Tuesday, March 29, 2011

अनेकों योजनायें बनाते समय हम भूल जाते हैं कि काल का पंजा हमारी गर्दन पर है:Explanation by Maa Premdhara(102.6 FM)

Spiritual Program SAMARPAN On 13th March, 2011(102.6 FM)
कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा .नमस्कार.कैसे हैं आप.कभी हम एक गजल सुना करते थे.
ये करें और वो करें 
ऐसा करें,वैसा करें 
जिंदगी दो दिन की है 
दो दिन में हम क्या-क्या करें.

यानि हजारों ख्वाहिशें हैं.बहुत कुछ करने का अरमान है.पर वक्त भला कितनी मोहलत देगा.दो दिन की जिंदगी में सारे अरमान भला कहाँ पूरे होंगे.और सही बात है,अरमान पूरा करते करते जीवन निकल जाता है.इच्छाएँ,आरजू,तमन्नायें रह जाती हैं.और ये इच्छाएं जब पूरी नही होती तो करुणामय भगवान इन इच्छाओं को पूरा करने के लिए आपको और शरीर प्रदान करते हैं.

इसतरह अपनी इच्छाओं के मकड़जाल में फँसकर हम बारम्बार इस दुखमय संसार में आते रहते हैं.फिर कोई संत हमें बताता भी है कि भाई अपनी कोई इच्छा मत करो.भगवान की इच्छा को स्वीकार करो.तो आप कभी असंतुष्ट नही रहोगे.भयभीत नही रहोगे.किन्तु तो भी हम उनकी बात अनसुनी करके सिर्फ अपनी ही हाँकते रहते हैं और इस संसार से छूट नही पाते.हमारा लालच बढ़ता जाता है.जीने की उत्साह में हम भूल जाते हैं कि मौत भी कभी-न-कभी जरूर आयेगी.जो सबकुछ छीन के ले जायेगी.

तो आज के श्लोक में कुछ इसीप्रकार का भाव है.श्लोक सुनिए:
प्रमत्तमुच्चैरितिकृत्यचिन्तया 
प्रवृद्धलोभं विषयेषु लालसम् |
त्वमप्रमत्तः सहसाभिपद्दसे 
क्षुल्लेलिहानोहिरिवाखुमंतकः ||(श्रीमद्भागवत,4.24.66)
अर्थात्
हे भगवान ! इस संसार के सारे प्राणी कुछ-न-कुछ योजना बनाने में तथा यह या वह करते रहने की इच्छा से काम में लगे रहते हैं.अनियंत्रित लालच के कारण यह सब होता है.जीवात्मा में भौतिक सुख की लालसा सदैव बनी रहती है,किन्तु आप नित्य सचेष्ट रहते हैं और समय आने पर आप उस पर उसीप्रकार टूट पड़ते हैं जिसप्रकार सर्प चूहे को पकड़ कर निगल जाता है.

ये श्लोक कितनी बड़ी बात आपको बताता है.ये बात नही है कि ये सब आप जानते नही हैं.आप जानते हैं कि आप सदा-सर्वदा जीयेंगे नही.कभी-न-कभी मृत्यु आप पर हावी हो जायेगी.ये तो आप जानते हैं और यदि कोई हमें ये बताता है तो हम कहते हैं कि क्या तुम हमसे मनहूस बातें करते हो.हम उसे दुत्कार देते हैं.उससे नजरें चुराने लगते हैं और बस यही से हमारे दुर्भाग्य की कथा आरम्भ होती है.हमे ज्ञान नही हो पाता.हम ज्ञान लेना भी नही चाहते.हम उस ज्ञान से दूर हो जाना चाहते हैं.और हम ऐसे व्यक्ति का साथ ढूँढने लगते हैं जो हमारे इस पागलपन में हमारा साथ दे.जो हमें ये अहसास कराये कि ये जगत हमारा है.हम इस जगत के हैं और हम यहाँ सदा के लिए बने रहेंगे.

है न सही बात.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा  और हम चर्चा कर रहे हैं बहुत ही सुन्दर श्लोक पर जिसका अर्थ है:

हे भगवान ! इस संसार के सारे प्राणी कुछ-न-कुछ योजना बनाने में तथा यह या वह करते रहने की इच्छा से काम में लगे रहते हैं.अनियंत्रित लालच के कारण यह सब होता है.जीवात्मा में भौतिक सुख की लालसा सदैव बनी रहती है,किन्तु आप नित्य सचेष्ट रहते हैं और समय आने पर आप उस पर उसीप्रकार टूट पड़ते हैं जिसप्रकार सर्प चूहे को पकड़ कर निगल जाता है.

 तो देखिये यहाँ भगवान बता रहे हैं कि हर प्राणी योजना बना रहा है.ये नही है कि मनुष्य ही योजना बना रहा है.आपने कभी चींटियाँ देखी है.चीटियों की बहुत बड़ी-बड़ी colonies हुआ करती हैं.कोई भी colony जब बनती है तो बिना योजना के थोड़े-ही बनती है.वहाँ भी योजना रहती है कि यहाँ हम सदा-सर्वदा रहेंगे और खूब चीनी और मिष्ठान जमा करके यहाँ रखेंगे.ये हमारे काम आएगा.तो योजना चींटी भी बनाती है.

मधुमक्खी भी आपने देखी होगी.क्या करती है मधुमक्खी.मधुमक्खी एक फूल से दूसरे फूल जाती है.हर जगह से रस इकट्ठा करती है और फिर छत्ते में भरकर शहद बना लेती है.और उस शहद को तैयार करने में उसे कई-कई हजार किलोमीटर का सफर तय करना पड़ता है.कितना श्रम करने के बाद वो थोडा-सा शहद बनाती है.तो एक योजना रहती है कि मै शहद बनाऊं.ये शहद जो है आड़े वक्त में काम आएगा.

तो हर कोई योजना बनाता रहता है.हर प्राणी.लेकिन चींटी का हश्र आप देखिये.चींटी बड़ी-बड़ी colonies जरूर बनाती है लेकिन जब कोई इंसान उसके ऊपर चल देता है,उसका पैर पड़ता है तो वो चींटी मसल दी जाती है.है न.चींटी जिन्दा नही रह पाती.तो उसके colony का क्या होता है?colony तो रह गई लेकिन चींटी में जो आत्मा थी वो चली गई.अब दूसरे शरीर को धारण करेगी.उसका श्रम.जितना उसने श्रम किया,जितनी मेहनत की सब बर्बाद हो गया.

मधुमक्खी  ने शहद का छत्ता बनाया जरूर लेकिन क्या शहद उसके काम आ पाता है.जैसे ही किसी व्यक्ति की नजर शहद के बड़े से छत्ते पर पड़ती है.वो व्यक्ति पूरी तरह से कोशिश करके,किसी भी तरह से शहद का छत्ता उतार लेता है.शहद निकलता है.शहद खाता है.शहद बेचता है.मधुमक्खी ने हजारों किलोमीटर का सफर तय किया.हजारों किलोमीटर जा जाकर फूलों का रस एकत्र किया था लेकिन उसका वो रस क्या मधुमक्खी के काम आया.सोचिये नही.

तो मधुमक्खी का छत्ता उससे छीन जाता है और मधुमक्खी भी काल का शिकार हो जाती है.तो सारा किया-कराया सब व्यर्थ हो जाता है और यही हमारी भी हालत होती है.विचार करके देखिये होती है कि नही.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा  और हम चर्चा कर रहे हैं बहुत ही सुन्दर श्लोक पर:
प्रमत्तमुच्चैरितिकृत्यचिन्तया 
प्रवृद्धलोभं विषयेषु लालसम् |
त्वमप्रमत्तः सहसाभिपद्दसे 
क्षुल्लेलिहानोहिरिवाखुमंतकः ||(श्रीमद्भागवत,4.24.66)
अर्थात् 
हे भगवान ! इस संसार के सारे प्राणी कुछ-न-कुछ योजना बनाने में तथा यह या वह करते रहने की इच्छा से काम में लगे रहते हैं.अनियंत्रित लालच के कारण यह सब होता है.जीवात्मा में भौतिक सुख की लालसा सदैव बनी रहती है,किन्तु आप नित्य सचेष्ट रहते हैं और समय आने पर आप उस पर उसीप्रकार टूट पड़ते हैं जिसप्रकार सर्प चूहे को पकड़ कर निगल जाता है.

देखिये भगवान कहते हैं शास्त्रों में 
अहम् कालोस्मि
मै काल हूँ.मै मृत्यु हूँ.भगवान कहते हैं.तो भगवान ही सृजन करते हैं,पालन करते हैं और अंत में संहार कर देते हैं.है न.तो सब कुछ भगवान के हाथों होता है.सब कुछ और कालक्रम में सब कुछ नष्ट हो जाता है.सृजन के बाद पालन और फिर उसका नष्ट होना तय है.फिर क्यों हम इतनी योजनायें बनाते है जबकि हम जानते हैं कि हमारी सारी योजनायें धरी-की-धरी रह जायेंगी.धराशायी हो जायेंगी.कुछ हमारे साथ नही जायेगा.कुछ हमारे हाथ नही आएगा.

वो जो हमारे हाथ आ सकता है.वो जो हमारे साथ जा सकता है उसे लेने के लिए हा चेष्टा क्यों नही करते.उसे बटोरने की चेष्टा हम क्यों नही करते.भगवान की भक्ति हमारे काम आयेगी.वही हमारे साथ जायेगी.उसी से हमारा कल्याण होगा.तो हम भगवान के विषय को,भगवान को क्यों दूर रख देते हैं?अपने से दूर क्यों कर देते हैं.क्यों सिर्फ और सिर्फ अपनी तरफ देखते हैं?क्यों इन जड़ इन्द्रियों के बहकावे में आ जाते हैं?सोचिये क्यों होता है ये सब हमारे साथ?यही तो हमारा दुर्भाग्य है.है न.

तो यहाँ इस श्लोक में भगवान बताते हैं कि ये सिर्फ आपके साथ ही नही होता.हर जीव के साथ होता है.हर प्राणी के साथ होता है.है न.एक जगह श्लोक भी आया है:
सुखमैन्द्रियकं दैत्या देहयोगेन देहिनाम् |
सर्वत्र लभ्यते दैवाद्दथा दुःखमयत्नतः ||(श्रीमद्भागवत,7.6.3)
ये जो सुख है न ये इन्द्रिय बोध के कारण उत्पन्न होता है.वरना इस संसार में सुख है कहाँ.है ही नही.जैसे कि आप ठंढ से काँप रहे हो और आपको मै heater दे दूँ कि लीजिए.आप heater पर अपना हाथ रखे और आपको थोड़ी गर्मी मिली.आपको थोड़ी तपिश मिली तो आप कहेंगे कि आहा बड़ा सुख है.लेकिन सुख कहाँ है वो.पाया क्या आपने.सिर्फ सर्दी को घटा दिया गया.उसे आपने सुख मान लिया.तो इन्द्रिय बोध के कारण लगा आपको कि ये सुख है और इसी लालसा में आप दिन रात काम करते हैं.ये मिले, वो मिले,ये करूँ,वो करूँ,ऐसा करूँ,वैसा करूँ.

और जब आप ये सब करते हैं तो आप भूल जाते हैं कि काल का पंजा आपकी गर्दन पर है.कितनी ही planning कर लीजिए.कितना ही सोच लीजिए लेकिन ये सब खत्म हो जाएगा.कुछ रह नही पायेगा.याद रखिये.
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Monday, March 14, 2011

यह जीव उस कुत्ते के समान है जो भूखवश भोजन पाने के लिए द्वार-द्वार जाता है:Explanation by Maa Premdhara(102.6 FM)

Spiritual Program SAMARPAN On 12th March, 2011(102.6 FM)
कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा .नमस्कार.कैसे हैं आप.बचपन में जब हम स्कूल में थे तो स्कूल के बच्चे एक प्रार्थना गाते थे :
तुम्ही हो माता,पिता तुम्ही हो,
तुम्ही हो बंधु,साख तुम्ही हो.
तुम्ही हो साथी,तुम्ही सहारे,
कोई न अपना सिवा तुम्हारे.

उस समय मुझे इस प्रार्थना का अर्थ समझ ही नही आता था क्योंकि मम्मी-पापा भी साथ में थे. भाई, बंधु, बांधव, सखा सभी तो साथ में थे.इस प्रार्थना को हम गाते तो जरूर थे पर मानते नही थे.धीरे-धीरे बड़े हुए तो देखा अरे सखियाँ तो बिछड़ गई.तब लगा चलो माँ-बाप तो साथ में हैं.फिर एक दिन ऐसा आया कि माँ,बाप,भाई सब बिछड़ गए.तब समझ में आने लगा कि सच में सारे रिश्ते कालक्रम में समाप्त हो जाते हैं और तब रह जाता है एक ही रिश्ता.भगवान से हमारा रिश्ता.

इस रिश्ते को पहचाने बगैर हम झूठी माया में धंसते चले जाते हैं और अपनी इच्छाओं को पूरी करने के फेर में पड़कर बारम्बार जीवन-मृत्यु को गले लगाते रहते हैं.अजीब बात है.है न.पर इंसान की इसी अजीब प्रवृत्ति पर प्रकाश डाल रहा है हमारा आज का श्लोक.श्लोक बहुत ही ध्यान से सुनिये,बहुत अच्छा लगेगा आपको:
क्षुत्परितो यथा दीनः सारमेयो गृहं गृहम |
चरन विन्दति यद्दिष्टं  दण्डमोदनमेव वा||
तथा कामशयो जीव उच्चावचपथा भ्रमन|
उपर्यधो वा मध्ये वा याति दिष्टं प्रियाप्रियं ||(भागवतम,4.29.30-31)
अर्थात् 
यह जीव उस कुत्ते के समान है जो भूखवश भोजन पाने के लिए द्वार-द्वार जाता है.वह अपने प्रारब्ध के अनुसार कभी दण्ड पाता है और खदेड़ दिया जाता है,अथवा कभी-कभी खाने को थोडा भोजन भी पा जाता है.इसीप्रकार,जीव भी अनेकानेक इच्छाओं के वशीभूत होकर अपने भाग्य के अनुसार विभिन्न योनियों में भटकता रहता है.कभी वह उच्च स्थान प्राप्त करता  है तो कभी निम्न स्थान.कभी वह स्वर्ग को जाता है,कभी नरक को,तो कभी मध्य लोकों को जाता है.

तो देखा आपने कितनी सुन्दर बात आपको यहाँ बतायी गई है.सुन्दर जानकारी.जीव की तुलना कुत्ते से की गई है.आपने कुत्ते को देखा होगा.जब आप रास्ते पर चलते हैं तो कितने ही कुत्ते होते हैं जो भौकते रहते हैं.कभी आप उनकी आदतों पर ध्यान दीजिए.आप देखेंगे कि वो बारम्बार यहाँ-वहाँ डोलते रहते हैं.हमेशा भूखे रहते हैं.कभी इस द्वार पर,कभी उस द्वार पर जाते रहते हैं.उन्हें लगता है कि शायद यहाँ भोजन मिल जाए.कभी कूड़े को ढूँढने लगते हैं.कूड़े में कई बार वो पानी नाक घुसाकर उसे सूंघते हैं कि यहाँ खाने के लिए कुछ पड़ा तो नही है.कितना-कितना दर्दनाक जीवन होता है कुत्तों का.

लेकिन सभी कुत्तों का जीवन दर्दनाक नही होता है.ऐसे कुत्ते जिनके मालिक धनी हैं उनका जीवन बहुत अच्छा होता है.है न.प्रारब्ध के अनुसार उन्हें बहुत बड़ा reward मिलता है और कभी-कभी उसको भी डाँट मिलती है.फटकार मिलती है.तो ये सब क्या है?जीव किसप्रकार कुत्ते के समान है?ये चर्चा क्यों की गई है?इन सभी बातों पर हम प्रकाश डालेंगे.आप बने रहिये हमारे साथ कार्यक्रम समर्पण में.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा  और हम चर्चा कर रहे हैं बहुत ही सुन्दर श्लोक पर:

क्षुत्परितो यथा दीनः सारमेयो गृहं गृहम |
चरन विन्दति यद्दिष्टं  दण्डमोदनमेव वा||
तथा कामशयो जीव उच्चावचपथा भ्रमन|
उपर्यधो वा मध्ये वा याति दिष्टं प्रियाप्रियं ||(भागवतम,4.29.30-31)
अर्थात् 
यह जीव उस कुत्ते के समान है जो भूखवश भोजन पाने के लिए द्वार-द्वार जाता है.वह अपने प्रारब्ध के अनुसार कभी दण्ड पाता है और खदेड़ दिया जाता है,अथवा कभी-कभी खाने को थोडा भोजन भी पा जाता है.इसीप्रकार,जीव भी अनेकानेक इच्छाओं के वशीभूत होकर अपने भाजी के अनुसार विभिन्न योनियों में भटकता रहता है.कभी वह उच्च स्थान प्राप्त करता  है तो कभी निम्न स्थान.कभी वह स्वर्ग को जाता है,कभी नरक को,तो कभी मध्य लोकों को जाता है.

तो देखिये यहाँ जिस category के कुत्ते के बारे में बताया गया है वो आवारा कुत्ते कहलाते हैं.वो जिनका कोई मालिक नही होता.जो अपने को मालिक समझता है.उसकी हालत यहाँ बतायी गई है कि कितनी बुरी हालत होती है.वो भूखा होता है,तडपता रहता है पर उसे पता नही होता कि अन्न का दाना उसे कहाँ मिलेगा.कहाँ उसे भोजन मिलेगा.वह द्वार-द्वार भटकता है.यहाँ वहाँ भटकता है.अपने आप को संभालने के लिए,अपने वजूद को बचाने के लिए वो अनेकानेक कुत्तों से लड़ाई भी करता है.दूसरे कुत्ते कईबार उसे घायल भी कर देते हैं.कभी-कभी उसे थोडा भोजन कोई दया करके दे भी देता है.थोडा-बहुत खाने को मिल जाता है.

और उसी में वो इतना मस्त हो जाता है कि उसे लगता है कि हाँ,देखो मैंने इतना श्रम किया तो मुझे भोजन मिल गया.फिर दुबारा से भूख लगती है तो वो द्वार-द्वार भटकता है.कभी उसे दण्ड मिलता है.कभी कुत्ते को आप दुत्कार भी तो देते हैं न.कुत्ता जब आपके सामने आता है तो आप उसे दुत्कार देते हैं.खदेड़ देते हैं उसे.हटो,भागो यहाँ से और कोई-कोई जो बहुत-ही दयावान व्यक्ति होता है वो सोचता है कि चलो इसे खाने को कुछ दे देते हैं.लेकिन ये गारंटी नही होती कि उसका पेट भरेगा ही भरेगा.आज के दिन उसे खाना मिलगा ही मिलेगा.जब रात को उसे नींद आती है तो वो कहाँ जाए.वो बेचारा कभी किसी गैरेज में घुस जाता है.कभी कही घुस जाता है.फिर कभी किसी की नजर पड़ती है तो लोग लाठी लेकर उसके पीछे दौड़ते हैं.है न.

तो मालिक के बगैर यदि कोई कुत्ता है.जिसका कोई मालिक नही है.तो उस बेचारे को दर-दर भटकना पड़ता है.लेकिन सोचिये ऐसा कुत्ता जिसका मालिक है वो कितने शान से अपने मालिक की गोद में बैठा रहता है.मालिक उसे पुचकारता है,प्यार करता है.खुद नहलाता है.अच्छे-अच्छे बिस्किट ले करके आता है.खाने का प्रबंध करता है.घुमाने ले जाता है.उसे कोई बीमारी न हो इसके लिए उसे टीके लगवाता है.कितना-कितना ध्यान रखता है मालिक अपने कुत्ते का.है न.

तो देखिये यहाँ बड़ी सुन्दर समानता दी गई है जीवात्मा और कुत्ते के बीच.तो यहाँ बताया गया है कि जो जीवात्मा बिना मालिक के घूम रही है.जो खुद को मालिक समझती है.जो सोचती है मै करता हूँ.जो भगवान को नही मानती वो कुत्ते की तरह दरबदर भटकती है.लाखों,करोडो यानियों में वो जाती है.बारम्बार यातनाएं सहती है.

लेकिन ऐसा कुत्ता,ऐसी जीवात्मा जो भगवान की pet हो गई है.भगवान के आसरे में आ गई है.शरण में आ गई है उसे इतनी मुसीबतें नही झेलनी पड़ती.वो बड़े प्यार से रहती है और आध्यात्मिक लोग में हमेशा,हमेशा आनंद की अनुभूति उसे होती रहती है.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा  और हम चर्चा कर रहे हैं बहुत ही सुन्दर श्लोक पर जिसका अर्थ है:
यह जीव उस कुत्ते के समान है जो भूखवश भोजन पाने के लिए द्वार-द्वार जाता है.वह अपने प्रारब्ध के अनुसार कभी दण्ड पाता है और खदेड़ दिया जाता है,अथवा कभी-कभी खाने को थोडा भोजन भी पा जाता है.इसीप्रकार,जीव भी अनेकानेक इच्छाओं के वशीभूत होकर अपने भाजी के अनुसार विभिन्न योनियों में भटकता रहता है.कभी वह उच्च स्थान प्राप्त करता  है तो कभी निम्न स्थान.कभी वह स्वर्ग को जाता है,कभी नरक को,तो कभी मध्य लोकों को जाता है.

देखिये इस श्लोक में आपको बहुत बड़ी जानकारी दी गई है.बड़े ध्यान से सुनने का प्रयास कीजिये.यहाँ जीव की तुलना कुत्ते से की गई है.जीभ की भी अनेकानेक इच्छाएं होती हैं और जब वो खुद को मालिक समझता है.जब सोचता है कि इन इच्छाओं को मुझे ही पूरा करना है तो वो अनेकानेक प्रकार के कर्म करता है.वो सोचता है कि मेरे कर्म मुझे मेरी इच्छाओं के करीब ले जायेंगे और अपनी इच्छाओं के पीछे भागते-भागते,भागते-भागते वो मनुष्य जीवन को लूटा देता है.और तब उसके प्रारब्ध के अनुसार उसे दूसरी योनियाँ प्राप्त होती है.

तो देखिये ये तो आपको पता ही होगा कि चौरासी लाख प्रकार के शरीर होते हैं.चौरासी लाख प्रकार की योनियाँ होती हैं.जैसा कि श्लोक भी आया है:


Wednesday, March 9, 2011

सिर्फ भक्ति से ही प्रभु हासिल किये जा सकते हैं:Explanation by Maa Premdhara(102.6 FM)

Spiritual Program SAMARPAN On 6th March, 2011(102.6 FM)
कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा .नमस्कार.कैसे हैं आप.अगर मै आपसे पूछूं कि आपके कितने दोस्त हैं तो शायद आप अनेक लोगों के नाम गिना दे.फिर मै पूछूं कि बताईये इनमे से आपका best friend कौन है तो आप एक का नाम बता दे शायद और फिर यदि मै आपसे ये पूछूं कि ऐसे best friend का नाम बताईये जो सदा से आपका साथ निभाता रहा हो.जिसने आपको सिर्फ दिया ही दिया हो बिना किसी अपेक्षा के.कभी भी आपसे उसने कोई शिकायत न की हो.तो आप क्या कहेंगे.अब शायद जबाव मुश्किल होगा क्योंकि स्कूल में हर class में आपके best friend बदले.नए स्कूल में नए best friend बने और जब आप कॉलेज गए तो वहाँ कोई और best friend बना.ऑफिस में कोई और बना.

इसतरह लोग आते रहे.जाते रहे.कोई टिका नही.शिकवे भी रहे,नाराजगी भी रही.इसीलिए इंसान कई बार कह उठता है:
यूँ तो है यहाँ लोगों का मेला 
फिर भी कितना तन्हा मै अकेला.

और भीड़-भार वाले शहर में आदमी वाकई बेहद तन्हा,अकेला होता भी है क्योंकि उसने किसी की दोस्ती ठुकरा दी होती है.जी हाँ.भगवान ने आपकी तरफ दोस्ती का हाथ कब से बढ़ाया हुआ है पर आपने कभी भी उसे थामा ही नही.

जितने मन से आप अपने दोस्तों के लिए उपहार चुनते हो उतने मन से भला भगवान के लिए कुछ चुना है आपने.अपने स्वार्थी दोस्तों को हजारों का उपहार बेशक आपने दिया और भगवान को दो रुपये के सादे-गले भूल चढा कर आपने अपना दामन झाड़ लिया.बात सही है न.अपने बाल-बच्चों को तो मीठी-मीठी खीर,पूरी खिलाई आपने और भगवान के सामने चुटकी भर चीनी रखकर कह दिया भाई इसे में खुश हो जाओ.फिर जब कभी आपका कोई काम बिगड़ गया तो खूब कोसा आपने ईश्वर को.

सोचिये इसे ही भक्ति कहते हैं आप और चाहते हैं कि भगवान हमसे खुश रहे.ईश्वर को खुश करने के चक्कर में लोग जाने क्या-क्या करते हैं पर फिर भी सफल नही हो पाते.आखिर कमी कहाँ रह जाती है.यही जानकारी आप तक ला रहा है हमारा आज का श्लोक.श्लोक ध्यान से सुनिए:
न साधयति मां योगो न सांख्यं धर्म उद्धव । 
न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो यथा भक्तिर्ममोर्जिता ॥(श्रीमद्भागवत,11.14.20)
अर्थात्
हे उद्धव मै न तो योग से.न सांख्य से,न धर्म से,न स्वाध्याय से,न तपस्या ,न ज्ञान से प्रसन्न होता हूँ.मुझे तो केवल शुद्ध भक्ति से ही जीता जा सकता है.
तो देखा भगवान को पाने का तरीका.हम कितने-कितने तरीके से भगवान की तरफ मुड़ते हैं लेकिन फिर भी जान नही पाते हैं कि क्या हम सही दिशा में चल रहे हैं.क्या सच में हम अपनी मंजिल तक पहुँच जायेंगे और कई बार तो हमे पता भी नही होता कि हमारी मंजिल आखिर है क्या.है न इतने सारे कठिन सवाल.लेकिन हमारे साथ बने रहिये.इन सवालों के जबाव देने का हम प्रयास करेंगे.इसी कार्यक्रम में,समर्पण में.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा और हम चर्चा कर रहे हैं बहुत ही सुन्दर श्लोक पर:
न साधयति मां योगो न सांख्यं धर्म उद्धव । 
न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो यथा भक्तिर्ममोर्जिता ॥(श्रीमद्भागवत,11.14.20)
अर्थात्
हे उद्धव मै न तो योग से.न सांख्य से,न धर्म से,न स्वाध्याय से,न तपस्या ,न ज्ञान से प्रसन्न होता हूँ.मुझे तो केवल शुद्ध भक्ति से ही जीता जा सकता है.
तो देखिये भगवान आपको तरीका बता रहे हैं जिसके द्वारा आप भगवान को प्राप्त कर सकते हैं.लेकिन कई बार हम भगवान के बताये गए तरीके पर विश्वास करते ही नही.हम मनोकल्पित यानि कि हमारे मन में जो आया,हम उसके अनुसार भगवान की तरफ बढ़ निकलते हैं.लेकिन भगवान कहते हैं कि ऐसे काम नही चलेगा.मुझ तक आना है तो मुझसे ये पूछ तो लो कि भाई मुझ तक आने का रास्ता क्या है.कही भटक न जाओ.लेकिन अक्सर हमलोग वही करते हैं.है न.अपने मन के द्वारा सोचते हैं कि चलो योग कर लिया जाए उससे शायद भगवान मिल जाएँ.

तो योग.किसे योग कहते हैं.आज की तारीख में लोग exercise करते हैं और उसे योग का नाम दे देते हैं.योग का अर्थ है जमा यानि दो चीजों के बीच में जोड़.इसे योग कहते हैं.लेकिन यदि आप भगवान के साथ जुडते नही हैं तो आप कुछ भी कर लीजिए योग में वो योग होता नही है.वो सिर्फ शरीर का धर्म होता है.शरीर का कसरत होता है और शरीर की जो ये कसरत है सिर्फ शरीर को तुष्ट बनायेगी.आत्मा तो वही कमजोर-की-कमजोर रह जायेगी.बिल्कुल कमजोर रह जायेगी आत्मा और आत्मा पुष्ट नही हो पायेगी तो कैसे भगवान की तरफ बढ़ेंगे.असंतुष्ट रह जायेगी आत्मा.है न.

तो यहाँ पर भगवान कहते हैं कि योग से मुझे प्राप्त नही किया जा सकता.लेकिन भगवान ये एक बात ये भी कहते हैं :
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना ।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः ॥(भगवद्गीता,6.47)
कि जो व्यक्ति मुझसे जुड जाता है और श्रद्धापूर्वक मेरा भजन करता है वही समस्त योगियों में श्रेष्ठ है.तो हठयोगी,ज्ञानयोगी और अन्य योगियों के बारे में भगवान यही कहते हैं कि श्रेष्ठ नही हैं.श्रेष्ठ वो है जो योग से मुझसे जुड़ गया यानि कि जो मुझसे जुड़ गया.जिसका जमा मेरे साथ हो गया.है न.addition हो गया.

आपकी जिंदगी वीरान थी.सुनसान थी.लेकिन इसमें यदि आपने add कर लिया भगवान को तो आपकी जिंदगी बहुत सुन्दर हो गई.खुशनुमा हो गई.तो ये बात जब आप याद रखते हैं कि जुडना किसके साथ है.योग किसे कहते हैं.जब आप इसकी परिभाषा ठीक से समझ जाते हैं तभी आप भगवान की तरफ मुड पाते हैं.लेकिन ये जो आप सोचते हैं कि हम ध्यान कर ले तो भगवान मिल जायेंगे.तो भगवान इसके बारे में भी कहते हैं कि ध्यान करना तो सही बात है पर कलियुग में कहाँ ध्यान कर पायेंगे आप क्योंकि कलयुग तो कलह का युग है वहाँ ध्यान करना मुश्किल है.

तो सोचिये भगवान को कैसे प्राप्त किया जाए.सिर्फ भक्ति से ही प्रभु हासिल किये जा सकते हैं.प्रभु के पास पहुँचा जा सकता है.याद रखिये.
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कार्यक्रम समर्पण में आपका स्वागत है.मै हूँ आपके साथ प्रेमधारा .हम चर्चा कर रहे हैं बहुत ही सुन्दर श्लोक पर जिसका अर्थ है:
हे उद्धव मै न तो योग से.न सांख्य से,न धर्म से,न स्वाध्याय से,न तपस्या ,न ज्ञान से प्रसन्न होता हूँ.मुझे तो केवल शुद्ध भक्ति ही रास आती है.
तो यदि कोई भगवान को सांख्य धर्म से जानना चाहता है तो यहाँ भी भगवान कहते हैं कि कोई फायदा नही है.क्यों?क्या होता है सांख्य?

जब आप इस संसार के विभिन्न अवयवों के बारे में जानना चाहते हैं.संसार कैसे बना है?इसके विभिन्न तत्त्व क्या है?ये 
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।(भगवद्गीता,7.4)
भगवान की ये आठ प्रकृति.जब आप इसके बारे में पूर्णतया जानकारी हासिल करना चाहते हैं.जब आप आत्मा के बारे में जानना चाहते हैं.जब आप इनके controller के बारे में जानना चाहते हैं तो ये जो जानकारी है अगर आपको प्राप्त हो जाती है तो ये ज्ञान कहलाती है.लेकिन ये ज्ञान तब तक शुष्क है,सोखा है जब तक इसमे भक्ति का रंग न मिला दिया जाये.जब इसमे भक्ति मिला दी जाती है तब ये सरस ज्ञान बन जाता है.लेकिन यदि आप सिर्फ सांख्य के बारे में जान ले ,पृथ्वी के अवयवों के बारे में जान ले.संसार के विभिन्न तत्त्वों के बारे में जान ले,आत्मा के बारे में जान ले,मन,बुद्धि,अहंकार के बारे में जान ले तो काम नही चलेगा.इससे भगवान हासिल नही होंगे.

और कोई व्यक्ति बहुत अपना धर्म परायण हो जैसे कि एक student का धर्म है पढाई करना.आपको पता ही है.या फिर एक गृहस्थ का धर्म है अपने घर-बार की देखभाल करना.या फिर एक सैनिक का धर्म है पाने देश की रक्षा करना.ये सारे धर्म जैसे कि एक businessman  का धर्म है अच्छा business करना,अच्छा profit कमाना.ये सारे-के-सारे धर्म आपको भगवान की प्राप्ति नही करा सकते.ये भगवान स्वयं कह रहे हैं कि ये सारे धर्म भी fail हो जायेंगे.तो pass क्या होगा भाई?भगवान कहते हैं:
मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते ।(भगवद्गीता,14.26)
कि जो मुझे शुद्ध भक्ति से,शुद्ध प्रेम से भजेगा,मेरी सेवा करेगा वो मुझे प्राप्त कर सकता है.तो भक्ति का अर्थ हुआ प्रेममयी सेवा.भक्ति का अर्थ हुआ:
सर्वोपाधि-विनिर्मुक्त तत-परत्वेण निर्मलम।
ह्रषिकेण ह्रैकेश-सेवानाम भक्तिर उच्यते॥(नारद-भक्ति-सूत्र)
भक्ति की ये परिभाषा है.जब आप अपनी सारी उपाधियों से मुक्त हो जाए.सारी उपाधियाँ-मै माँ हूँ,मै इस देश का नागरिक हूँ,मुझे ये पुरस्कार मिला,मै sir हूँ,मै madam हूँ,मै ये हूँ,मै वो हूँ.मै डॉक्टर हूँ,मै इंजिनियर हूँ.तरह-तरह की बातें.मुझे ये पदक मिलते हैं.मेरे पास इतनी डिग्री है.मेरे पास ये है,वो है.ये उपाधियाँ है और ये क्या हैं?बेकार.व्यर्थ की चीजें हैं.

जब आप इनकी grip से छूट जाए,जब आप इनके चंगुल से छूट जाए तब आप पहला कदम रखेंगे भक्ति की दुनिया में.तब आप काबिल होंगे कि आप भगवान को समझने का प्रयास कर सके.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा और हम चर्चा कर रहे हैं बहुत ही सुन्दर श्लोक पर:
न साधयति मां योगो न सांख्यं धर्म उद्धव । 
न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो यथा भक्तिर्ममोर्जिता ॥(श्रीमद्भागवत,11.14.20)
अर्थात्
हे उद्धव मै न तो योग से.न सांख्य से,न धर्म से,न स्वाध्याय से,न तपस्या ,न ज्ञान से प्रसन्न होता हूँ.मुझे तो केवल शुद्ध भक्ति से ही जीता जा सकता है.
बहुत बड़ी बात है.तो पहले ये तो जान लीजिए क्या होती है शुद्ध भक्ति?
सर्वोपाधि-विनिर्मुक्त तत-परत्वेण निर्मलम।
ह्रषिकेण ह्रैकेश-सेवानाम भक्तिर उच्यते॥(नारद-भक्ति-सूत्र)
जब आप समस्त उपाधितों से,कैसे उपाधियाँ?देखिये आत्मा की तो कोई उपाधि होती ही नही.ये जो सारी उपाधियाँ हैं कि मै उसकी मौसी हूँ,उसकी मम्मी हूँ,उसका पापा हूँ,ये हूँ वो हूँ ये सब देह की उपाधियाँ हैं और देह निर्जीव है,असत् है.देह जड़ है तो उपाधियाँ क्या हो गई?जड़ हो गई.है न.क्योंकि देह जड़ है तो उपाधियाँ जड़ हो गई.आत्मा को जड़ को लादकर क्या मिलेगा?आत्मा की यदि आपको भलाई चाहिए तो इस जड़ को आपको फेकना पड़ेगा.उपाधियों से दूर हो जाईये.सब कोई मेरे हैं क्योंकि वो भगवान के हैं.जब इस रिश्ते जब आप अपना लेंगे न तब आप मै और मेरा से दूर हो पायेंगे.इनसे ऊपर उठ पायेंगे.

तो जब आप मुक्त हो जायेंगे सभी उपाधियों से तब आप निर्मल हो जायेंगे.आपके अंदर कोई मल,कोई दोष शेष नही रहेगा और तब आप हृषिकेश को समझ पायेंगे.हृषिकेश मतलब जो हमारी इन्द्रियों के स्वामी हैं.इन इन्द्रियों को जिन्हें हमें dedicate करना है.इन इन्द्रियों से जिनकी सेवा करनी है,उनको हम समझ पायेंगे और जब हम उन्हें समझ पायेंगे तो जाहिर है कि हमारी इन्द्रियाँ उनकी सेवा में अपने आप रत हो जायेगी.
ह्रषिकेण ह्रैकेश-सेवानाम भक्तिर उच्यते
इसे ही भक्ति कहा जाता है.तो छोटा-सा process है.सिर्फ देह की उपाधियों से दूर होना है.बाद की चीज अपने आप ,अपने आप होती जायेगी.

लेकिन अगर आप सोचे कि मै घर में बैठकर शास्त्रों का अध्ययन करूँगा तो भगवान समझ आ जायेंगे और उनसे प्यार हो जाएगा.तो भगवान कहते हैं-नही,नही ऐसा नही होगा.जैसे कि आप यदि कहे अपने बच्चे को कि भाई तुम स्कूल नही जाओ.यहाँ घर में बैठो और घर में बैठकर के पढ़ाई करो.अब तो तुम्हे क,ख,ग आ गया है.अब पढ़ाई करो और आगे की परीक्षा स्वयं दो.तो कुछ बात बनेगी नही.कई बार बच्चा fail हो जाएगा.उसे एक guidance की जरूरत है चाहे tutor रखिये या स्कूल भेजिए.

इसीप्रकार से यदि आप कहे कि देखिये मै कितनी तपस्या करता हूँ.मै तो सर्दियों में ठंढे पानी से नहाता हूँ और गर्मियों में मै तो धूप में दस घंटे खड़ा हो जाता हूँ.कितने बड़ी तपस्या.भगवान इसे बच्चों का खेल समझते हैं कि ये क्या है.इससे भगवान प्राप्त नही होते.यदि आप सोचे कि चलिए हम थोडा त्याग ही कर ले.थोडा त्याग कर लेते हैं कि हम ये फल नही खायेंगे भगवान के नाम पर.तो ये भी भक्ति नही है.ये भी भगवान सोचते हैं कि क्या बच्चों जैसा खेल खेल रहे हैं.

तो भगवान की शुद्ध भक्ति जो करता है वो भगवान को प्राप्त कर सकता है और इसी विषय में हम आगे चर्चा करेंगे आपसे.सुनते रहिये कार्यक्रम समर्पण.
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Monday, March 7, 2011

क्या सच में गृहस्थी में रहकर भक्ति करना असंभव है?क्या भगवान से अपना संबंध बनाने के लिए अपना घर-बार छोडना जरूरी है?:Explanation by Maa Premdhara(102.6 FM)

Spiritual Program SAMARPAN On 5th March, 2011(102.6 FM)
कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा .नमस्कार.कैसे हैं आप.एक बार की बात है पड़ोस की एक बहू ने मुझसे कहा कि मै अपनी सास से बहुत परेशान हूँ.वो बात-बात पर झगड़ा करती है.कभी मेरी cooking में दोष निकालती है तो कभी सफाई में दोष देखती है.कभी बच्चे के पालन-पोषण को लेकर ताने देते रहती है.समझ ही नही आता क्या करूँ.थोड़ी देर बाद उनकी सास मुझे मिली.मैंने पूछा कि कैसी हो?तो उन्होंने भी रोना शुरू कर दिया.अजीब आलसी बहू मिली है.घर का काम ठीक से नही करती.बच्चे को ठीक से नही खिलाती और जाने क्या-क्या.

मैंने उनसे कहा कि अब आपकी उम्र हो गई है.कुछ भक्ति कर लो.शांति मिलेगी.ये सुनते ही सासू जी तपाक से बोल उठी कि अरे भई!हम तो गृहस्थ हैं.गृहस्थी में भला कहाँ भक्ति होगी.अब घर-बार देखे कि भगवान के बारे में सोचे.अब भई बहू जब समझदार हो जायेगी तब देखेंगे.

उनकी बात सुनकर मै सोच में पड़ गई.क्या सच में गृहस्थी में रहकर भक्ति करना असंभव है?क्या भगवान से अपना संबंध बनाने के लिए अपना घर-बार छोडना जरूरी है?आमतौर पर लोग यही सोचते हैं कि गृहस्थी में रहकर हरिचिंतन नही किया जा सकता.तो आखिर क्या है भक्ति?किस तरह से हम अपने गृहस्थ धर्म को निभाते हुए भक्ति कर सकते हैं?यही सब आपको बताएगा हमारा आज का श्लोक.ध्यान से सुनिए:
गृहेष्वाविशतां चापि पुंसां कुशलकर्मनाम् |
मद्वार्तायातयामानां न बंधाय गृहा मताः ||(श्रीमद्भागवत,4.30.19)
अर्थात्
जो लोग भक्ति जैसे शुभ कार्य में लगे हैं वो निश्चित रूप से समझते हैं कि प्रत्येक क्रियाकलाप के अंतिम भोक्ता भगवान हैं.ऐसे लोग अपने सभी कर्मों के परिणामों को भगवान को अर्पित कर देते हैं और अपना जीवन भगवद कथा की चर्चा में बिता देते हैं.ऐसे लोग बेशक गृहस्थ हो पर फिर भी वो अपने कर्मों के परिणाम से नही बंधते.

तो देखा भगवान ने कितनी सुन्दर बात यहाँ भी आपको बतायी है.देखो भगवान जो कुछ आपको बताते हैं वो सदा सुन्दर ही होता है.सत्यम शिवं सुन्दरं.ये सब कुछ भगवान के aspects हैं.तो भगवान स्वयं सुन्दर हैं और जो कुछ वो कहते हैं वो आपके लिए बहुत ही कल्याणप्रद होता है.और भगवान यहाँ ये घोषणा करते हैं कि यदि आप गृहस्थ जीवन को निभा रहे हैं लेकिन यदि गृहस्थ जीवन को निभाते समय आप भगवान में डूबे रहे,भगवान को याद रखे,भगवान को शुक्रिया कहना सीखे,भगवान को अपने कर्मों के समस्त परिणाम अर्पित कर दे,अपने कर्म तक अर्पित कर दे तो आपको ये कर्म कभी बाँध नही सकेंगे और गृहस्थ जीवन आपके लिए बोझ नही होगा.तब गृहस्थी आपके लिए एक माध्यम हो जायेगी भगवान तक पहुँचने के लिए.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा और हम चर्चा कर रहे हैं बहुत ही सुन्दर श्लोक पर.श्लोक एक बार फिर से आपके लिए:
गृहेष्वाविशतां चापि पुंसां कुशलकर्मनाम् |
मद्वार्तायातयामानां न बंधाय गृहा मताः ||(श्रीमद्भागवत,4.30.19)
अर्थात्
जो लोग भक्ति जैसे शुभ कार्य में लगे हैं वो निश्चित रूप से समझते हैं कि प्रत्येक क्रियाकलाप के अंतिम भोक्ता भगवान हैं.ऐसे लोग अपने सभी कर्मों के परिणामों को भगवान को अर्पित कर देते हैं और अपना जीवन भगवद कथा की चर्चा में बिता देते हैं.ऐसे लोग बेशक गृहस्थ हो पर फिर भी वो अपने कर्मों के परिणाम से नही बंधते.

तो यहाँ भगवान कहते हैं कि जो लोग भक्ति जैसे शुभ कार्य में लगे हैं.देखा जाए तो शुभ कार्य इस जगत में सिर्फ एक ही है और वो है भक्ति.भक्ति ही एकमात्र शुभ कार्य है और बाकी जो कुछ भी हम करते हैं वो शुभ नही है.शुभ का उल्टा क्या हुआ?अशुभ.

आप कहेंगे अच्छा!हम नौकरी जाते हैं.हम कमाते हैं,क्या अशुभ है.हाँ,हाँ,अशुभ है.यदि आप ये सब अपने लिए करते हैं तो ये अशुभ है.लेकिन यदि आप ये सब भगवान के लिए करते हैं तो सुबह है,भक्ति है.यानि कि जब आप भगवान को बीच में लाकर के कोई भी काम करते हैं.भगवान के लिए तो वो शुभ हो जाता है.अन्यथा वो अशुभ है.जब आप भगवान को हाशिए पर रख देते हैं.अपनी जिंदगी से delete कर देते हैं तब जो कुछ भी आप करते हैं वो अशुभ है,असत् है और आपको एक असत् platform पर वो चीज लाकर खड़ा कर देती है.

असत्.क्या है असत्?वो चीज जो temporary है,शाश्वत नही है,अशाश्वत है.नित्य नही है,अनित्य है.जैसे कि ये जगत,जैसे कि आपका शरीर.जैसे कि आपके रिश्ते नाते.जैसे कि आपका घर-बार.जैसे कि आपकी नौकरी-चाकरी.जैसे कि आपकी factories आपका business.आपका ये जीवन.ये सब कुछ temporary है,temporary.please समझने की कोशिश कीजिये.

और जब आप दुबारा से जन्म लेंगे.दुबारा से आपको ये सब चीजें शुरुआत से बटोरनी पड़ेगी.फिर से पढाई करनी पड़ेगी.फिर से डिग्री लेनी पड़ेगी.फिर से नौकरी ढूंढनी पड़ेगी.फिर से सब कुछ वही करना पड़ेगा जो इस जन्म में आपने किया.

तो क्या है ये सब.अशुभ.लेकिन जो लोग भक्ति करते हैं.भगवान की भक्ति में.प्रेमाभक्ति में जुटे रहते हैं वो शुभ है.क्यों?क्योंकि भगवान कहते हैं:

नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवातो न विद्यते ।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्‌ ॥(भगवद्गीता,2.40)

क्योंकि भक्ति करने से आपकी महान भय से रक्षा होती है.आपको दुबारा जन्म-मृत्यु का मुख नही देखना पड़ता.आपकी जो ये आत्मा यानि कि जो आप हैं.उसको जानवरों के शरीर धारण नही करने पड़ते.चौरासी लाख योनियों में नही जाना पड़ता.लेकिन भगवान से अलग हो करके जो कुछ आप करते हैं वो सब आपको चौरासी लाख योनियों में वापस ला पटकती है.

तो  बताईये आप ही कौन शुभ है और कौन अशुभ.जी हाँ,भक्ति शुभदा है,परम शुभ है.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा और हम चर्चा कर रहे हैं बहुत ही सुन्दर श्लोक पर जिसका अर्थ है:
जो लोग भक्ति जैसे शुभ कार्य में लगे हैं वो निश्चित रूप से समझते हैं कि प्रत्येक क्रियाकलाप के अंतिम भोक्ता भगवान हैं.ऐसे लोग अपने सभी कर्मों के परिणामों को भगवान को अर्पित कर देते हैं और अपना जीवन भगवद कथा की चर्चा में बिता देते हैं.ऐसे लोग बेशक गृहस्थ हो पर फिर भी वो अपने कर्मों के परिणाम से नही बंधते.

तो ये श्लोक बहुत सुन्दर जानकारी आपको देता है.Art of living.कैसे जीना है आपको.जीवन शैली कैसी होनी चाहिए कि आप कभी भी न बंधे.कोई बंधन आपको बाँध न सके और आप इस जीवन में भी मुक्त कहलाये जाए.क्या है वो विधि?तो भगवान कहते हैं कि एक ही विधि है-मेरी भक्ति.आप मेरा आश्रय ग्रहण करे और ये जान ले कि समस्त क्रियाकलापों का अंतिम भोक्ता मै हूँ यानि भगवान हैं.और अगर आप ये बात नही जानते कि समस्त यज्ञों का,समस्त कार्यों के अंतिम भोक्ता सिर्फ भगवान हैं तो भगवान कहते हैं कि 
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते ॥(भगवद्गीता,9.24)
अर्थात् 
वो लोग मुझे तत्त्व रूप से नही जानते हैं इसीलिए उनका पतन हो जाता है.तत्त्व क्या है?यही एक मात्र तत्त्व है कि सबकुछ भगवान से उत्पन्न होता है और इसीलिए सबकुछ भगवान का है.याद रखिये सब कुछ भगवान का है.सबकुछ मेरा नही है.आपका नही है.लेकिन हमलोग साँप की तरह कुंडली मारकर इस जगत में बैठे हुए हैं.ये मेरा है.ये धन मेरा है.ये व्यवसाय मेरा है.ये बच्चे मेरे है और ये मेरा,मेरा,मेरा करते हुए हम पूरी कोशिश करते हैं  कि इसमे किसी और को नही आने दे.ये सारा-का-सारा जो खेल है.ये सारा-का-सारा खेल जो आपने रचा है आप सोचते हैं कि बस आप ही उसके controller हो , empire हो.इसमे से आप भगवान को एकदम भूल जाते हैं.

लेकिन जब वो खेल बिगड़ने लगता है,कुछ गडबड होने लगती है तब आपको याद आती है भगवान की.जब आप दुखी हो जाते हैं तब आप भगवान की तरफ मुड़ते हैं.ठीक है.लेकिन तो भी आप थोड़े-ही समय के लिए मुड़ते हैं.जब फिर से स्थिति ठीक हो जाती है,बेहतर हो जाती है आप फिर से भगवान को हाशिए पर रख देते हैं.अलग कर देते हैं अपने आप से.तो ये बहुत बड़ा अपराध है.

लेकिन जो लोग भक्ति कर रहे हैं.जो लोग भगवान की प्रेमपूर्वक सेवा कर रहे हैं,भगवान के बारे में सुनते आ रहे हैं,श्रवण भक्ति कर रहे हैं वो लोग जानते हैं कि मै जो कुछ भी कर रहा हूँ वो भगवान की दी हुई शक्ति की वजह से कर रहा हूँ.जो भी सुनहरे मौके मेरे पास आ रहे हैं भगवान की दी हुई शक्ति की वजह से,उनकी कृपा से आ रहे हैं.जो भी कष्ट मेरा मिट रहा है वो ईश्वर की अहैतुकी कृपा से मिट रहा है.

तो जो लोग ये बात समझते हैं वो अपने सभी कर्मों के परिणामों को भगवान को अर्पित कर देते हैं और तब उनका जीवन सुन्दर हो जाता है.शांत हो जाता है.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा और हम चर्चा कर रहे हैं बहुत ही सुन्दर श्लोक पर:
गृहेष्वाविशतां चापि पुंसां कुशलकर्मनाम् |
मद्वार्तायातयामानां न बंधाय गृहा मताः ||(श्रीमद्भागवत,4.30.19)
अर्थात्
जो लोग भक्ति जैसे शुभ कार्य में लगे हैं वो निश्चित रूप से समझते हैं कि प्रत्येक क्रियाकलाप के अंतिम भोक्ता भगवान हैं.ऐसे लोग अपने सभी कर्मों के परिणामों को भगवान को अर्पित कर देते हैं और अपना जीवन भगवद कथा की चर्चा में बिता देते हैं.ऐसे लोग बेशक गृहस्थ हो पर फिर भी वो अपने कर्मों के परिणाम से नही बंधते.

तो देखिये गृहस्थ होना अपराध नही है.गृहस्थ होना पाप नही है.गृहस्थ होना कोई बाधा नही है.लेकिन गृहस्थी में बुद्धि लगाये रखना.घर में अपनी बुद्धि का निवेश करना.ये गडबड है.ये अपराध है.गृहस्थ का तो अर्थ ही ये है कि भाई आपका घर-बार हो और घर-बार का जो केंद्रबिंदु हो वो भगवान हो.बच्चे भगवान को पूजे,स्त्री भगवान को पूजे.माँ-बाप भगवान को पूजे.भगवान के लिए ही आपके समस्त कर्म हो.ये होता है गृहस्थ आश्रम जहाँ भगवान केंद्रबिंदु रहते हैं.

लेकिन गृहमेधी वो कहलाते हैं जिनकी मेधा,जिनकी बुद्धि अपनी घर-बार को भरने में लगी रहती है.कैसे मै अपने परिवार का अच्छा पोषण करूँ.कैसे मै इन्हें और healthy बनाऊं,कैसे मै और,और,और बटोरूँ.कैसे मै rich हो जाऊं.जो यही सोचता रहता है वो गृहमेधी कहलाता है और ऐसे सोच से,ऐसे कर्म से वो बंध जाता है.इसलिए दुबारा उसे जन्म लेना पड़ता है.

लेकिन यहाँ भगवान कहते हैं:
न बंधाय गृहा मताः
ऐसे लोग जो मेरी वार्त्ता में तल्लीन हैं,मेरे बारे ने चर्चा करते हैं,मेरी कथा कहते-सुनते रहते हैं.
मय्यासक्तमनाः पार्थ (भगवद्गीता,7.1)
जिनका मन मुझमे आसक्त है,ऐसे लोग चाहे गृहस्थ ही क्यों न हो,बाल-बच्चों के संग ही क्यों न रहते हो,वे सबका भरण-पोषण ही क्यों न करते हो और इनके लिए नौकरी ही क्यों न करते हो मगर ऐसे लोग कभी भी ये सब काम करते हुए बंधते नही.क्यों नही बंधते?

क्योंकि देखिये ये जो मन है न मन.जो आपके अंदर रहता है.आपका मन,यही बाँधता है और यही छुटकारा दिलाता है.यदि घर की चाहरदीवारी में लगा रहेगा,घर के काम-काज में लगा रहेगा,घर के लोगों में लगा रहेगा और भगवान के पास नही जाएगा तो आपको  कभी छुटकारा भी नही दिलाएगा.किसी-न-किसी रूप में आप यहाँ आते ही रहेंगे.लेकिन यदि मन भगवान का हो गया.भगवान को surrendered हो गया.याद रखना समर्पण शरीर का नही होता.समर्पण मन का होता है.संन्यास शरीर का नही होता संन्यास मन से होता है.

अगर मन आपका सन्यासी हो जाए तब आप गृहस्थी में रहा भी करे तो क्या फर्क पड़ता है.अपने मन से अपने समस्त कर्मों और उसके परिणामों को भगवान को अर्पित कर दीजिए.उनकी कथाओं में दिलचस्पी पैदा कीजिये.उनकी कथाओं को कहना और सुनना अपने जीवन का लक्ष्य बना लीजिए.

देखिएगा आप कभी-भी,कभी-भी बंधेंगे नही.हमेशा मुक्त रहेंगे.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा और हम चर्चा कर रहे हैं बहुत ही सुन्दर श्लोक पर जिसका अर्थ है:
जो लोग भक्ति जैसे शुभ कार्य में लगे हैं वो निश्चित रूप से समझते हैं कि प्रत्येक क्रियाकलाप के अंतिम भोक्ता भगवान हैं.ऐसे लोग अपने सभी कर्मों के परिणामों को भगवान को अर्पित कर देते हैं और अपना जीवन भगवद कथा की चर्चा में बिता देते हैं.ऐसे लोग बेशक गृहस्थ हो पर फिर भी वो अपने कर्मों के परिणाम से नही बंधते.

कितनी सही बात भगवान आपको बताते हैं.जीवन में रहते हुए जीवन से दूर.बंधन में रहते हुए आजादी की साँस लेना.ये सब कुछ,तरीका भगवान आपको बता रहे हैं कि कैसे आप इस जीवन में ही मुक्त हो सकते हैं.लेकिन हमलोग बहुत सारे बहाने बनाते हैं.अरे अभी तो हम पढाई कर रहे हैं.अभी तो हमे घर-बार देखना है.अभी तो हमें ये करना है वो करना है.

ऐसे ही किसी दिन एक व्यक्ति महात्मा के पास पहुँचा और कहने लगा कि महात्मन जीवन तो थोड़े समय का है.इस थोड़े-से समय में क्या-क्या करूँ.बचपन में ज्ञान नही होता.जवानी में गृहस्थी का बोझ होता है.बुढ़ापा रोगग्रस्त और पीड़ादायक होता है.तब भला ज्ञान कैसे मिले.भक्ति कब की जाए.ये कहकर वो रोने लगा और उसे रोते देखकर महात्मा जी भी रोने लगे.

उस आदमी ने पुछा कि अरे महात्मा जी आप क्यों रोते हैं?महात्मा जी ने कहा कि क्या करूँ.खाने के लिए अन्न चाहिए.लेकिन अन्न उपजाने के लिए मेरे पास जमीन नही है.परमात्मा के एक अंश में माया है.माया के अंश में तीन गुण हैं.हवा के एक अंश में आकाश है.आकाश में थोड़ी-सी वायु है.वायु में बहुत आग है.आग के एक भाग में पानी है.पानी का शतांश पृथ्वी है.पृथ्वी के आधे हिस्से पर पर्वतों का पथरा है.जमीन पर जहाँ देखो नदियाँ बिखरी पडी है.मेरे लिए तो भगवान ने जमीन का एक नन्हा-सा टुकड़ा भी नही छोड़ा.थोड़ी-सी जमीन थी उस पर भी दूसरे लोगों ने अधिकार जमा लिया.अब तुम ही बताओ मै भूखा नही मरूंगा?

तब उस व्यक्ति ने कहा कि अरे ये सब होते हुए भी तो आप जीवित हैं फिर रोते क्यों हिया.इसपर महात्मा ने तुरंत उत्तर दिया कि अरे भाई तुम्हे भी तो समय मिला है.बहुमूल्य जीवन मिला है.फिर समय न मिलने की बात कहकर क्यों हाय,हाय करते हो.सभी को एक जैसा ही समय मिला है.वही चौबीस घंटे.

तो इसी चौबीस घंटे में से भगवान के लिए समय निकालना है.यदि आप इन्ही चौबीस घंटो में से हर पल,हर क्षण अपने मन को भगवान के साथ जोड़ ले और अपने तन को बेशक विविध कार्यों में लगाए.समस्त कार्यों में लगाए ताकि कोई आपसे ये शिकायत न करे कि भाई आपने देखिये ये काम नही किया.अपने वो काम नही किया.ये भक्ति-वक्ती क्या करते हैं.भक्ति करनेवाले क्या आलसी हो जाते हैं?

देखना ये इल्जाम अपने ऊपर मत लेना क्योंकि जो लोग भक्त होते हैं,वो बहुत कर्मठ होते हैं.अपने समस्त कायों को बहुत ही मुस्तैदी से करते हैं.लेकिन हाँ,मन का attachment भगवान के साथ रखते हैं.बस यही सूत्र आप याद रखिये और आप देखेंगे कि आप कितनी आसानी से जिंदगी की समस्त बाधाओं को पार करते चले जायेंगे.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा और हम चर्चा कर रहे हैं बहुत ही सुन्दर श्लोक पर:
गृहेष्वाविशतां चापि पुंसां कुशलकर्मनाम् |
मद्वार्तायातयामानां न बंधाय गृहा मताः ||(श्रीमद्भागवत,4.30.19)
भगवान कहते हैं कि 
जो लोग भक्ति जैसे शुभ कार्य में लगे हैं वो निश्चित रूप से समझते हैं कि प्रत्येक क्रियाकलाप के अंतिम भोक्ता भगवान हैं.ऐसे लोग अपने सभी कर्मों के परिणामों को भगवान को अर्पित कर देते हैं.
देखिये यहाँ जब बात आती है न सभी कर्मों के परिणामों को तो तन,मन,धन सबको.सबको भगवान को अर्पित कर देते हैं और अपना जीवन भगवान की कथाओं में बिताते हैं.काठों को सुनने में.कथाओं को कहने में.जब महात्मा लोगों से भक्त लोग कथा सुनते हैं.भगवान के बारे में चर्चा सुनते हैं तो वही चर्चा वो बाकी लोगों से करते हैं ताकि बाकी लोगों का जीवन भी सुधर जाए और ऐसे लोग दिखाई तो देते हैं गृहस्थ लेकिन होते हैं महात्मा  क्योंकि भगवान कहते हैं न कि जो महात्मा हैं वो दैवीम प्रकृतिमाश्रिताः हैं यानि वो भगवान की भौतिक प्रकृति में अवस्थित नही है.वो भगवान की दैवीय प्रकृति में रहते हैं.

जो भगवान से जुड गया.सोचिये.जो भगवान से जुड गया,वो भौतिक भला रहा कहाँ.उसका शरीर जरूर भौतिक दिखाई देता है.लेकिन क्योंकि उसका मन आध्यात्मिक हो गया है.इसलिए उसके शरीर के सारे अवयव भी आध्यात्मिक हो गए हैं.भगवान कहते भी तो हैं:

मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्‌ ।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥(भगवद्गीता,10.9)
भगवान कहते हैं कि जो लोग अपने चित्त को,अपने कान को मेरी कथाओं में लगा लेते हैं.मुझमे लगा लेते है उन्हें फिर मेरे अलावा कुछ सुझाई नही देता.वो सिर्फ मेरे बारे में सुनते हैं.और सुनना चाहते हैं,और सुनना चाहते हैं.सुनने की ये प्यास कभी बुझती ही नही.भडकती रहती है और ये प्यास भडके इसी में आपका जीवन सार्थक है.अगर प्यास है नही तो इसे पैदा कीजिये.

तो भगवान कहते हैं कि ऐसे लोग जब आपस में मिलते हैं.बेशक वो गृहस्थ हैं लेकिन जब आपस में मिलते हैं तो वो भक्त भगवान की चर्चा में अपना समय बिताते हैं.उन्हें भगवान के बारे में कहने-सुनने में बहुत मजा आता है और इसी में वो रमण करते हैं.उसी में उन्हें तुष्ट करते हैं.जिनको भगवान में तुष्टि मिलती है,भगवान की कथाओं में तुष्टि मिलती है वो भला इन दुनियावी साजोसामान में कहाँ तुष्ट हो पायेगा.ये सब तो उसे बिल्कुल-बिल्कुल शुष्क नजर आयेंगे.कही से कोई interest पैदा ही नही होगा.यकीन मानिये.

तो आपको बस अपना स्वाद बदलना है.बाकी कुछ तो भगवान बदल ही देंगे.याद रखिये.
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कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा और अब बारी है आपके sms को कार्यक्रम में शामिल करने की.
SMS : ये पहला sms भेजा है न जाने कहाँ से,न जाने किसने लेकिन बहुत important sms है इसलिए मैंने इसे शामिल किया है.कहते हैं:
प्यार तो हम भी लोगों से करते हैं पर हमारे प्यार में और एक संत के प्यार में क्या अंतर है?
Reply: देखिये आपने सवाल बहुत अच्छा पूछा है.आप जब लोगों से प्यार करते हैं तो मोह से बंधकर करते हैं,आसक्त होकर के करते हैं लोगों से प्यार और कही-न-कही से उसमे आप अपना स्वार्थ भी देखते हैं.याद रखियेगा.
लेकिन एक संत जब लोगों से प्यार करता है तो वो लोगों में भगवान की उपस्थिति में देखता है.देखता है कि ये सब भगवान के अंश हैं और इनमे भगवान विराजते हैं.और जब वो लोगों से प्यार करता है तो वो लोगों को भगवान का संदेश भी देता है.सिर्फ प्यार ही नही करता परोपकार भी करता है.
वैष्णव जन तो तेने कहिये जे पीड़ पराई जाने रे
वो जानते हैं कि एक आम इंसान की,एक आम प्राणी की,एक आम जीवात्मा की पीड़ा क्या है.जन्म,जरा,मृत्यु,व्याधि ये सब दुःख हैं और इन दुखों से दूर ले जाने का प्रयास एक संत करता है.

ये अंतर होता है एक संत के प्यार में और हमारे आपके प्यार में.

SMS: अगला प्रश्न आया है दीपा का U.P. से.कहती है:
अगर हम भगवान से भगवान के लिए कुछ मांगे तो क्या ये सकाम भक्ति है?
Reply: दीपा जी आप तो बहुत किस्मत वाली है कि आपको ये stage प्राप्त हो चुकी कि आप भगवान से भगवान के लिए ही सबकुछ मांग लेती हैं.बहुत सुन्दर.जी नही,ये सकाम भक्ति नही है.ये तो निष्काम बहकती है.भक्ति में इतना आगे निकल जाईये कि आपको समझ ही न आये कुछ और आप भगवान से मांगिये भगवान के लिए ही.अपने लिए कुछ न मांगिये.

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