Tuesday, May 24, 2011

आखिर वे जो सत्संग में ध्यानपूर्वक प्रवचन सुनते हैं वे किसतरह के लोग होते हैं:Explanation by Maa Premdhara(102.6 FM)

Spiritual Program SAMARPAN On 19th March, 2011(102.6 FM)
कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा .नमस्कार.कैसे हैं आप.एकदिन की बात है एक महान संत हमारे मुहल्ले में आए.मुझे जैसे ही पता चला उनके आगमन का तो मै उस स्थान पर गई.उस स्थान के सामने था एक रेस्टोरेंट.थोड़ी-ही देर में देखते-देखते उस रेस्टोरेंट में अनेकानेक लोग खाने के लिए जमा हो गए.छुट्टी थी सो घर में कोई खाना बनना नही चाहता था.सब-के-सब लाइन लगाकर खाने का कूपन ले रहे थे.और थोड़ी-ही दूर पर संत श्री भगवद कथा सुना रहे थे.पर उस सत्संग में कुल मिलाकर तीस-चालीस लोग ही आए थे.आनेवाले लोगों में भी कुछ बड़े ही मजे से खर्राटे भर रहे थे.वही दो-चार जने बहुत-ही ध्यानपूर्वक संत जी को सुन रहे थे.

मै सोचने लगी कि लोग कहते हैं कि जनसंख्या बढ़ गई है पर सत्संगों में जनसंख्या इतनी कम क्यों रह जाती है?सारी जनसंख्या क्यों माल,होटल और सिनेमाहाल में नजर आती है.आखिर वे जो सत्संग में ध्यानपूर्वक प्रवचन सुनते हैं वे किसतरह के लोग होते हैं.वो बाकियों के अलग क्यों होते हैं और ऐसे संग से भला उन्हें मिलता क्या है?


ऐसे ही प्रश्नों का जवाब छुपा है हमारे आज के श्लोक में.ध्यान से सुनिए:

भवापवर्गो भ्रमतो यदा भवेत् 
जनस्य तर्ह्यच्चुत सत्समागमः |
सत्सङ्गमो यर्हि तदैव सद्गतौ
परावरेशे त्वयि जायते मतिः || (श्रीमद्भागवत,10.51.53)
अर्थात् 
हे अच्यूत ! जब भ्रमणशील जीव का भौतिक जीवन समाप्त हो जाता है तो वह आपके भक्तों की संगति प्राप्त कर सकता है.और जब वह उनकी संगति करता है तो भक्तों के लक्ष्य और समस्त कारणों के कारण तथा उनके प्रभावों के स्वामी आपके प्रति उसमे भक्ति उत्पन्न होती है.

तो सुना आपने .कितनी सुन्दर बात एक भक्त आपको बता रहा है.एक भक्त कह रहे हैं भगवान से,भगवान को संबोधित करते हुए,भगवान को glorify करते हुए ,भगवान की महिमा का गुणगान करते हुए .कितनी बड़ी बात यहाँ कही गई है.

भक्त कहते हैं कि हे भगवान जब भ्रमणशील जीव का भौतिक जीवन समाप्त हो जाता है तो वो आपके भक्तों की संगति प्राप्त कर सकता है.

पहली बात इस श्लोक से उभरकर सामने आयी वो ये कि जीव भ्रमणशील है.जानते हैं,दो प्रकार के जीव होते हैं.एक नित्यमुक्त और एक नित्यबद्ध.नित्यमुक्त जीव कौन से होते हैं और नित्यबद्ध कौन से इसके बारे में हम चर्चा करेंगे.आप सुनते रहिये कार्यक्रम समर्पण.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा  और हम चर्चा कर रहे हैं बहुत-ही सुन्दर श्लोक पर.श्लोक एक बार फिर से आपके लिए:

भवापवर्गो भ्रमतो यदा भवेत् 
जनस्य तर्ह्यच्चुत सत्समागमः |
सत्सङ्गमो यर्हि तदैव सद्गतौ
परावरेशे त्वयि जायते मतिः || (श्रीमद्भागवत,10.51.53)
अर्थात् 
हे अच्यूत ! जब भ्रमणशील जीव का भौतिक जीवन समाप्त हो जाता है तो वह आपके भक्तों की संगति प्राप्त कर सकता है.और जब वह उनकी संगति करता है तो भक्तों के लक्ष्य और समस्त कारणों के कारण तथा उनके प्रभावों के स्वामी आपके प्रति उसमे भक्ति उत्पन्न होती है.


तो देखिये यहाँ एक बात सामने आयी कि जीव भ्रमणशील है.है न.जीव चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करता है.जीव यानि हम.हम आत्मा हैं और हम चौरासी लाख योनियाँ धारण करते हैं.क्यों?क्योंकि हमने भौतिक जीवन अपनी मर्जी से अंगीकार किया है,स्वीकार किया है.हमारे पास choice है,विकल्प है.हम चाहे तो हम आध्यात्मिक जीवन स्वीकार कर सकते हैं.पर अपनी इच्छाओं के वशीभूत होकर जब हम भौतिक जिंदगी को ही सब कुछ मानने लगते हैं तो हमें भौतिक शरीर प्राप्त होने लगते हैं.

तो मैंने आपसे कहा था कि जीव दो प्रकार के होते हैं.एक नित्यबद्ध और दूसरा नित्यमुक्त.नित्यमुक्त जीव वो होते हैं जो भगवान के लोकों में,आध्यात्मिक लोकों में सदा-सर्वदा से रहते आए हैं और वे भगवान की सेवा करते हैं.
नित्यबद्ध वो जीव होते हैं जो भगवान की भौतिक शक्ति में निहित हैं यानि ये जो जगत है,ये जो ब्रह्माण्ड है ये भगवान की भौतिक शक्ति है.और जब जीव इस भौतिक शक्ति को enjoy करना चाहता है,उसे भोगना चाहता है तो जीव यहाँ पर आ जाता है.लाया जाता है.

यह भौतिक जगत जो जेल की तरह है ये हमें punishment देने के लिए है,हमें सजा देने के लिए है और सजा आप जानते हैं कि इसलिए दी जाती है कि कोई सुधरे.सुधार हो.ये हमारे लिए rectification center है. तो जीव जब यहाँ पर भगवान से अलग होकर के भोग वांछा करता है,भोगना चाहता है तो उसे यहाँ पर लाया जाता है.ऐसा जीव यदि अपनी भौतिक जिंदगी से उब जाए और भगवान की तरफ मुड जाए तो कहा जाता है कि उसकी भौतिक जिंदगी अब समाप्त होनेवाली है.

लेकिन ये संभव तभी हो पाता है जब जीव भगवान के भक्तों का संग करे.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा  और हम चर्चा कर रहे हैं बहुत-ही सुन्दर श्लोक पर.जिसका अर्थ है 
हे अच्यूत ! जब भ्रमणशील जीव का भौतिक जीवन समाप्त हो जाता है तो वह आपके भक्तों की संगति प्राप्त कर सकता है.और जब वह उनकी संगति करता है तो भक्तों के लक्ष्य और समस्त कारणों के कारण तथा उनके प्रभावों के स्वामी आपके प्रति उसमे भक्ति उत्पन्न होती है.


तो देखिये बहुत किस्मतवाले होते हैं वे लोग जिन्हें भक्तों का संग प्राप्त होता है.

मै आपको बताती हूँ कि जैसा आपका संग होगा वैसे ही आपके रंग-ढंग होंगे.यदि कोई व्यक्ति बहुत अच्छी तरह से पढ़ना चाहता है ,marks लाना चाहता है तो उसे एक अच्छे विद्यार्थी का संग करना पड़ेगा और यदि कोई व्यक्ति भक्ति में आगे जाना चाहता है तो उसे एक भक्त का संग करना ही पडेगा.हरकोई ये बात जानता है कि यदि हम भक्ति करेंगे तो हमें भगवान प्राप्ति होगी.लेकिन अफ़सोस की बात ये हैं कि ये बात जानने के बावजूद बहुत से लोग भक्ति की तरफ मुडते नही हैं.आखिर क्यों?क्यों ऐसा होता है?

तो यहाँ ये श्लोक बता रहा है कि जिसका भौतिक जीवन समाप्त हो जाता है वही भक्तों की संगति प्राप्त कर सकता है.यानि सबलोगों को भक्तों का संग नसीब नही होता.ऐसे लोगों के सामने यदि भक्त आ भी जाए और भगवान के बारे में कुछ चर्चा करने भी लगे तो ऐसे व्यक्ति दुर्भाग्यवश भक्तों को अलग हटा देते हैं.भक्तों से किनारा कर लेते हैं.उनके पास नही आते.उन्हें avoid करते हैं.

जिन लोगों का सौभाग्य पूर्णरूपेण फलित हो जाए.जिन लोगों का सौभाग्य जागृत हो जाए ऐसे ही लोग भगवान के भक्तों का संग करते हैं.वे विभिन्न तीर्थस्थानों में जाते ही इसलिए हैं कि वहाँ उन्हें भगवान के विशुद्ध भक्तों का संग प्राप्त हो.
क्या होता है जब हम भक्तों का संग प्राप्त करते हैं?
भक्त भगवान की चर्चा में हमेशा तल्लीन रहते हैं.भक्त हमेशा भगवान की महिमा का गायन करते हैं.भक्त हमेशा भगवान की दैवीय प्रकृति में अवस्थित रहते हैं और भक्त हमेशा,हमेशा जीव को भगवान की अंतरंगा शक्ति की तरफ खींचते हैं.तो भक्त बहुत-बहुत important होते हैं.बहुत-बहुत जरूरी होते हैं.सत्संग बहुत जरूरी होता है.लेकिन ये प्राप्त वही कर पाता है जिसके पाप समाप्ति पर हैं,जिसके पाप समाप्त हो चुके हैं और जिसके पुण्य फलित हो गए हैं वही भक्तों का संग प्राप्त कर पाता है.वरना भक्तों का महत्त्व,भगवान का महत्त्व सभी को आसानी से समझ में नही आता.

यदि आपको भगवान का महत्त्व समझ में आने लगा है तो याद रखिये आप सौभाग्यशाली होने लगे हैं.आपका सच्चा सौभाग्य जाग गया है.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा  और हम चर्चा कर रहे हैं बहुत-ही सुन्दर श्लोक पर:

भवापवर्गो भ्रमतो यदा भवेत् 
जनस्य तर्ह्यच्चुत सत्समागमः |
सत्सङ्गमो यर्हि तदैव सद्गतौ
परावरेशे त्वयि जायते मतिः || (श्रीमद्भागवत,10.51.53)
अर्थात् 
हे अच्यूत ! जब भ्रमणशील जीव का भौतिक जीवन समाप्त हो जाता है तो वह आपके भक्तों की संगति प्राप्त कर सकता है.और जब वह उनकी संगति करता है तो भक्तों के लक्ष्य और समस्त कारणों के कारण तथा उनके प्रभावों के स्वामी आपके प्रति उसमे भक्ति उत्पन्न होती है.


तो देखिये यहाँ जो बात बतायी गई है कि जब जीव का भौतिक जीवन समाप्त हो जाता है तो भक्तों का संग प्राप्त करता है.देखिये जब भौतिक जीवन समाप्त होगा तभी आध्यात्मिक जीवन शुरू होगा या ये भी कह सकते हैं कि जब आपको भक्तों का संग प्राप्त होगा तभी आपका आध्यात्मिक जीवन शुरू होगा.यहाँ एक बात बहुत-ही सुन्दर तरीके से बताई गई है कि भक्तों का लक्ष्य सिर्फ एक होता है.भक्तों की बुद्धि व्यावसायित्मिका होती है.one pointed.एक ही point पर उनकी बुद्धि टिकी रहती है और वो point है भगवान.वे सिर्फ-और-सिर्फ भगवान के होते हैं.सिर्फ-और-सिर्फ भगवान से प्रेम करते हैं.सिर्फ-और-सिर्फ भगवान के हो जाना चाहते हैं और चूकि भक्त भगवान के रंग में इतना रंगा होता है कि उसका सारा शरीर,उसका मन,उसकी बुद्धि सब आध्यात्मिक हो जाती है.जो व्यक्ति भी ऐसे आध्यात्मिक व्यक्ति की शरण में आता है वो व्यक्ति भी उनके प्रभाव से मुक्त नही रह पाता.वो भगवान की भक्ति में अग्रसर हो जाता है.एक श्लोक है बहुत सुन्दर:

तुलयाम लवेनापि न स्वर्ग नापुनर्भवन । 
भगवत्सहिगसत्गस्य मत्र्यानांकिमुताशिष: (श्रीमद्भागवत,1.18.13)
अर्थात् 
यदि आप एक क्षण के लिए भी भगवद्भक्त का संग कर ले.तो उस संग के आगे न तो स्वर्ग और न ही अपवर्ग यानि कि मोक्ष,इसका कोई मूल्य रह जाता है.ये सब तुच्छ प्रतीत होते हैं.

क्यों?क्योंकि भगवान के भक्त से मिलने के बाद ही आपकी भक्ति प्रारम्भ होती है और आप तभी भगवान को समझ पाते हैं.याद रखिये कि जब तक आप भगवान को समझ नही पायेंगे तो प्रेम कैसे कर पायेंगे.जब तक भगवान से प्रेम नही होगा आपको तब तक आपका भवबंधन कभी कटेगा नही.आपको बार-बार इस जगत में आना पड़ेगा,जाना पडेगा.

तो भगवान से प्रेम यही एकमात्र रास्ता है कि आप इस भौतिक जगत से बाहर चले जायेंगे.भगवान से प्रेम किये बगैर ये हासिल नही होगा और भगवान के भक्तों का संग किए बगैर आपको भगवान की भक्ति कभी नसीब नही होगी.याद रखिये.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा  और हम चर्चा कर रहे हैं बहुत-ही सुन्दर श्लोक पर.जिसका अर्थ है 
हे अच्यूत ! जब भ्रमणशील जीव का भौतिक जीवन समाप्त हो जाता है तो वह आपके भक्तों की संगति प्राप्त कर सकता है.और जब वह उनकी संगति करता है तो भक्तों के लक्ष्य और समस्त कारणों के कारण तथा उनके प्रभावों के स्वामी आपके प्रति उसमे भक्ति उत्पन्न होती है.


तो देखिये भगवान को प्रेम से ही प्राप्त किया जा सकता है और ये प्रेम करना आपको सिखाते हैं भक्त.क्यों?क्योंकि उन्हें भगवान से बहुत प्रेम होता है.अगर आप किसी ऐसे व्यक्ति का संग करेंगे जो कि बहुत बुरे स्वभाव का है तो जल्द ही आपका स्वभाव भी बुरा हो जाएगा लेकिन यदि आप किसी ऐसे व्यक्ति का संग करे जी बहुत ही अच्छे स्वभाव का है,जो भगवान का प्रेमी है तो आपको भी भगवान से प्रेम करना आ जाएगा.इसे जितनी जल्दी आप सीख लेंगे उतने ही फायदे में रहेंगे.

तो प्रेम बहुत important है.हम यहाँ कहते हैं भगवान से प्रेम लेकिन अगर आप अपने आम रिश्तों को भी देखे तो वहाँ आप प्रेम न करे तो वे रिश्ते किसी काम के नही रहते.उन रिश्तों से आपको सुख प्राप्त नही हो सकता.

ऐसे ही एक माँ अपने बेटे की शरारतों से बहुत परेशान रहा करती थी.वो अपने बेटे को बहुत समझाती थी.उस पर बहुत गुस्सा किया करती थी.लेकिन वो बच्चा कोई बात ही नही समझता था.बच्चे की हरकतों से माँ बहुत परेशान रहने लगी.एक दिन वो अपने बेटे को लेकर एक फ़कीर के पास गई.फ़कीर से माँ न कहा कि बाबा ! मेरा बेटा बहुत शरारतें करता है.ये बहुत उपद्रवी है.अगर आप इसे थोडा डरा देंगे तो हो सकता है कि ये ठीक हो जाए.

फ़कीर ने जब ये सुना तो वो खड़ा होकर अपनी आँखें निकाल कर इतनी जोड़ से चिल्लाया कि बच्चा तो डर के मारे भाग ही गया.उसकी माँ भी घबराकर बेहोश हो गई.थोड़ी देर बाद बच्चा अपनी माँ के पास लौटा.तब तक माँ को होश आ गया था.माँ ने होश में आने पर फ़कीर से कहा कि आपने तो हद ही कर दी.मैंने आपसे इतना डराने के लिए तो नही कहा था.फ़कीर ने कहा कि मैया भय का कोई पैमाना नही होता.भय तो भय होता है.जब भय निकल जाता है तो पता ही नही चलता कि उसे कहाँ रोका जाए.माँ बोली कि मैंने तो बच्चे को डराने को कहा था पर आपने तो मुझे भी डरा दिया.

फ़कीर ने कहा कि भय जब प्रकट होता है तो ऐसा नही हो सकता कि वो एक को डराए और दूसरे को न डराए.तुम्हारी क्या बात करे.मै तो स्वयं भी भयभीत हो गया था.देखो जहाँ भय है वहाँ प्रेम नही हो सकता.इसीलिए अब कभी भी अपने बच्चे को डराने की कोशिश न करना.सुधारने का काम डर से नही प्रेम से होता है.

तो देखिये जब दुनियावी रिश्ते प्रेम से सँभलते हैं तो फिर आध्यात्मिक रिश्तों में तो प्रेम बहुत जरूरी है.इसलिए भगवान से प्रेम कीजिये और सदा-सदा के लिए सुखी ह जाईये.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा  और हम चर्चा कर रहे हैं बहुत-ही सुन्दर श्लोक पर:

भवापवर्गो भ्रमतो यदा भवेत् 
जनस्य तर्ह्यच्चुत सत्समागमः |
सत्सङ्गमो यर्हि तदैव सद्गतौ
परावरेशे त्वयि जायते मतिः || (श्रीमद्भागवत,10.51.53)
अर्थात् 
हे अच्यूत ! जब भ्रमणशील जीव का भौतिक जीवन समाप्त हो जाता है तो वह आपके भक्तों की संगति प्राप्त कर सकता है.और जब वह उनकी संगति करता है तो भक्तों के लक्ष्य और समस्त कारणों के कारण तथा उनके प्रभावों के स्वामी आपके प्रति उसमे भक्ति उत्पन्न होती है.


तो देखिये आपको इस प्रश्न का जवाब मिल गया कि सत्संग में ज्यादा लोग क्यों नही होते क्योंकि ज्यादातर लोगों का भौतिक जीवन अभी समाप्त नही हुआ है.अभी उनकी खुशनसीबी नही जागृत हुई है कि वे किसी भक्त का संग करे.उनमे अभी भगवान के प्रति कोई रुचि,कोई जिज्ञासा जागृत नही हुई है और यहाँ बताया गया है कि भगवान भक्तों के एकमात्र लक्ष्य हैं.बह्क्तों के लक्ष्य भगवान ही हैं.भगवान समस्त कारणों तथा उनके प्रभावों के स्वामी हैं.

हम सोचते हैं कि जो कुछ भी होता है उसका स्वामी मै हूँ.जो कुछ भी मुझे मिलता है वे सारे प्रभाव मेरे द्वारा उत्पन्न होते हैं लेकिन यहाँ ये स्पष्ट कर दिया गया है.साफ तौर पर बता दिया गया है कि जितने भी कारण हैं वे भगवान के कारण हैं.भगवान की वजह से उनका वजूद है और जितने भी फल आप देखते हैं,जितने भी प्रभाव हैं,कारणों के जितने भी फल हैं वे सब भगवान की वजह से उत्पन्न होते हैं.

तो भगवान है इसीलिए समस्त कारण उत्पन्न होते हैं,उनके प्रभाव उत्पन्न होते हैं.आपका इसमें कोई role नही होता.आपका तो इतना-सा role है कि आप ये समझ जाए कि भगवान समस्त कारणों के अंतिम कारण हैं और जो ये बात जान लेता है वो सौभाग्यशाली है.क्यों?क्योंकि तब उसे कुछ और जानने की जरूरत रहेगी कहाँ.जब आपने अंतिम जिसे कहते हैं न ultimate को जान लिया तो फिर बीच में छोटी-छोटी चीजों को जानकर  क्या हासिल होगा.तब आप ultimate के हो जायेंगे.भगवान के हो जायेंगे.

तो यहाँ भगवान को एक नाम से पुकारा गया है.वो है अच्यूत.हे अच्यूत.अच्यूत वो जो अपनी बात से कभी डगमगाए नही,गिरे नही.जबकि हमारी और आपकी हालत क्या है?हम आज एक promise करते हैं तो दूसरे ही दिन उसे तोड़ देते हैं.कईबार तो हमें याद भी नही रहता कि हमने कहा क्या था.क्या प्रण लिया था.कईबार नया साल शुरू होता है तो हम बहुत सारे संकल्प लेते हैं लेकिन फिर एक-दो महीने में सारे संकल्प भूल जाते हैं पर भगवान अपने भक्तों को कभी नही भूलते.भगवान अपने प्रण को कभी नही भूलते.भगवान अपने promises को कभी नही भूलते.भगवान महान है.

इसीलिए वो अच्यूत हैं.तो ऐसे अच्यूत की शरणागत भला कौन नही होना चाहेगा.भला कौन अपनी भौतिक जिंदगी को सदा-सर्वदा के लिए समाप्त नही करना चाहेगा.आपको अपनी भौतिक जिंदगी को समाप्त करने के लिए सचेत हो जाना चाहिए.है कि नही.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा  और अब बारी है आपके SMS को कार्यक्रम में शामिल करने की.
SMS: अलवर राजस्थान से गोपाल पूछते हैं कि मै ईश्वर को पाना चाहता हूँ.मुझे कोई रास्ता बताईये.
Reply: गोपाल जी ये तो बहुत-ही सुन्दर इच्छा है कि आप ईश्वर को पाना चाहते हैं.और देखिये भगवान को पाने का जो सबसे सुन्दर ढंग है वो है भगवान का निरंतर भजन करना.उनके  नामों का कीर्त्तन करना.उसके लिए जो qualification है,जो योग्यता है वह है 
तृनाद्पि सुनिचेन तरोरपि सहिष्णुना
अमानि न मानदेन कीर्त्तनीय सदा हरि.
कि आप अपने आप को तृण से भी अधिक तुच्छ समझे.घास का तिनका होता है न उससे भी ज्यादा तुच्छ समझे और आपकी जो सहिष्णुता है याकि कि जो आपकी tolerance power है वो एक पेड़ की तरह होनी चाहिए.पेड़ कितना सहनशील होता है.धूप,सर्दी,गर्मी,बरसात सबकुछ सहन करता है और जब कोई बच्चा उसको पत्थर मारता है तो भी  बदले में वो फल ही प्रदान करता है.तो इतना सहिष्णु होना होगा और अमानि न मानदेन अपने लिए किसी मान की अपेक्षा नही करनी है.कभी भी अपने लिए मान की अपेक्षा मत कीजियेगा और दूसरों को सदा मान दीजियेगा.
अगर आप ये सब अपना सके तो आप भगवान का भजन कर पायेंगे और तभी आपको भगवान प्राप्त भी हो जायेंगे.

SMS: रोहिणी से अनुपमा पूछती हैं कि हमारी उत्पत्ति भगवान से हुई तो भगवान की उत्पत्ति कहाँ से हुई?
Reply: आपमें,हम में और भगवान में एक बहुत बड़ा फर्क है और वो ये कि हम भगवान के अंश हैं लेकिन भगवान किसी के अंश नही हैं.भगवान कि उत्पत्ति कही से नही हुई.
अनादिरादिर्गोविन्दः सर्व-कारण-कारणं(ब्रह्म-संहिता)
शास्त्रों में ये उल्लेख आया है इसीलिए वे भगवान हैं.नही तो भगवान की उत्पत्ति कही और से होती तो वो कही और जहाँ से उत्पत्ति होती वे भगवान हो जाते.भगवान कहते भी हैं 
अहमेवासमेवाग्रे(श्रीमद्भागवत,2.9.33)
यानि इस सृष्टि से पहले भी मै था,अभी भी मै हूँ और बाद में भी मै ही रहूँगा.

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