कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा.नमस्कार.कैसे हैं आप? आप सबको नया साल बहुत-बहुत मुबारक हो.भगवान करे, इस नए साल में भक्ति से संबंधित आपकी सारी आकांक्षाएं,सारी उम्मीदें पूरी हो.आप भक्ति के क्षेत्र में और उन्नति कर पाएं,और आगे जाएँ.
तो हम सब पिछले कुछ दिनों से नया साल मना रहे हैं और बहुत सारे functions हुए,बहुत सारी festivities हई,बहुत उल्लास रहा नया साल मनाने में.अपने-अपने ढंग से सबने नया साल मनाया.लेकिन कई बार मै ये सोचती हूँ श्रोताओं कि भाई हम आत्मा के रूप में शाश्वत हैं.कभी भी नए नही होंगे.नयापन आत्मा में आता नही.हमेशा से आत्मा थी,है और रहेगी.ये काल,ये समय शाश्वत है.काल हमेशा से था,है और रहेगा.और माया भी तो शाश्वत है.माया कब समाप्त होती है?माया रहती है हमेशा.किसी व्यक्ति कि माया उसकी भक्ति से समाप्त होती है.पर इससे जो माया का अस्तित्व है वो तो समाप्त नही होता.कही किसी और को घेरती है जाकर माया.तो अब ये सारी चीजें जब शाश्वत हैं तो ऐसे में हम नया क्या ढूंढ रहे हैं.हमें पता ही नही चल रहा कि हमें नवीनता कहाँ मिलेगी.इसलिए हम शाश्वत काल को अनेक दिनों में,मासों में,सप्ताहों में बाँट-बाँटकर प्रसन्न हो रहे हैं कि चलो एक हप्ता बीत गया,एक महीना बीत गया,बारह महीने बीत गए.स्वयं हमने मापदंड तैयार किये और स्वयं ही प्रसन्न हो गए.
क्या करे?क्योंकि हमें पता नही न कि नवीनता आखिर कहाँ है?जो लोग काफी समय से program सुन रहे हैं,उन्हें आभास है,उन्हें पता है कि नवीनता सिर्फ और सिर्फ भगवान में है.भगवान आदि पुरुष हैं,शाश्वत हैं,प्राचीनतम हैं लेकिन नूतनता,नवीनता से भरे हुए हैं.है न.लेकिन ये हमें समझ नही आता क्योंकि हम अपने आप में निमग्न रहते हैं.शरीर की क्रियाओं में लिपटे रहते हैं.इए ही तो हमारा श्लोक आपको बता रहा है कि अगर आप अपने शरीर की क्रियाओं को मात्र द्रष्टा बनकर देखे और आप उसमे लिपटे नही तो आप प्रबुद्ध व्यक्ति कहलायेंगे और नए साल में ऐसी प्रबुद्धता हमको हासिल हो तो क्या बात है .
आईये सुनते हैं ये श्लोक जो आपको बता रहा है कि प्रबुद्ध व्यक्ति कैसे अपने जीवन को जीता है,शारीरिक क्रियाओं में नही फंसता.तो श्लोक है:
एवं विरक्तः शयन आसनाटनमज्जने ।
दर्शनस्पर्शनघ्राणभोजनश्रवणादिषु ।
न तथा बध्यते विद्वांस्तत्र तत्रादयन्गुणान् ।।
न तथा बध्यते विद्वांस्तत्र तत्रादयन्गुणान् ।।
अर्थात्
प्रबुद्ध व्यक्ति विरक्त रहकर शरीर को लेटने,बैठने,चलने,नहाने,देखने,छूने,सूंघने,खाने,सुनने इत्यादि में लगाता है.लें वो कभी भी ऐसे कार्यों में फंसता नही.निस्संदेह वह समस्त शारीरिक कार्यों का साक्षी बनकर अपनी इन्द्रियों को उनके विषयों में लगाता है और वह मूर्ख व्यक्ति की भांति उसमे फंसता नही.
तो बहुत ही सुन्दर श्लोक है.देखिये इसमे एक बहुत ही सुन्दर अंतर को बताया गया है.शरीर सबको मिला है.शरीर की क्रियाएं सबको करनी होती है.शरीर अपनी क्रियाएं करता है.आँख खुलती है बंद होती है.आँखों से हम देखते हैं.ऐसा व्यक्ति जो दुनिया में फंसा हो,जो दुनियावी सुख ढूँढता है और उसके पीछे मदमस्त है,प्रमत्त है उस व्यक्ति की आँखें भी कार्य करती हैं.वो भी देखता है लेकिन समस्या होती है कि जिस चीज को वो देखता है उन चीजों में वो लिप्त हो जाता है.उन चीजों से रसास्वादन लेता है.उन चीजों में रस खोजता है.अपने देखने के जरिये वो देखने का रस खोजता है.
लेकिन जो प्रबुद्ध व्यक्ति है वो भी देखता है लेकिन उदासीनवत देखता है.देखा उसने भी.ये नही कि उसने आँखें बंद कर ली.सारे दृश्य उसकी नज़रों से भी गुजरे लेकिन वो उसमे लिप्त नही हुआ.वो उसे मात्र दृष्टा के रूप में देखता रहा.क्यों?क्योंकि उसका मन विरक्त है उन विषयों से जिनमे इन्द्रियां लगी हैं.इन्द्रियां तो अपने विषयों में लगेंगी ही.अब हमारे पास जीभ है,पेट है.पेट में भूख लगेगी तो जीभ खाने का रस तो लेगी न.खाने का रस लेगी और फिर खाना पेट में जाएगा तो फिर तृप्ति होगी.
वो एक व्यक्ति जो दुनिया के समस्त सुखों में डूबा हुआ है वो जब खायेगा तो चटकारे ले लेकर खायेगा,स्वाद ले लेकर खायेगा,स्वाद को ढूँढता-ढूँढता रह जाएगा,मारा-मारा फिरेगा स्वाद के लिए.ये स्वाद बहुत अच्छा है वो स्वाद बहुत अच्छा है,ये बहुत बढ़िया बना है,ये बहुत ख़राब बना है .
और प्रबुद्ध व्यक्ति जो भगवद ज्ञान में आगे है,जो जानता है कि भगवान का ज्ञान क्या है और भगवान का ज्ञान ही सर्वोच्च है .ऐसा व्यक्ति जब खायेगा तो कैसे खायेगा.उसे भी अच्छी चीज अच्छी लगेगी,बुरी चीज बुरी लग सकती है लेकिन वो उनमे लिप्त नही होगा.कोई चीज बहुत नमकीन हो गई तो भी वो खा जाएगा.कोई चीज बहुत कड़वी हो गयी तो वो खायेगा,उसकी जुबान सी-सी करेगी,वो पानी भी पियेगा लेकिन ये नही कहेगा कि अरे! ये कितना बुरा खाना था.अरे! ये कितना अच्छा खाना था.रसास्वादन,ये वो भूल जाएगा.
हालाकि दोनों ही खाने की एक ही क्रिया कर रहे हैं.तो एक है आसक्त सुख में,आस्वादन में,रस में,विषयों में और दूसरा है विषयों से विरक्त.हालाकि विषय को स्पर्श कर रही हैं उसकी इन्द्रियां भी.
बहुत ही सुन्दर श्लोक है ये जिसे हम आपको सुना रहे हैं.इसी पर चर्चा करेंगे हम.सुनते रहिये समर्पण.
कार्यक्रम समर्पण में आपके साथ हूँ मै प्रेमधारा और हम चर्चा कर रहे थे बहुत ही सुन्दर श्लोक पर:
एवं विरक्तः शयन आसनाटनमज्जने ।
दर्शनस्पर्शनघ्राणभोजनश्रवणादिषु ।
न तथा बध्यते विद्वांस्तत्र तत्रादयन्गुणान् ।।
न तथा बध्यते विद्वांस्तत्र तत्रादयन्गुणान् ।।
अर्थात्
प्रबुद्ध व्यक्ति विरक्त रहकर शरीर को लेटने,बैठने,चलने,नहाने,देखने,छूने,सूंघने,खाने,सुनने इत्यादि में लगाता है.लें वो कभी भी ऐसे कार्यों में फंसता नही.निस्संदेह वह समस्त शारीरिक कार्यों का साक्षी बनकर अपनी इन्द्रियों को उनके विषयों में लगाता है और वह मूर्ख व्यक्ति की भांति उसमे फंसता नही.
कितनी सुन्दर बात है.बहुत ही प्यारी चीज.है न.देखिये अगर हमारा शरीर लेट रहा है,बैठ रहा है.हम चल रहे हैं,हम नहा रहे हैं और उसमे अगर हम फंसे हैं.लेटे हैं.लेटने की जो position है वो ऐसी होनी चाहिए,यहाँ सुन्दर-सुन्दर mattresses होनी चाहिए,हम बैठे तो इतना सुन्दर सीट होनी चाहिए.या हम नहा रहे हैं तो चलो थोड़ा-सा इसमे हम इत्र डाल लेते हैं.नहाने से पहले थोड़ा ये लगा लेते हैं ,नहाने के बाद वो लगा लेते हैं.इससे skin ऐसी हो जायेगी,त्वचा ऐसी हो जायेगी.
ये है आसक्ति.नहाने का कार्य उस भगवदज्ञानयुक्त व्यक्ति ने भी किया.लेकिन आसक्त नही हुआ कि पहले ये लगा ले फिर ये लगा ले शरीर महकता रहेगा,गमकता रहेगा.कुछ नही.नहाना है तो नहाना है.बस.
या फिर सूंघने.कोई सोचता है कि ये खाने की खुशबू कैसी है?देखो अच्छी है न.tempting smell.और कोई सोचता है चलिए खाना बन गया,खा लीजिये.बोग लगाया,भगवान का प्रसाद आया,उसे पाया और बस.उसके अन्दर पाने ह्रदय को नही लगाता.ये नही लगाता कि चावल कैसे हैं?अच्छे हैं कि नही?quality कैसी है?बड़ी अच्छी quality के चावल खाए मैंने आज.बहुत अच्छा आटा,उसका हमने रोटी खाया.और इतना सुन्दर अचार वो बनाकर लायी थी.भाई तुम भी क्यों नही सीख लेती बनाना.इस तरीके से विषयों में फंसता नही.खाया उसने भी पर फंसता नही.
तो यहाँ बताया कि ये जो भगवान के भक्त होते हैं जब इनका शरीर कार्य करता है तो वो शारीरिक क्रियाओं के मात्र साक्षी होते हैं जैसे भगवान.भगवान हमारे ह्रदय में ही रहते हैं.और देखते हैं कि आत्मा विभिन्न क्रियाएँ कर रही है.विभिन्न भोगो को भोग रही है.वे साक्षी के रूप में बस देखते हैं.आत्मा जो क्रिया कर रही है उसमे लिप्त नही होते.
इसीप्रकार से हम शरीर से अलग हैं.हम शरीर नही हैं.हम शरीर हो भी नही सकते क्योंकि हम चेतन हैं और शरीर जड़ है.हमारी वजह से शरीर में चेतना आती है.और शरीर विभिन्न क्रियाओं में संलग्न हो सकता है हमारी चेतना की वजह से जो हमारी वजह से शरीर में व्याप्त होती है.शरीर क्या कर रहा है.ये सिर्फ देखा जाता है.दृष्टा भाव से,साक्षी भाव से.
जैसे कि मान लीजिये,एक example देती हूँ कि किसी ने बकरी पाली.बकरी जो है चारा चर रही है.घास चर रही है और जिसने पाली वह देख रहा है कि बकरी घास चर रही है लेकिन बकरी को उस घास में कितना आनंद आ रहा है,हरी-हरी घास में.वो खा रही है.कितना आनंद आ रहा है,कितना रस आ रहा है. वो व्यक्ति इस चीज से concerned नही है.इस चीज से कोई मतलब नही है.कि बकरी उस चीज को खाते हुए कितना आनंदित हो रही है.कोई मतलब नही है.बस इतने समय तक बकरी ने खाना है.अच्छा खा लिया.चलो भाई वापस.ठीक है.वो लिप्त नही हुआ उसके खाने की क्रिया में.उसने उसे खाने की सुविधा मुहैया करायी.बस इतना ही.
ऐसे ही जो भगवान के प्यारे भक्त हैं वो शरीर की क्रियाओं पर इतना ध्यान नही देते.वो शरीर को उसकी क्रिया करने देते हैं ताकि शरीर fit रहे और भगवान के भजन में काम आ सके.वास्तव में देखा जाए तो हमारा शरीर मिला ही भगवान के भजन के लिए है.इसका और कोई उद्देश्य नही है.कोई भी उद्देश्य नही है और हम अनेकानेक उद्देश्य गढ़ लेते हैं.अपना मन उन उद्देश्यों में झोंक देते हैं.अपने शरीर को उसमे झोंक देते हैं.अपनी आत्मा को उसमे गर्क कर देते हैं.ऐसे झूठे ख्वाब देखते हैं.अशाश्वत चीजों में अपनेआप को खपा डालते हैं.
और सोचिये ये कितनी बड़ी wastage है.कितनी बड़ी.ये जो व्यर्थता है.ये जो हमने अपने आप ओ जाया किया ,खर्च कर दिया इसकी भरपाई क्या हो सकेगी कभी.कभी भी नही.गया हुआ समय कभी भी वापस नही आता.इसलिए आईये नए साल में ये संकल्प ले कि हम एक लम्हे को भी जाया नही होने देंगे.सदा-सर्वदा भगवान से युक्त रहेंगे और भगवद प्राप्ति में अग्रसर होंगे.
इसी के साथ अब आज्ञा दीजिये प्रेमधारा को.नमस्कार.
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