्यों नही पडती.कौन है जो मिट्टी में इतनी variety,इतने रस डाल देता है कि जैसा भी बीज लगाओ वैसा ही पौधा पाओ.रसीले आम भी इसी मिट्टी से पाओ और खट्टी इमली भी इसी मिट्टी से पाओ.

इसतरह के प्रश्न यदि कभी आपके दिमाग में आये हो तो आपके सवालों के जबाव में है हमारा आज का बहुत ही
सुन्दर श्लोक.कृपया श्लोक ध्यान से सुनिए:

मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरं ।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ॥(भगवद्गीता,9.10)
अर्थात् 

ये भौतिक प्रकृति जो मेरी अनेक शक्तियों में से एक है,ये मेरी ही अध्यक्षता में कार्य कर रही है और इस तरह से हे कुन्तीपुत्र ये सभी चर और अचर जीवों को उत्पन्न कर रही है.इस तरह इस जगत की बार-बार रचना होती है और बार-बार विनाश यानि कि प्रलय होता है.

तो देखिये भगवान ने यहाँ पर अच्छी तरह से साफ़-साफ़ तौर पर बता दिया है कि जिस प्रकृति की आप वाहवाही करते हैं.जिस प्रकृति को देख करके आश्चर्यचकित होते हैं.जिस प्रकृति पर आप नाज करते हैं.जिस प्रकृति को कई बार आप बचाने का प्रयास भी करते हैं.वो प्रकृति वस्तुतः भगवान की अध्यक्षता में कार्य करती है.यानि भगवान ही इस प्रकृति या mother nature के मालिक हैं.

हम कई बार कहते हैं न कि प्रकृति माता है.mother nature.हम कहते हैं न कि भई प्रकृति से ही हमें सब कुछ मिला है.तो एक बात याद रखिये कि माँ अकेले बच्चा पैदा नही कर सकती.पिता की जरूरत होती है.हम सब एक पिता से आये हैं.है न.हमारी माँ है किन्तु पिता भी हैं.
बीजप्रदः पिता.
बीज प्रदान करना पिता का कार्य होता है.तो माँ के पास पिता का आना स्वाभाविक है तभी बच्चे का जन्म होता है और यहाँ भगवान बताते हैं कि माँ जो प्रकृति है वो हमारी माता है.लेकिन उनके साथ हमारे पिता हैं भगवान.जिन्होंने प्रकृति के माध्यम से सब कुछ सृजित किया.पैदा किया.
अहं बीजप्रदः पिता.
भगवान ये घोषणा करते हैं.याद रखिये.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा और हम चर्चा कर रहे हैं बहुत ही सुन्दर श्लोक पर:

मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरं ।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ॥(भगवद्गीता,9.10)
अर्थात् 

ये भौतिक प्रकृति जो मेरी अनेक शक्तियों में से एक है,ये मेरी ही अध्यक्षता में कार्य कर रही है और इस तरह से हे कुन्तीपुत्र ये सभी चर और अचर जीवों को उत्पन्न कर रही है.इस तरह इस जगत की बार-बार रचना होती है और बार-बार विनाश यानि कि प्रलय होता है.


तो भगवान बहुत ही सुन्दर जानकारी दे रहे हैं.पहली जानकारी जो आपको प्राप्त होती है इस श्लोक में से वो ये कि ये भौतिक प्रकृति मेरी अनेक शक्तियों में से एक है.यानि कि ये जो nature,ये जो प्रकृति है जो आपको दिखती है.जिसमे इतनी विविधताएं हैं.यहाँ सुबह होती है तो रात भी होती है.सूरज निकलता भी है तो अस्त हो जाता है.जब सुबह होती है तो कितनी विविधताएं आपको दिखती है.पर जब शाम हो जाती है,रात हो जाती है तो ये विविधताएं आपको देख नही पाती हैं.है न.

तो एक ही सिक्के के दो पहलू.लेकिन ये भौतिक प्रकृति भी भगवान की अनेकानेक शक्तियों में से एक है.अनेकानेक शक्तियाँ.भगवान की शक्तियाँ अपरिमित,असीमित,अचिन्त्य हैं.आपके चिंतन की सीमा रेखा से बाहर है.तो भगवान हम जैसे मनुष्यों को ये जानकारी दे रहे हैं क्योंकि हम नही समझ पाते.हमलोग इस बात पर भी विवाद छेड़ देते हैं कि क्या कोई भगवान है कि नही.बड़े-बड़े वैज्ञानिक,बहुत बड़े-बड़े दार्शनिक भी ये कह कर रह जाते हैं कि भई भगवान को तो हम नही जानते लेकिन हाँ प्रकृति जरूर है.nature जरूर है और nature अपना काम करके रहती है.हमे nature को बचाना है.हमें nature के खिलाफ नही जाना है.कितनी तरह की बातें सब करते हैं.

लेकिन भगवान कहते हैं कि आप ये देखिये कि ये nature अपने से काम नही कर रही है.जैसे कि आपका शरीर.आप अपने शरीर को देखिये.आपका शरीर अपने से काम नही कर रहा है.आपके शरीर में खून बहता है.आपके शरीर में विशेष तापमान रहता है.आपका जो शरीर है उसमे जो आँख है वो देखती है.आपके होंठ हिलते हैं.ये सब कुछ होता है.लेकिन कोई कहे कि देखा ये शरीर करता है.शरीर चल रहा है.शरीर बोल रहा है,हँस रहा है,गा रहा है.कितनी मस्ती कर रहा है.

अगर कोई ये कहे तो वो अज्ञानी है क्योंकि वो शरीर के अंदर बैठी हुई आत्मा को नही देख पा रहा.उस बच्चे की तरह जो कहता है कि पापा!पापा! वो airplane उड़ रहा है.पापा कहते हैं कि नही बेटे  airplane नही उड़ रहा है.उस हवाईजहाज में जो pilot है वो उस airplane ,हवाईजहाज को उड़ा रहा है.इसीप्रकार से जो प्रकृति को देखता है.प्रकृति की विविधताओं को देखता है.प्राकृतिक विविधताओं को देखकर जब वो हैरतंगेज तरीके से कहता है कि वाह क्या बात है.तो वो व्यक्ति यदि भगवान को नही पहचान पाए,यदि ये न कह पाए कि ये भगवान के कारण हो रहा है तो फिर उसकी जानकारी अपूर्ण है,पूरी नही है.याद रखिये.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा और हम चर्चा कर रहे हैं बहुत ही सुन्दर श्लोक पर:

मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरं ।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ॥(भगवद्गीता,9.10)
अर्थात् 

ये भौतिक प्रकृति जो मेरी अनेक शक्तियों में से एक है,ये मेरी ही अध्यक्षता में कार्य कर रही है और इस तरह से हे कुन्तीपुत्र ये सभी चर और अचर जीवों को उत्पन्न कर रही है.इस तरह इस जगत की बार-बार रचना होती है और बार-बार विनाश यानि कि प्रलय होता है.
तो देखिये छोटा-सा example मै आपको देती हूँ कि यदि कोई व्यक्ति ये सोचे कि एक स्त्री,एक गर्भवती स्त्री जो दिख रही है और उसने इस बच्चे को पैदा किया थोड़े दिनों बाद.और वो बार-बार कहे कि उस स्त्री ने दो बच्चे पैदा किये.तीन बच्चे पैदा किये और स्त्री को पूरा credit दे.तो ये कह लीजिए अधूरा ज्ञान है.लेकिन जो व्यक्ति कहे कि ये बच्चे सिर्फ माँ से पैदा नही हुए हैं.इनका पिता भी है.जो ये जान ले कि इनका पिता भी है सिर्फ माँ से बच्चे पैदा नही हो सकते तो ये पूरा ज्ञान है.

इसीप्रकार से भगवान कहते भी हैं शास्त्र में :
पिताहमस्य जगतो (भगवद्गीता,9.17)
मै समस्त जगत का पिता हूँ.है न.भगवान कहते हैं.भगवान declare करते हैं.तो भगवान जब प्रकृति पर दृष्टिपात करते हैं.सिर्फ अपनी दृष्टि से प्रकृति को देखते हैं तो विभिन्न कर्मों के अनुसार समस्त जीव आत्माएं विभिन्न योनियों में प्रकृति में आरोपित हो जाती हैं.अपने-अपने कर्म के अनुसार विभिन्न योनियों को,विभिन्न जीव आत्माएं धारण करती हैं और पैदा होती हैं.लेकिन ये सब होता तभी है जब भगवान अपनी चितवन से,अपनी नजरों से प्रकृति को देखते हैं.

तो इस श्लोक में आपको बताया गया है कि भौतिक प्रकृति जो भी कार्य करती हुई दिखती है उसके पीछे की वजह भगवान हैं.भगवान से अलग हो करके प्रकृति कोई कार्य नही कर सकती क्योंकि प्रकृति जड़ है.लेकिन इसमे जो life force है,जो जीवन्तता है,जो creativity की शक्ति है,जो सृजन और विनाश करने की शक्ति है वो भगवान से इस प्रकृति में आती है.

ये बात अगर आप याद रखेंगे.अगर ये बात समझ पायेंगे तो आप देख पायेंगे कि किस तरह से भगवान कार्य करते हैं और प्रकृति किस तरह से कार्य करती है.जैसे कि आपके शरीर के अंदर आत्मा है तभी इस शरीर में खून बहता है.है न.सृष्टि होती है,ये शरीर बच्चे पैदा करता है.सृष्टि करता है.इसीप्रकार से इस ब्रह्माण्ड में भगवान हैं तभी नदियाँ बहती हैं.भगवान व्याप्त हैं तभी नदियाँ बहती हैं और चर-अचर जीव उत्पन्न होते हैं.भगवान एक समग्र,एक विश्व चेतना के रूप में सम्पूर्ण जगत में व्याप्त हैं.भगवान सम्पूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त हैं.इसीलिये ये सारा ब्रह्माण्ड ऐसा कार्य करता है.

बिना भगवान के  न सूरज उग सकता है,न रात हो सकती है,न नदियाँ बह सकती हैं.वैसे ही जैसे कि हमारे शरीर में आत्मा की उपस्थिति में खून बहता है,सृष्टि होती है.सारा mechanism काम करता है.इसीप्रकार प्रकार दुनिया भगवान की उपस्थिति में कार्य करती है.तभी फूल उगते हैं,तभी सब्जियां उगती है.जो ये सब जान लेता है वो पूर्ण ज्ञानी कहलाता है और वो भगवान की भक्ति में अग्रसर हो जाता है.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा और हम चर्चा कर रहे हैं बहुत ही सुन्दर श्लोक पर.जिसका अर्थ है:
ये भौतिक प्रकृति जो मेरी अनेक शक्तियों में से एक है,ये मेरी ही अध्यक्षता में कार्य कर रही है और इस तरह से हे कुन्तीपुत्र ये सभी चर और अचर जीवों को उत्पन्न कर रही है.इस तरह इस जगत की बार-बार रचना होती है और बार-बार विनाश यानि कि प्रलय होता है.
कितनी बड़ी बात है.ये भौतिक प्रकृति सभी प्रकार के जीवों को उत्पन्न कर रही है.चर और अचर जीवों को.कुछ जीव जो चल पाते हैं और कुछ ऐसे भी जीव हैं जो चल नही पाते.जैसे कि पेड़-पौधे.चल नही पाते हैं.लेकिन फिर भी वो जीव हैं क्योंकि उनके अंदर आत्मा है.मैने आपको बताया भी था कि कैसे पहचानेंगे हम कि किसी चीज के अंदर आत्मा है.पहली चीज उसके अंदर चेतना होगी और दूसरी चीज कि वो चीज बढ़ेगी.वो वस्तु बढ़ेगी.तो पौधे भी बढ़ते हैं.उनके अंदर चेतना होती है.

तो चर और अचर जीवों को प्रकृति उत्पन्न करती है भगवान की अध्यक्षता में,भगवान की सहायता से.तो ये जरूरी नही है कि आप कहे कि अगर भौतिक प्रकृति में भगवान रहते हैं तो मुझे दिखते क्यों नही.देखिये ये ऐसा ही है जैसे कि मान लीजिए एक बहुत बड़ा उद्योगपति है.बहुत बड़ा उद्योगपति.उसको देश और अनेकानेक विदेशों में भी उसके अनेकानेक factories हैं.उसके नाम पर अनेकानेक factories हैं.तो हर factory में वो स्वयं मौजूद हो ये तो जरूरी नही.हो सकता है कि ऐसा व्यक्ति कभी भी किसी भी factory में न जाता हो.लेकिन बावजूद इसके उस factory में उत्पादन क्या होगा.किस प्रकार से लोग आयेंगे,काम करेंगे ये सारे नियम वही बनाता है.सब जानते हैं,काम करनेवाले जानते हैं कि ये factory किसकी है.मुनाफा किसको जाता है.हमारी salary कहाँ से आती है.सब जानते हैं.

इसीप्रकार से जो विद्वान लोग हैं वो जानते हैं कि भगवान ही हमें सबकुछ देते हैं.अन्न देते हैं,आश्रय देते हैं,हमारे साक्षी हैं और इस प्रकृति में हमें आरोपित भी भगवान ही करते हैं हमारे गुण और कर्म के अनुसार.तो ये बात जानने की है.भगवान कहते भी हैं:
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारुढानि मायया॥(भगवद्गीता,18.61)
कि मै माया के यंत्र पर सभी लोगों को चढा कर उन्हें घुमाता रहता हूँ और ये माया ही प्रकृति कहलाती है.या कह लीजिए कि प्रकृति ही माया कहलाती है.भगवान कहते भी हैं:

कि भई मेरी माया से पार पाना बहुत ही मुश्किल है.तकरीबन असंभव है लेकिन यदि हम भगवान की शरण ले ले तो हम माया को भी समझ पायेंगे और माया से पार भी हो जायेंगे.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा और हम चर्चा कर रहे हैं बहुत ही सुन्दर श्लोक पर:

मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरं ।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ॥(भगवद्गीता,9.10)
अर्थात् 

ये भौतिक प्रकृति जो मेरी अनेक शक्तियों में से एक है,ये मेरी ही अध्यक्षता में कार्य कर रही है और इस तरह से हे कुन्तीपुत्र ये सभी चर और अचर जीवों को उत्पन्न कर रही है.इस तरह इस जगत की बार-बार रचना होती है और बार-बार विनाश यानि कि प्रलय होता है.
सही बात है भगवान की ही अध्यक्षता में भौतिक प्रकृति कार्य कर रही है.ये बात आप भी समझे.भगवान के बगैर भौतिक प्रकृति जड़ है,निर्जीव है.वैसे ही जैसे आत्मा के बगैर ये शरीर निर्जीव है.तो देखिये भगवान इस भौतिक प्रकृति के जरिये अपनी कृपा बरसाते रहते हैं और इसी बात पर मुझे एक कहानी याद आती है.आपको सुनाती हूँ.कथा है बहुत सुन्दर-सी:
महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था.लाशों के ढ़ेरों के बीच हाथी के घंटे के नीचे सुरक्षित पक्षी के दो बच्चों को देखकर महर्षि शौनक से उनके शिष्यों ने पूछा कि गुरुवर बड़े-बड़े योद्धा नष्ट हो गए.तो ऐसे घोर संग्राम के बाद भी पक्षी के ये बच्चे जीवित हैं.महर्षि शौनक ने उन्हें ध्यान से देखा और फिर कहा कि हाँ,पक्षी के अंडे जमीन पर पड़े थे और गजराज का घंटा ऊपर से आ गया.बचाने वाले अंतर्यामी परमेश्वर की इच्छा से ही ऐसा हुआ है.उन्ही अण्डों से ये बच्चे निकले हैं.इन्हें आश्रम में ले चलो और इन्हें दाना-पानी दो.

शिष्यों ने जिज्ञासा जतायी कि गुरुवर! परमात्मा ने इन्हें ऐसे घोर जंग में भी सुरक्षित रखा है तो वही आगे भी इनकी रक्षा करेगा.हम क्यों इन्हें लेकर चले.ऋषि बोले कि जहाँ ये बात हमारे नजरों में आ गई.भगवान का काम वही पूरा हो गया.भगवान ने ही हमें यहाँ भेजा है ताकि इनके आगे की परवरिश हो सके.शिष्यों को दैव कृपा और मनुष्यों के कर्म का भेद समझ में आ गया.वे पक्षी के बच्चों को वहाँ से उठाकर आश्रम में ले आये और उनके लिए दाना-पानी का भी इंतजाम किया.

तो सुना आपने.ये हम जानते हैं कि भगवान जर्रे-जर्रे में हैं,कण-कण में हैं लेकिन आप ये मत सोचिये कि क्योंकि भगवान कण-कण में हैं तो अब मै कुछ नही करूँगा.भगवान तो हमारे लिए सबकुछ कर ही देंगे.आखिर पिता का फर्ज है कि वो अपने बच्चे के लिए सबकुछ करे.हम कुछ क्यों करे.

जी नही.भगवान ने हमें ये कर्म योनि दी है.भगवान की इच्छा है जैसे एक पिता की इच्छा होती है न कि उसके बच्चे सबल बने.अपने पैरों पर खड़े हो.इसीप्रकार से परमपिता परमेश्वर की ये इच्छा है कि उनके ये बच्चे यानि कि हम अपने पैरों पर खड़े हो.हम समझे कि हम यहाँ पर इस जगत में क्यों आये हैं और हमें यहाँ से कहाँ जाना चाहिए.क्या हमारा अंतिम ठिकाना होना चाहिए.क्या यहाँ बार-बार जन्म लेना उचित है.बार-बार मरण का मुख देखना उचित है.ये सारे सवाल हमें मथने चाहिए.

अगर ये सवाल हमें प्रभावित नही करते तो समझ लीजिए हमारा जीवन व्यर्थ चला जायेगा.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा और हम चर्चा कर रहे हैं बहुत ही सुन्दर श्लोक पर जिसका अर्थ है:
ये भौतिक प्रकृति जो मेरी अनेक शक्तियों में से एक है,ये मेरी ही अध्यक्षता में कार्य कर ही है और इस तरह से हे कुन्तीपुत्र ये सभी चर और अचर जीवों को उत्पन्न कर रही है.इस तरह इस जगत की बार-बार रचना होती है और बार-बार विनाश यानि कि प्रलय होता है.
तो यहाँ पर अंतिम पंक्ति में भगवान ने बताया कि ये जगत बार-बार सृजित होता है और बार-बार नष्ट होता है.सदा-सर्वदा ये जगत नही रहता है.कितनी बड़ी बात आपको बतायी और आप कहते हैं कि ये जगत मेरा हो जाए या मै इस जगत में सदा-सर्वदा रहूँ.आप ऐसा सोचते हैं.कोई भी नही सोचता कि कल को मै इस जहाँ से उठ के चला जाउंगा.कोई नही सोचता.जानते सब है लेकिन अपने विषय में मानना कोई नही चाहता.हैरानी की बात है मगर यही सत्य है.

लेकिन भगवान यहाँ आपको information दे रहे हैं कि ये जगत बार-बार सृजित होता है और बार-बार नष्ट भी हो जाता है.यानि कि बार-बार सृजन होता है तो बार-बार प्रलय आती है.और आप देखते हैं कि प्रलय के लिए कई बार एक शब्द का इस्तेमाल भी किया जाता है -क़यामत,क़यामत के दिनों में,क़यामत आयेगी.तो प्रलय एक ऐसा शब्द है,एक ऐसी धारणा है जिसे सभी स्वीकार करते हैं.सभी स्वीकार करते हैं कि प्रलय आयेगी ही आयेगी.
भूत्वा भूत्वा प्रलीयते 
बार-बार हम जन्म लेते हैं और बार-बार हमारे इस देह की मृत्यु होती है.आना-जाना लगा रहता है इस temporary जगत में.जब ये जगत सृजित होता है तो हम भी यहाँ आ जाते हैं.अपने गुण और कर्म के अनुसार के एक विशेष योनि में आ जाते है और फिर जब प्रलय आती है ,ये जगत खत्म हो जाता है तो भगवान हमारे आश्रयदाता बन जाते हैं.हम उनके शरीर में निवास करते हैं.उसके बाद फिर से जब भगवान material nature के ऊपर दृष्टिपात करते हैं तो हम दुबारा से जन्म लेते हैं.

तो ये सिलसिला चलता रहता है.ये सब भगवान के निर्देशन में होता है.उनकी अध्यक्षता में होता है.जो इसबात को समझ लेता है फिर उसे कुछ और समझने की जरूरत नही है.तब वो जानता है कि मुझे यहाँ-वहाँ भटक कर क्या मिलेगा.क्यों न मै अभी से ही अपना जीवन भगवान के नाम कर दूँ.ताकि भगवान मुझे इस अस्थायी जगत में आने से बचाए.

है न सही बात.अच्छी बात है और यकीन मानिए यही समझदारी की बात है.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा और अब बारी है आपके sms की.
SMS:शिलौंग से सोनम पूछती हैं कि प्रेमधारा जी ये बताईये कि लोग न चाहते हुए भी पाप क्यों करते हैं?
Reply:सोनम जी बहुत आसान-सी बात है.भगवान बताते हैं :
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम्‌ ॥(भगवद्गीता,3.37)
कि रजोगुण के प्रभाव में आकर के लोग अनेकानेक कामनाएँ करते हैं और जब कामनाएं पूरी नही होती तो क्रोध आता है.बस इन दोनों के चक्कर में लोग पाप कर बैठते हैं.इसीलिए रजोगुण को सतोगुण में बदलना ही बुद्धिमानी है.
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Tuesday, February 22, 2011

क्यों हैं हमारी इन्द्रियाँ इतनी बलशाली,कैसे करे इन पर नियंत्रण :Explanation by Maa Premdhara(102.6 FM)

Spiritual Program SAMARPAN On 19th Feb, 2011(102.6 FM)
कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा .नमस्कार.कैसे हैं आप?कभी-कभी आपने नोट किया होगा कि आप market जाते हैं और खास बजट के साथ जाते हैं कि भई इतने की ही shopping करेंगे.पर जब आप वहाँ पहुँचते हैं तो इतने चीजों पे दिल आ जाता है कि  cash खत्म हो जाने के बाद आप credit card निकाल कर इस्तेमाल करने लग जाते हैं.और जब घर आकर सामान को देखते हैं तो बाद में लगता है कि अरे कुछ चीजें तो शायद कभी काम न आये.जाने क्यों खरीद लिया.कभी-कभी ये भी देखा होगा कि डॉक्टर जिस चीज को खाने को मना करता है मन उसी चीज को खाने को करता है.ये जानते हुए भी कि ये चीज नुकसान देगी तो भी आप एक-दो कौर खा ही लेते हैं.है न.होता है न ऐसा.आप कुछ चीजें नही करना चाहे लेकिन फिर भी कर ही लेते हैं.

आखिर हम इतने समझदार लोग अजीब सा काम कैसे कर बैठते हैं.ये कौन है जो हमें इधर-उधर दौडता है.तो जवाब है - ये हैं आप की इन्द्रियाँ जो आप पर अपना कब्ज़ा किये रहती है.इन्द्रियों की शक्ति के बारे में भगवान कहते हैं

यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः ।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ॥(भगवद्गीता,2.60)
अर्थात्

हे अर्जुन ! इन्द्रियाँ इतनी बलवान है कि वह उस बुद्धिमान व्यक्ति के मन को भी हर लेती है जो इन्द्रियों को  काबू में करने का प्रयास कर रहा है.

तो इन्द्रियों की शक्ति.जब आप अपने आप को शीशे में देखते है तो आप महसूस नही कर पाते कि आपके चेहरे पर इतनी सारी  इन्द्रियाँ हैं वो आपको नचाती रहती हैं.आपको गुलाम बनाके रखती है.आपको पता ही नही चल पाता होगा.है न.जब आप अपनी आँखों को देखते हैं तो आप अपनी आँखों को सुन्दर बनाने के तरीके खोजते हैं.कैसे ये आँखें और भी चमकदार लगे.लेकिन आप समझ नही पाते कि आपकी ये आँखें आपको इस जगत में बारम्बार ले आती है.आपको पता नही चलता कि ये आँखें कैसे आपको घसीट के बारम्बार इस बेकार जगत में,बेकार इसलिए क्योंकि ये temporary है और दुखों से भरपूर है.
दुखालायम अशाश्वतम
ऐसा ये जगत है और यहाँ आप अपनी इन्द्रियों के demands के कारण आते हैं.क्योंकि आप पूरी उम्र अपनी इन्द्रियों की कई सारी demands को,कई सारी मांग को पूरा करते रहते हैं इसलिए आपकी इन्द्रियाँ आपको खींच करके बलात forcefully इस संसार में ले आकर पटक देती है.आपको पता ही नही चलता और आप सारी उम्र इन्द्रियों के पीछे भागते रह जाते हैं.है न.तो आईये आज कार्यक्रम में हम इन्द्रियों के बल के बारे में चर्चा करेंगे कि कैसे इन्द्रियाँ हमें अपना गुलाम बनके रखती हैं.
सुनते रहिये समर्पण.
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कार्यक्रम में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा और हम चर्चा कर रहे हैं एक सुन्दर श्लोक पर:
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः ।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ॥(भगवद्गीता,2.60)
अर्थात्
हे अर्जुन ! इन्द्रियाँ इतनी बलवान है कि वह उस बुद्धिमान व्यक्ति के मन को भी हर लेती है जो इन्द्रियों को  काबू में करने का प्रयास कर रहा है.

बड़ी सुन्दर बात.सोचिये कि कितनी बड़ी बात है कि हमें पता ही नही चलता कि हम मालिक नही गुलाम हैं और वो भी अपने इस जड़ शरीर के.हमारा ये शरीर जो कि विभिन्न इन्द्रियों से बना हुआ है.जिसमे विभिन्न इन्द्रियाँ हैं.दस इन्द्रियाँ हैं.पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं.पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं.इन इन्द्रियों के वश में हमारा मन रहता है.हमारा मन इन इन्द्रियों के पीछे दौडता है.मन के पीछे बुद्धि दौड़टी है और बुद्धि के पीछे हम दौड़ते चले जाते हैं.

तो यहाँ बताया है कि चलिए ये तो एक आम आदमी की बात है जो इन्द्रियों के पीछे दौडता चला जाता है.लेकिन  ऐसा व्यक्ति जो कि विपश्चितः है.विपश्चितः का अर्थ है :full of discriminating knowledge यानि कि ऐसा व्यक्ति जिसे ये पता है कि अच्छा क्या है और बुरा क्या है.मसलन कि जो ये जानता है कि चोरी करना पाप है.है न.लेकिन फिर भी वो चोरी करता है.क्यों?मसलन कि एक आदमी ये जानता है कि मुझे ब्लडप्रेशर है .ब्लडप्रेशर के कारण मुझे ज्यादा नामक नही खाना चाहिए.लेकिन फिर भी वो कहता है कि अरे खाना दिया है,थोडा-सा नमक तो लाके दो.हाँ.क्यों?वो तो जानता है.अच्छा,बुरा सब जानता है.हो सकता है कि उसकी उम्र 50 से ज्यादा हो.कई बार वो बच्चों को सीख देता है कि अरे ऐसा मत करो.ऐसा करोगे तो ये हो जायेगा.अरे अरे ये ऊँचाई पर मत चढो.गिर जाओगे.है न.वो जानता है परिणाम भी और वो जानता है ये परिणाम किस कार्य को करने से आया.दुष्परिणाम और सत्परिणाम सब जानता है.लेकिन फिर भी वो जिद कर बैठता है कि नही मुझे ये खाना है.नही मुझे ये चाहिए.क्यों?

इसका उत्तर तो भगवान यहाँ दे रहे हैं कि हे अर्जुन इन्द्रियाँ बहुत बलवान हैं.ये उस व्यक्ति,व्यक्ति भी ऐसा जो बुद्धिमान है ,उसके मन को भी हर लेती है जो इन्द्रियों को काबू में करने का प्रयास कर रहा है.इतने बुद्धिमान व्यक्ति भी इन्द्रियों की demands के चक्कर में आ ही जाते हैं.होता है है.पर ऐसा क्यों होता है.क्यों हमारी इन्द्रियाँ इतनी बलशाली हैं.किसने इन्हें इतना बलशाली बनाया.

आपने स्वयं अपनी इन्द्रियों को बलशाली बनाया.आपने स्वयं क्योंकि आप आत्मा हैं.आप इस शरीर में रहते हैं और आपकी शक्ति के कारण ही इन्द्रियाँ बलवान बनती हैं.आप जिसके कारण इन्द्रियाँ इतनी बलवान बनती है,आप भूल जाते हैं कि अरे ये तो जड़ है.मेरे बल से ये बलशाली है.तो मुझे ही कुछ करना चाहिए.मै इन्हें control में ला सकता हूँ.पर ऐसा करने के लिए आपको बहुत practice करने की जरूरत है.तो हम ये कैसे कर सकते हैं?क्या हम ये कर सकते हैं?इन सब पर चर्चा करेंगे कार्यक्रम समर्पण में.आप बने रहिये हमारे साथ.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा  और हम चर्चा कर रहे हैं बहुत ही सुन्दर श्लोक पर.

यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः ।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ॥(भगवद्गीता,2.60)
अर्थात्
हे अर्जुन ! इन्द्रियाँ इतनी बलवान है कि वह उस बुद्धिमान व्यक्ति के मन को भी हर लेती है जो इन्द्रियों को  काबू में करने का प्रयास कर रहा है.


यहाँ दो शब्दों पर ध्यान दीजिए.इन्द्रियाणि प्रमाथीनि जो कि आपको बहुत बुरी तरीके से विचलित कर दे. हरन्ति मतलब जो हर लेती है.प्रसभं मतलब by force यानि बलपूर्वक मनः.मन को हर लेती है.तो इन्द्रियाँ आपके मन को हर लेती है.आप कई बार कहते हैं न कि ओह ओह मै तो पढाई कर रहा हूँ पर मन ही नही लग रहा.क्यों?क्योंकि मै सोच रहा हूँ कि भई किचेन में क्या पक रहा होगा.कब मुझे मिलेगा.या मै सोच रहा हूँ कि टेलीविजन पर रात को नौ बजे ये फिल्म आनी है.मुझे वो देखना है.आप समझ रहे हैं.आप बैठे यहाँ हैं लेकिन सोच रहे हैं चार घंटे आगे की.

क्योंकि आपका मन इन्द्रियों ने हर लिया है.हो सकता है आपके पास बड़ी-बड़ी degrees हो लेकिन बावजूद इसके कई बार आप देखते हैं कि आप अपनी इन्द्रियों के हाथों हार जाते हैं.आपकी आँखें कहती हैं कि नही मुझे ये शो देखना ही है.तो आप जाते हैं.आप जानते हैं कि अरे ये time waste हो रहा है.exam है नही जाना है.लेकिन बावजूद इसके आप सोचते हैं कि कोई नही cover कर लेंगे और आप देख लेते है.तीन घंटे बर्बाद कर लेते है और शो देखते हैं.है न.तो आप अपनी आँखों के गुलाम बन गए.

देखिये बड़ा सुन्दर example है जैसे कि मछली होती है.मछली तो आपने देखी होगी.मछली जब पानी में होती है तो उसे एक मछुआरा कैसे पकड़ता है.जानते हैं?उसे पकडने वाली एक rod होती है.उसके अंतिम सिरे पर कुछ खाना-वाना लगा देता है.कुछ अनाज और मछलियाँ झट से उस अनाज को खाने के लिए ऊपर आती हैं और जैसे ही उस पर अपने दाँत गाडाती है वो फँस जाती हैं.तो मछली अपनी जीभ के कारण फँसती है.

और इसीतरह से जो हिरण होता है वो अपने कान के कारण फँसता है.जंगल में जो शिकारी होते हैं वो उसे बहुत सुन्दर संगीत सुनाते हैं.संगीत जब सुन्दर होता है तो उसकी धुन पर हिरण जो हैं वो एकदम मदमस्त हो जाते हैं.उन्हें पता ही नही चलता कि वो शिकारी की जाल में आ रहे हैं.बस वो वहाँ तक पहुंचते हैं और शिकारी उन्हें पकड़ लेता है.तो हिरण बेचारे अपने कान की वजह से फँस जाते हैं.

और जो ये पतंगे हैं.पतंगे आपने देखे होंगे.ये अपनी आँखों की वजह से मारे जाते है क्योंकि जब ये एक light को देखते हैं तो उसकी तरफ बढ़ चलते हैं.और फिर मोमबत्ती की रोशनी में,दीये की रोशनी में जल मरते हैं.

तो देखिये ये सब तो अपनी एक-एक विशिष्ट इन्द्रिय की वजह से मारे जाते हैं पर हमारे अंदर तो दस इन्द्रियाँ हैं.दस इन्द्रियों की demands कितनी ज्यादा होती है.तो सोचिये इंसान का कितना बुरा हाल होता होगा.कैसे वो अपने जीवन लक्ष्य तक पहुँच सकता है.नही पहुँच सकता.उसे अपनी इन्द्रियों को वश में करना ही होगा.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा और हम चर्चा कर रहे हैं बहुत ही सुन्दर श्लोक जिसका अर्थ है:

हे अर्जुन ! इन्द्रियाँ इतनी बलवान है कि वह उस बुद्धिमान व्यक्ति के मन को भी हर लेती है जो इन्द्रियों को  काबू में करने का प्रयास कर रहा है.

तो इन्द्रियों के बल के बारे  में भगवान चर्चा करते हैं कि भई आप ये मत सोचिये कि आप दूध पीकर के इतने बलवान हो गए कि आप किसी को भी पटकनी दे सकते हैं.मार सकते हैं.हरा सकते है.आप अपनी इन्द्रियों के गुलाम हैं.ये निर्जीव इन्द्रियाँ जिन्हें बल भी आपके कारण मिला है.ये तो आपको पटक देती हैं.आपको आपके जीवन लक्ष्य से भटका देती हैं और आपको पता भी नही चलता.है न मजे की बात.

जैसे कि खुजली.जब कही खुजली उठती है तो आप उसे खुजलाते हैं.जब आप उस जगह को खुजलाते हैं तो पहले-पहले बड़ा आनंद आता है.अच्छा लगता है.लेकिन आप उसे खुजलाते जाते हैं तो थोड़ी देर में वहाँ घाव बन जाता है.अगली दफा आप वहाँ खुजला नही पाते.है न.इसीप्रकार से होती है इन्द्रियों की बेशुमार demands.इन demands को पूरा करने में पहले-पहले मजा आता है और बाद में यही भवरोग का कारण बन जाता है.क्योंकि जब आप इन्द्रियों की demands को पूरी नही कर पाते हैं तो अंत समय में आपको अफ़सोस रह जाता है और इसी अफ़सोस के कारण,इस इच्छा के कारण आप इस भवबंधन को काटना नही चाहते.आप अपनी इन्द्रियों की demands को पूरी नही कर पाए.आप जीभ की मांग को पूरी नही कर पाए,आप अपनी कान की मांग को पूरी नही कर पाए.

ये सारा जो अफ़सोस है ये मजबूर करता है भगवान को कि वो आपको दुबारा से इस भवसागर में लेकर के आये.आपको इक और मौका दे कि आप अपनी इन्द्रियों की मांगों को पूरा कर सके.तो वस्तुतः आप ही कारण है कि आप इस भौतिक संसार में क्यों हैं?वरना आपको इस भौतिक संसार में होना नही था.जैसा कि एक श्लोक है :

चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्‌ ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्‌ ॥(भगवद्गीता,6.34)
यानि कि हे भगवान ये इन्द्रियाँ तो बहुत चंचल है.ये तो बहुत ही चंचल है.ये इतनी बलशाली हैं कि मै इन्हें control में नही कर पाता.मै हवा को जरूर मुट्ठी में बाँध सकता हूँ.अगर कोई कहे कि बही मैंने हवा को मुट्ठी में बाँध लिया तो विश्वास कर लूँगा लेकिन यदि कोई कहे कि मैंने सारी इन्द्रियों को control कर लिया है.अब इन्द्रियों से मै बिल्कुल नही डरता.अब इन्द्रियों की demands बिल्कुल पूरी नही करता.इन्द्रियों को अपने इशारे पर नचाता हूँ तो ये मै विश्वास नही कर सकता हूँ.जैसे कि वायु को control करना बहुत मुश्किल है.उसीप्रकार से इन्द्रियों को अपने वश में करना बहुत मुश्किल है.


तो क्या सच में हम इन्द्रियों के गुलाम बन के रह जाए.क्या यही हमारी नियती है.या इसके छूटने का कोई विकल्प है हमारे पास.तो बने रहिये हमारे साथ.हम चर्चा करेंगे इसी कार्यक्रम में.समर्पण में.सुनते रहिये समर्पण.
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Friday, February 18, 2011

भगवान को समर्पित कैसे हुआ जाए::Explanation by Maa Premdhara(102.6 FM)

Spiritual Program SAMARPAN On 19th Feb, 2011(102.6 FM)
कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा .
निर्मानमोहा जितसङ्गदोषाअध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः ।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसञ्ज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्‌ ॥(भगवद्गीता,15.5)
अर्थात्
जो लोग झूठी प्रतिष्ठा,मोह से मुक्त हैं.जो झूठे संग से मुक्त हैं.जो शाश्वत को समझते हैं.जो भौतिक लोभ पर विजय पा चुके हैं.जो सुख-दुःख जैसे द्वंद से परे हैं,जो अविचलित हैं, वे ही जानते हैं कि परम भगवान को कैसे समर्पित हुआ जाये ताकि हमें उनका शाश्वत धाम मिल सके.

तो देखिये बहुत सुन्दर जानकारी भगवान आपको यहाँ देते हैं.हम सब चाहते हैं कि इस भौतिक जिंदगी में हम सदा बने न रहे.कोई भी इस भौतिक संसार में हमेशा आना नही चाहता.खास तौर से वो लोग जो विद्वान हैं.जो अध्यात्म में बढे-चढ़े हैं.जिन्हें मालूम है कि हम आत्मा हैं,हम शरीर नही हैं.

ऐसे लोग हमेशा,हमेशा ये चाहेंगे कि उन्हें एक ऐसा जीवन मिले जो शाश्वत हो.जो जन्म,मृत्यु,जरा,व्याधि से ग्रस्त न हो.जहाँ बार-बार जन्म का दर्द न सहना पड़े.जहाँ बार-बार मृत्यु की पीड़ा न सहनी पड़े.जहाँ बार-बार व्याधियों की,बीमारियों की पीड़ा नही सहनी पड़े.जहाँ अनिश्चितताएँ न हो.जहाँ हम rat race से दूर हो सके.जहाँ शांति हो.

हर कोई ऐसा जीवन चाहता है और जब ये जानकारी भगवान देते हैं कि हाँ ऐसा जीवन है.इसे आप प्राप्त कर सकते हैं बशर्त्ते आप परम भगवान को समर्पित हो जाए तब.तो भगवान को समर्पित कैसे हुआ जाता है.आज का ये श्लोक इन्ही बातों पर प्रकाश डालेगा.आप रहिये हमारे साथ और सुनते रहिये कार्यक्रम समर्पण.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा और हम चर्चा कर रहे हैं एक बहुत ही सुन्दर श्लोक पर:
निर्मानमोहा जितसङ्गदोषाअध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः ।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसञ्ज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्‌ ॥(भगवद्गीता,15.5)
अर्थात्
जो लोग झूठी प्रतिष्ठा,मोह से मुक्त हैं.जो झूठे संग से मुक्त हैं.जो शाश्वत को समझते हैं.जो भौतिक लोभ पर विजय पा चुके हैं.जो सुख-दुःख जैसे द्वंद से परे हैं,जो अविचलित हैं, वे ही जानते हैं कि परम भगवान को कैसे समर्पित हुआ जाये ताकि हमें उनका शाश्वत धाम मिल सके.


 तो देखिये हम में जो सबसे बड़ी कमी है वो है झूठी प्रतिष्ठा की.हर व्यक्ति काम करता है ताकि उसे एक प्रतिष्ठित जीवन जीने का मौका मिल सके.हर कोई प्रतिष्ठा पाने की भरपूर कोशिश करता है.यश पाने की भरपूर कोशिश करता है.है न.हर कोई.ये जो हमारा nature है अहंकार का,pride जिसे कहते हैं घमंड.ये जो घमंड है ये हमें रोकता है कि हम अपने आप को देख सके.हम अपने आप को देख नही पाते.घमंड एक पर्दा बन जाता है और ये प्रतिष्ठा झूठी होती है.ये आप जानते हैं.

किसी को झूठी प्रतिष्ठा चाहिए कि वो एक बहुत बड़ा वकील है.वकील हो गए.आगे प्रतिष्ठा चाहिए कि आपका नाम देश में ही नही विदेशों में भी है.आप किसी बहुत बड़ी association के president भी हैं.लोग आपसे discuss करने आते हैं.ऐसी-ऐसी प्रतिष्ठा और इसे पूरा करने के लियी आदमी मनुष्य जीवन को बर्बाद करता चला जाता है.

पढ़ाई की शुरुआत से ले करके कैरियर के अंत तक उसकी ये भरपूर कोशिश होती है कि मै The Best Lawyer बन जाऊं.ये मैंने आपको एक example दिया Lawyer का.लेकिन आप अपनी-अपनी fields में देखिये जहाँ भी सबसे बड़ा point है,highest point प्रतिष्ठा का,आप उस point को प्राप्त करना चाहते हैं.है न सही बात.

तो जो लोग झूठी प्रतिष्ठा में लिप्त हैं वो भगवान को भला कहाँ खोज सकते हैं.कहाँ पा सकते हैं.भगवान के बारे में कहाँ सोचा जा सकता है.कहाँ उनके अंदर ये feelings आयेंगी,ये अहसास जन्म लेगा कि हाँ ये प्रतिष्ठा जिसके पीछे मै भाग रहा हूँ maximum मेरे साथ सत्तर-अस्सी साल रहेगी और उसके बाद जब मेरी मृत्यु हो जायेगी तो मै हूँ नही, मै था बन जाऊँगा.जब मै था बन जाऊँगा,अतीत बन जाऊँगा तो भला कौन पूछेगा मुझे.फिर मेरी जगह कोई और ले लेगा.कोई और आ जायेगा.कोई और The Best बन जाएगा.तो मैंने क्या पाया.मैंने सिर्फ झूठी प्रतिष्ठा पायी.ये जो झूठ था.

झूठ इसलिए क्योंकि ये असत है सत् नही है.ये हमारे साथ नही जाता.याद रखिये.
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