Monday, March 7, 2011

क्या सच में गृहस्थी में रहकर भक्ति करना असंभव है?क्या भगवान से अपना संबंध बनाने के लिए अपना घर-बार छोडना जरूरी है?:Explanation by Maa Premdhara(102.6 FM)

Spiritual Program SAMARPAN On 5th March, 2011(102.6 FM)
कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा .नमस्कार.कैसे हैं आप.एक बार की बात है पड़ोस की एक बहू ने मुझसे कहा कि मै अपनी सास से बहुत परेशान हूँ.वो बात-बात पर झगड़ा करती है.कभी मेरी cooking में दोष निकालती है तो कभी सफाई में दोष देखती है.कभी बच्चे के पालन-पोषण को लेकर ताने देते रहती है.समझ ही नही आता क्या करूँ.थोड़ी देर बाद उनकी सास मुझे मिली.मैंने पूछा कि कैसी हो?तो उन्होंने भी रोना शुरू कर दिया.अजीब आलसी बहू मिली है.घर का काम ठीक से नही करती.बच्चे को ठीक से नही खिलाती और जाने क्या-क्या.

मैंने उनसे कहा कि अब आपकी उम्र हो गई है.कुछ भक्ति कर लो.शांति मिलेगी.ये सुनते ही सासू जी तपाक से बोल उठी कि अरे भई!हम तो गृहस्थ हैं.गृहस्थी में भला कहाँ भक्ति होगी.अब घर-बार देखे कि भगवान के बारे में सोचे.अब भई बहू जब समझदार हो जायेगी तब देखेंगे.

उनकी बात सुनकर मै सोच में पड़ गई.क्या सच में गृहस्थी में रहकर भक्ति करना असंभव है?क्या भगवान से अपना संबंध बनाने के लिए अपना घर-बार छोडना जरूरी है?आमतौर पर लोग यही सोचते हैं कि गृहस्थी में रहकर हरिचिंतन नही किया जा सकता.तो आखिर क्या है भक्ति?किस तरह से हम अपने गृहस्थ धर्म को निभाते हुए भक्ति कर सकते हैं?यही सब आपको बताएगा हमारा आज का श्लोक.ध्यान से सुनिए:
गृहेष्वाविशतां चापि पुंसां कुशलकर्मनाम् |
मद्वार्तायातयामानां न बंधाय गृहा मताः ||(श्रीमद्भागवत,4.30.19)
अर्थात्
जो लोग भक्ति जैसे शुभ कार्य में लगे हैं वो निश्चित रूप से समझते हैं कि प्रत्येक क्रियाकलाप के अंतिम भोक्ता भगवान हैं.ऐसे लोग अपने सभी कर्मों के परिणामों को भगवान को अर्पित कर देते हैं और अपना जीवन भगवद कथा की चर्चा में बिता देते हैं.ऐसे लोग बेशक गृहस्थ हो पर फिर भी वो अपने कर्मों के परिणाम से नही बंधते.

तो देखा भगवान ने कितनी सुन्दर बात यहाँ भी आपको बतायी है.देखो भगवान जो कुछ आपको बताते हैं वो सदा सुन्दर ही होता है.सत्यम शिवं सुन्दरं.ये सब कुछ भगवान के aspects हैं.तो भगवान स्वयं सुन्दर हैं और जो कुछ वो कहते हैं वो आपके लिए बहुत ही कल्याणप्रद होता है.और भगवान यहाँ ये घोषणा करते हैं कि यदि आप गृहस्थ जीवन को निभा रहे हैं लेकिन यदि गृहस्थ जीवन को निभाते समय आप भगवान में डूबे रहे,भगवान को याद रखे,भगवान को शुक्रिया कहना सीखे,भगवान को अपने कर्मों के समस्त परिणाम अर्पित कर दे,अपने कर्म तक अर्पित कर दे तो आपको ये कर्म कभी बाँध नही सकेंगे और गृहस्थ जीवन आपके लिए बोझ नही होगा.तब गृहस्थी आपके लिए एक माध्यम हो जायेगी भगवान तक पहुँचने के लिए.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा और हम चर्चा कर रहे हैं बहुत ही सुन्दर श्लोक पर.श्लोक एक बार फिर से आपके लिए:
गृहेष्वाविशतां चापि पुंसां कुशलकर्मनाम् |
मद्वार्तायातयामानां न बंधाय गृहा मताः ||(श्रीमद्भागवत,4.30.19)
अर्थात्
जो लोग भक्ति जैसे शुभ कार्य में लगे हैं वो निश्चित रूप से समझते हैं कि प्रत्येक क्रियाकलाप के अंतिम भोक्ता भगवान हैं.ऐसे लोग अपने सभी कर्मों के परिणामों को भगवान को अर्पित कर देते हैं और अपना जीवन भगवद कथा की चर्चा में बिता देते हैं.ऐसे लोग बेशक गृहस्थ हो पर फिर भी वो अपने कर्मों के परिणाम से नही बंधते.

तो यहाँ भगवान कहते हैं कि जो लोग भक्ति जैसे शुभ कार्य में लगे हैं.देखा जाए तो शुभ कार्य इस जगत में सिर्फ एक ही है और वो है भक्ति.भक्ति ही एकमात्र शुभ कार्य है और बाकी जो कुछ भी हम करते हैं वो शुभ नही है.शुभ का उल्टा क्या हुआ?अशुभ.

आप कहेंगे अच्छा!हम नौकरी जाते हैं.हम कमाते हैं,क्या अशुभ है.हाँ,हाँ,अशुभ है.यदि आप ये सब अपने लिए करते हैं तो ये अशुभ है.लेकिन यदि आप ये सब भगवान के लिए करते हैं तो सुबह है,भक्ति है.यानि कि जब आप भगवान को बीच में लाकर के कोई भी काम करते हैं.भगवान के लिए तो वो शुभ हो जाता है.अन्यथा वो अशुभ है.जब आप भगवान को हाशिए पर रख देते हैं.अपनी जिंदगी से delete कर देते हैं तब जो कुछ भी आप करते हैं वो अशुभ है,असत् है और आपको एक असत् platform पर वो चीज लाकर खड़ा कर देती है.

असत्.क्या है असत्?वो चीज जो temporary है,शाश्वत नही है,अशाश्वत है.नित्य नही है,अनित्य है.जैसे कि ये जगत,जैसे कि आपका शरीर.जैसे कि आपके रिश्ते नाते.जैसे कि आपका घर-बार.जैसे कि आपकी नौकरी-चाकरी.जैसे कि आपकी factories आपका business.आपका ये जीवन.ये सब कुछ temporary है,temporary.please समझने की कोशिश कीजिये.

और जब आप दुबारा से जन्म लेंगे.दुबारा से आपको ये सब चीजें शुरुआत से बटोरनी पड़ेगी.फिर से पढाई करनी पड़ेगी.फिर से डिग्री लेनी पड़ेगी.फिर से नौकरी ढूंढनी पड़ेगी.फिर से सब कुछ वही करना पड़ेगा जो इस जन्म में आपने किया.

तो क्या है ये सब.अशुभ.लेकिन जो लोग भक्ति करते हैं.भगवान की भक्ति में.प्रेमाभक्ति में जुटे रहते हैं वो शुभ है.क्यों?क्योंकि भगवान कहते हैं:

नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवातो न विद्यते ।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्‌ ॥(भगवद्गीता,2.40)

क्योंकि भक्ति करने से आपकी महान भय से रक्षा होती है.आपको दुबारा जन्म-मृत्यु का मुख नही देखना पड़ता.आपकी जो ये आत्मा यानि कि जो आप हैं.उसको जानवरों के शरीर धारण नही करने पड़ते.चौरासी लाख योनियों में नही जाना पड़ता.लेकिन भगवान से अलग हो करके जो कुछ आप करते हैं वो सब आपको चौरासी लाख योनियों में वापस ला पटकती है.

तो  बताईये आप ही कौन शुभ है और कौन अशुभ.जी हाँ,भक्ति शुभदा है,परम शुभ है.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा और हम चर्चा कर रहे हैं बहुत ही सुन्दर श्लोक पर जिसका अर्थ है:
जो लोग भक्ति जैसे शुभ कार्य में लगे हैं वो निश्चित रूप से समझते हैं कि प्रत्येक क्रियाकलाप के अंतिम भोक्ता भगवान हैं.ऐसे लोग अपने सभी कर्मों के परिणामों को भगवान को अर्पित कर देते हैं और अपना जीवन भगवद कथा की चर्चा में बिता देते हैं.ऐसे लोग बेशक गृहस्थ हो पर फिर भी वो अपने कर्मों के परिणाम से नही बंधते.

तो ये श्लोक बहुत सुन्दर जानकारी आपको देता है.Art of living.कैसे जीना है आपको.जीवन शैली कैसी होनी चाहिए कि आप कभी भी न बंधे.कोई बंधन आपको बाँध न सके और आप इस जीवन में भी मुक्त कहलाये जाए.क्या है वो विधि?तो भगवान कहते हैं कि एक ही विधि है-मेरी भक्ति.आप मेरा आश्रय ग्रहण करे और ये जान ले कि समस्त क्रियाकलापों का अंतिम भोक्ता मै हूँ यानि भगवान हैं.और अगर आप ये बात नही जानते कि समस्त यज्ञों का,समस्त कार्यों के अंतिम भोक्ता सिर्फ भगवान हैं तो भगवान कहते हैं कि 
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते ॥(भगवद्गीता,9.24)
अर्थात् 
वो लोग मुझे तत्त्व रूप से नही जानते हैं इसीलिए उनका पतन हो जाता है.तत्त्व क्या है?यही एक मात्र तत्त्व है कि सबकुछ भगवान से उत्पन्न होता है और इसीलिए सबकुछ भगवान का है.याद रखिये सब कुछ भगवान का है.सबकुछ मेरा नही है.आपका नही है.लेकिन हमलोग साँप की तरह कुंडली मारकर इस जगत में बैठे हुए हैं.ये मेरा है.ये धन मेरा है.ये व्यवसाय मेरा है.ये बच्चे मेरे है और ये मेरा,मेरा,मेरा करते हुए हम पूरी कोशिश करते हैं  कि इसमे किसी और को नही आने दे.ये सारा-का-सारा जो खेल है.ये सारा-का-सारा खेल जो आपने रचा है आप सोचते हैं कि बस आप ही उसके controller हो , empire हो.इसमे से आप भगवान को एकदम भूल जाते हैं.

लेकिन जब वो खेल बिगड़ने लगता है,कुछ गडबड होने लगती है तब आपको याद आती है भगवान की.जब आप दुखी हो जाते हैं तब आप भगवान की तरफ मुड़ते हैं.ठीक है.लेकिन तो भी आप थोड़े-ही समय के लिए मुड़ते हैं.जब फिर से स्थिति ठीक हो जाती है,बेहतर हो जाती है आप फिर से भगवान को हाशिए पर रख देते हैं.अलग कर देते हैं अपने आप से.तो ये बहुत बड़ा अपराध है.

लेकिन जो लोग भक्ति कर रहे हैं.जो लोग भगवान की प्रेमपूर्वक सेवा कर रहे हैं,भगवान के बारे में सुनते आ रहे हैं,श्रवण भक्ति कर रहे हैं वो लोग जानते हैं कि मै जो कुछ भी कर रहा हूँ वो भगवान की दी हुई शक्ति की वजह से कर रहा हूँ.जो भी सुनहरे मौके मेरे पास आ रहे हैं भगवान की दी हुई शक्ति की वजह से,उनकी कृपा से आ रहे हैं.जो भी कष्ट मेरा मिट रहा है वो ईश्वर की अहैतुकी कृपा से मिट रहा है.

तो जो लोग ये बात समझते हैं वो अपने सभी कर्मों के परिणामों को भगवान को अर्पित कर देते हैं और तब उनका जीवन सुन्दर हो जाता है.शांत हो जाता है.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा और हम चर्चा कर रहे हैं बहुत ही सुन्दर श्लोक पर:
गृहेष्वाविशतां चापि पुंसां कुशलकर्मनाम् |
मद्वार्तायातयामानां न बंधाय गृहा मताः ||(श्रीमद्भागवत,4.30.19)
अर्थात्
जो लोग भक्ति जैसे शुभ कार्य में लगे हैं वो निश्चित रूप से समझते हैं कि प्रत्येक क्रियाकलाप के अंतिम भोक्ता भगवान हैं.ऐसे लोग अपने सभी कर्मों के परिणामों को भगवान को अर्पित कर देते हैं और अपना जीवन भगवद कथा की चर्चा में बिता देते हैं.ऐसे लोग बेशक गृहस्थ हो पर फिर भी वो अपने कर्मों के परिणाम से नही बंधते.

तो देखिये गृहस्थ होना अपराध नही है.गृहस्थ होना पाप नही है.गृहस्थ होना कोई बाधा नही है.लेकिन गृहस्थी में बुद्धि लगाये रखना.घर में अपनी बुद्धि का निवेश करना.ये गडबड है.ये अपराध है.गृहस्थ का तो अर्थ ही ये है कि भाई आपका घर-बार हो और घर-बार का जो केंद्रबिंदु हो वो भगवान हो.बच्चे भगवान को पूजे,स्त्री भगवान को पूजे.माँ-बाप भगवान को पूजे.भगवान के लिए ही आपके समस्त कर्म हो.ये होता है गृहस्थ आश्रम जहाँ भगवान केंद्रबिंदु रहते हैं.

लेकिन गृहमेधी वो कहलाते हैं जिनकी मेधा,जिनकी बुद्धि अपनी घर-बार को भरने में लगी रहती है.कैसे मै अपने परिवार का अच्छा पोषण करूँ.कैसे मै इन्हें और healthy बनाऊं,कैसे मै और,और,और बटोरूँ.कैसे मै rich हो जाऊं.जो यही सोचता रहता है वो गृहमेधी कहलाता है और ऐसे सोच से,ऐसे कर्म से वो बंध जाता है.इसलिए दुबारा उसे जन्म लेना पड़ता है.

लेकिन यहाँ भगवान कहते हैं:
न बंधाय गृहा मताः
ऐसे लोग जो मेरी वार्त्ता में तल्लीन हैं,मेरे बारे ने चर्चा करते हैं,मेरी कथा कहते-सुनते रहते हैं.
मय्यासक्तमनाः पार्थ (भगवद्गीता,7.1)
जिनका मन मुझमे आसक्त है,ऐसे लोग चाहे गृहस्थ ही क्यों न हो,बाल-बच्चों के संग ही क्यों न रहते हो,वे सबका भरण-पोषण ही क्यों न करते हो और इनके लिए नौकरी ही क्यों न करते हो मगर ऐसे लोग कभी भी ये सब काम करते हुए बंधते नही.क्यों नही बंधते?

क्योंकि देखिये ये जो मन है न मन.जो आपके अंदर रहता है.आपका मन,यही बाँधता है और यही छुटकारा दिलाता है.यदि घर की चाहरदीवारी में लगा रहेगा,घर के काम-काज में लगा रहेगा,घर के लोगों में लगा रहेगा और भगवान के पास नही जाएगा तो आपको  कभी छुटकारा भी नही दिलाएगा.किसी-न-किसी रूप में आप यहाँ आते ही रहेंगे.लेकिन यदि मन भगवान का हो गया.भगवान को surrendered हो गया.याद रखना समर्पण शरीर का नही होता.समर्पण मन का होता है.संन्यास शरीर का नही होता संन्यास मन से होता है.

अगर मन आपका सन्यासी हो जाए तब आप गृहस्थी में रहा भी करे तो क्या फर्क पड़ता है.अपने मन से अपने समस्त कर्मों और उसके परिणामों को भगवान को अर्पित कर दीजिए.उनकी कथाओं में दिलचस्पी पैदा कीजिये.उनकी कथाओं को कहना और सुनना अपने जीवन का लक्ष्य बना लीजिए.

देखिएगा आप कभी-भी,कभी-भी बंधेंगे नही.हमेशा मुक्त रहेंगे.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा और हम चर्चा कर रहे हैं बहुत ही सुन्दर श्लोक पर जिसका अर्थ है:
जो लोग भक्ति जैसे शुभ कार्य में लगे हैं वो निश्चित रूप से समझते हैं कि प्रत्येक क्रियाकलाप के अंतिम भोक्ता भगवान हैं.ऐसे लोग अपने सभी कर्मों के परिणामों को भगवान को अर्पित कर देते हैं और अपना जीवन भगवद कथा की चर्चा में बिता देते हैं.ऐसे लोग बेशक गृहस्थ हो पर फिर भी वो अपने कर्मों के परिणाम से नही बंधते.

कितनी सही बात भगवान आपको बताते हैं.जीवन में रहते हुए जीवन से दूर.बंधन में रहते हुए आजादी की साँस लेना.ये सब कुछ,तरीका भगवान आपको बता रहे हैं कि कैसे आप इस जीवन में ही मुक्त हो सकते हैं.लेकिन हमलोग बहुत सारे बहाने बनाते हैं.अरे अभी तो हम पढाई कर रहे हैं.अभी तो हमे घर-बार देखना है.अभी तो हमें ये करना है वो करना है.

ऐसे ही किसी दिन एक व्यक्ति महात्मा के पास पहुँचा और कहने लगा कि महात्मन जीवन तो थोड़े समय का है.इस थोड़े-से समय में क्या-क्या करूँ.बचपन में ज्ञान नही होता.जवानी में गृहस्थी का बोझ होता है.बुढ़ापा रोगग्रस्त और पीड़ादायक होता है.तब भला ज्ञान कैसे मिले.भक्ति कब की जाए.ये कहकर वो रोने लगा और उसे रोते देखकर महात्मा जी भी रोने लगे.

उस आदमी ने पुछा कि अरे महात्मा जी आप क्यों रोते हैं?महात्मा जी ने कहा कि क्या करूँ.खाने के लिए अन्न चाहिए.लेकिन अन्न उपजाने के लिए मेरे पास जमीन नही है.परमात्मा के एक अंश में माया है.माया के अंश में तीन गुण हैं.हवा के एक अंश में आकाश है.आकाश में थोड़ी-सी वायु है.वायु में बहुत आग है.आग के एक भाग में पानी है.पानी का शतांश पृथ्वी है.पृथ्वी के आधे हिस्से पर पर्वतों का पथरा है.जमीन पर जहाँ देखो नदियाँ बिखरी पडी है.मेरे लिए तो भगवान ने जमीन का एक नन्हा-सा टुकड़ा भी नही छोड़ा.थोड़ी-सी जमीन थी उस पर भी दूसरे लोगों ने अधिकार जमा लिया.अब तुम ही बताओ मै भूखा नही मरूंगा?

तब उस व्यक्ति ने कहा कि अरे ये सब होते हुए भी तो आप जीवित हैं फिर रोते क्यों हिया.इसपर महात्मा ने तुरंत उत्तर दिया कि अरे भाई तुम्हे भी तो समय मिला है.बहुमूल्य जीवन मिला है.फिर समय न मिलने की बात कहकर क्यों हाय,हाय करते हो.सभी को एक जैसा ही समय मिला है.वही चौबीस घंटे.

तो इसी चौबीस घंटे में से भगवान के लिए समय निकालना है.यदि आप इन्ही चौबीस घंटो में से हर पल,हर क्षण अपने मन को भगवान के साथ जोड़ ले और अपने तन को बेशक विविध कार्यों में लगाए.समस्त कार्यों में लगाए ताकि कोई आपसे ये शिकायत न करे कि भाई आपने देखिये ये काम नही किया.अपने वो काम नही किया.ये भक्ति-वक्ती क्या करते हैं.भक्ति करनेवाले क्या आलसी हो जाते हैं?

देखना ये इल्जाम अपने ऊपर मत लेना क्योंकि जो लोग भक्त होते हैं,वो बहुत कर्मठ होते हैं.अपने समस्त कायों को बहुत ही मुस्तैदी से करते हैं.लेकिन हाँ,मन का attachment भगवान के साथ रखते हैं.बस यही सूत्र आप याद रखिये और आप देखेंगे कि आप कितनी आसानी से जिंदगी की समस्त बाधाओं को पार करते चले जायेंगे.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा और हम चर्चा कर रहे हैं बहुत ही सुन्दर श्लोक पर:
गृहेष्वाविशतां चापि पुंसां कुशलकर्मनाम् |
मद्वार्तायातयामानां न बंधाय गृहा मताः ||(श्रीमद्भागवत,4.30.19)
भगवान कहते हैं कि 
जो लोग भक्ति जैसे शुभ कार्य में लगे हैं वो निश्चित रूप से समझते हैं कि प्रत्येक क्रियाकलाप के अंतिम भोक्ता भगवान हैं.ऐसे लोग अपने सभी कर्मों के परिणामों को भगवान को अर्पित कर देते हैं.
देखिये यहाँ जब बात आती है न सभी कर्मों के परिणामों को तो तन,मन,धन सबको.सबको भगवान को अर्पित कर देते हैं और अपना जीवन भगवान की कथाओं में बिताते हैं.काठों को सुनने में.कथाओं को कहने में.जब महात्मा लोगों से भक्त लोग कथा सुनते हैं.भगवान के बारे में चर्चा सुनते हैं तो वही चर्चा वो बाकी लोगों से करते हैं ताकि बाकी लोगों का जीवन भी सुधर जाए और ऐसे लोग दिखाई तो देते हैं गृहस्थ लेकिन होते हैं महात्मा  क्योंकि भगवान कहते हैं न कि जो महात्मा हैं वो दैवीम प्रकृतिमाश्रिताः हैं यानि वो भगवान की भौतिक प्रकृति में अवस्थित नही है.वो भगवान की दैवीय प्रकृति में रहते हैं.

जो भगवान से जुड गया.सोचिये.जो भगवान से जुड गया,वो भौतिक भला रहा कहाँ.उसका शरीर जरूर भौतिक दिखाई देता है.लेकिन क्योंकि उसका मन आध्यात्मिक हो गया है.इसलिए उसके शरीर के सारे अवयव भी आध्यात्मिक हो गए हैं.भगवान कहते भी तो हैं:

मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्‌ ।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥(भगवद्गीता,10.9)
भगवान कहते हैं कि जो लोग अपने चित्त को,अपने कान को मेरी कथाओं में लगा लेते हैं.मुझमे लगा लेते है उन्हें फिर मेरे अलावा कुछ सुझाई नही देता.वो सिर्फ मेरे बारे में सुनते हैं.और सुनना चाहते हैं,और सुनना चाहते हैं.सुनने की ये प्यास कभी बुझती ही नही.भडकती रहती है और ये प्यास भडके इसी में आपका जीवन सार्थक है.अगर प्यास है नही तो इसे पैदा कीजिये.

तो भगवान कहते हैं कि ऐसे लोग जब आपस में मिलते हैं.बेशक वो गृहस्थ हैं लेकिन जब आपस में मिलते हैं तो वो भक्त भगवान की चर्चा में अपना समय बिताते हैं.उन्हें भगवान के बारे में कहने-सुनने में बहुत मजा आता है और इसी में वो रमण करते हैं.उसी में उन्हें तुष्ट करते हैं.जिनको भगवान में तुष्टि मिलती है,भगवान की कथाओं में तुष्टि मिलती है वो भला इन दुनियावी साजोसामान में कहाँ तुष्ट हो पायेगा.ये सब तो उसे बिल्कुल-बिल्कुल शुष्क नजर आयेंगे.कही से कोई interest पैदा ही नही होगा.यकीन मानिये.

तो आपको बस अपना स्वाद बदलना है.बाकी कुछ तो भगवान बदल ही देंगे.याद रखिये.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा और अब बारी है आपके sms को कार्यक्रम में शामिल करने की.
SMS : ये पहला sms भेजा है न जाने कहाँ से,न जाने किसने लेकिन बहुत important sms है इसलिए मैंने इसे शामिल किया है.कहते हैं:
प्यार तो हम भी लोगों से करते हैं पर हमारे प्यार में और एक संत के प्यार में क्या अंतर है?
Reply: देखिये आपने सवाल बहुत अच्छा पूछा है.आप जब लोगों से प्यार करते हैं तो मोह से बंधकर करते हैं,आसक्त होकर के करते हैं लोगों से प्यार और कही-न-कही से उसमे आप अपना स्वार्थ भी देखते हैं.याद रखियेगा.
लेकिन एक संत जब लोगों से प्यार करता है तो वो लोगों में भगवान की उपस्थिति में देखता है.देखता है कि ये सब भगवान के अंश हैं और इनमे भगवान विराजते हैं.और जब वो लोगों से प्यार करता है तो वो लोगों को भगवान का संदेश भी देता है.सिर्फ प्यार ही नही करता परोपकार भी करता है.
वैष्णव जन तो तेने कहिये जे पीड़ पराई जाने रे
वो जानते हैं कि एक आम इंसान की,एक आम प्राणी की,एक आम जीवात्मा की पीड़ा क्या है.जन्म,जरा,मृत्यु,व्याधि ये सब दुःख हैं और इन दुखों से दूर ले जाने का प्रयास एक संत करता है.

ये अंतर होता है एक संत के प्यार में और हमारे आपके प्यार में.

SMS: अगला प्रश्न आया है दीपा का U.P. से.कहती है:
अगर हम भगवान से भगवान के लिए कुछ मांगे तो क्या ये सकाम भक्ति है?
Reply: दीपा जी आप तो बहुत किस्मत वाली है कि आपको ये stage प्राप्त हो चुकी कि आप भगवान से भगवान के लिए ही सबकुछ मांग लेती हैं.बहुत सुन्दर.जी नही,ये सकाम भक्ति नही है.ये तो निष्काम बहकती है.भक्ति में इतना आगे निकल जाईये कि आपको समझ ही न आये कुछ और आप भगवान से मांगिये भगवान के लिए ही.अपने लिए कुछ न मांगिये.

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