तो आज श्रीमदभगवद्गीता का पांचवा अध्याय और श्लोक संख्या 26.इस पर हम आज चर्चा करेंगे.बहुत-ही सुन्दर श्लोक है.
कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम् ।
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम् ॥(भगवद्गीता,5.26)
बहुत-ही सुन्दर मायने हैं.अर्थ है इस श्लोक का.अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम् ॥(भगवद्गीता,5.26)
"जो क्रोध तथा समस्त भौतिक इच्छाओं से रहित हैं,जो स्वरूपसिद्द,आत्मसंयमी हैं और संसिद्धि के लिए निरंतर प्रयास करते हैं उनकी मुक्ति निकट भविष्य में सुनिश्चित है."
है न.दूर नही है.उनकी मुक्ति निकट भविष्य में सुनिश्चित है.जब हम भविष्य की बातें करते हैं तो याद रखना भविष्य जो है बहुत ही दूर की बात हो जाती है.हम ये नही सोचते हैं कल के बारे में.हम सोचते हैं कि आज से दस साल बाद ये हो.बीस साल बाद हमारा ये हो जाए,वो हो जाए.उसके लिए अभी से प्रयास करना होगा.ये करना होगा,वो करना होगा.
लेकिन भगवान आपको बता रहे हैं कि आपको जो अनमोल खजाना मिलेगा वो निकट भविष्य में ही मिल जाएगा.लेकिन conditions हैं.शर्त्त है.यहाँ भगवान बता रहे हैं कि हम कैसे शुद्ध होंगे तो हमें ये अनमोल खजाना मिलेगा.भगवान कहते हैं
कामक्रोधवियुक्तानां
जो क्रोध और समस्त भौतिक इच्छाओं से रहित हो.आपको ये तो पता ही होगा?क्या?कि क्रोध कैसे होता है.क्रोध होता है जब हमारी कामनाएं पूर्ण नही होती है.
ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते ।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥(भगवद्गीता, 2.62)
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥(भगवद्गीता, 2.62)
तो इसतरह से क्रोध उत्पन्न होता है.कामनाओं से.भगवान कहते हैं कि जो समस्त भौतिक इच्छाओं से रहित है.अगर आपके पास भौतिक इच्छाएं रहेंगी ही नही तो इसका मतलब है कि क्रोध भी नही रहेगा.भगवान ने दो बातें कही-समस्त भौतिक इच्छाओं से रहित है और क्रोध से भी रहित है.समझ आ गई बात.लेकिन अगर आप समस्त भौतिक इच्छाओं से रहित हो गए तो क्रोध से automatically रहित हो जाओगे.
लेकिन बाबजूद इसके कई बार ऐसा होता है कि लोग दिखाते हैं कि हमें कोई भौतिक इच्छा नही है लेकिन अंदर से मन भौतिक इच्छाओं का चिंतन करता है.उन विषयों का चिंतन करता है जिसमे हमारी इन्द्रियाँ रत रहा करती थी.आज हमने so called संन्यास ले लिया.आज हमने वो सन छोड़ दिया.लेकिन क्योंकि इन्द्रियों को अभी तक वो स्वाद याद है.भूला नही है.
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते ।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ॥(भगवद्गीता,2.67)
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ॥(भगवद्गीता,2.67)
ये इन्द्रियाँ इतनी विचरणशील हैं ,इतनी बलवान हैं कि आपको पकड करके वापस वहाँ लाकर के पटकेंगी.इसीलिए भगवान ने यहाँ बोला है कि क्रोध से भी रहित होना होगा.भौतिक इच्छाओं से रहित होगे तो automatically क्रोध से रहित होगे.लेकिन फिर भी भौतिक इच्छाओं का चिंतन भी आपने कर लिया.कही से चिंतन.हम ये किया करते थे.
आज मैंने शराब पीनी छोड़ दी है लेकिन पता है जब हम पिया करते थे तो साथ में ये रखते थे,वो रखते थे.पाँच ये item,छः वो item.आपने अगर चिंतन भी कर लिया तो वो भी एक पाप है.यानि कि उस भौतिक इच्छा की चिंगारी हमारे अंदर कहीं दबी हुई है,no. 1.No2 इच्छा तो अभी भी है.चाहे आज आप वो नही करते पर कही-न-कही से वो चीज आपको आकर्षित करती है.आप ये नही कहते कि थू मै तुम्हारा नाम नही लूंगा.तुम्हे देखूंगा नही.तुम्हारे बारे में सोचूंगा नही.आप ऐसा कोई संकल्प नही करते. आप सिर्फ भौतिक इच्छाओं को छोड़ भर देते हैं.लेकिन भौतिक इच्छाएं आपको छोडती हैं भला.नही वो आपको पकडे रहती है और आप दुबारा कई बार मुड के देखते हो अपने इस संन्यास के सफर में.
संन्यास ये नही कि आपने कोई वस्त्र धारण कर लिए गेडुये.संन्यास मतलब अंदर का संन्यास.अंदर से आप विमुक्त हो.जैसे राजा जनक थे और राजा भरत कह लीजिए.जब भगवान श्रीरामचन्द्र चले गए वन में तो राजा भरत के सिर पर राजगद्दी का बोझ आ पड़ा क्योंकि भाई की आज्ञा थी.वो नही चाहते थे अपने लिए.मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान ने मर्यादा सिखाई तो उनके भाइयों में मर्यादा न हो,ये तो possible ही नही था.वो अपने लिए नही चाहते थे.लेकिन तो भी राजा भरत ने अपने राज-कार्यों का निर्वाह किया.वो आते थे और आ करके बेशक वहाँ पर खडाऊं रखी रहती थी भगवान की.भगवान की खडाऊं लाये थे न.उसको सिंहासन पर रखे थे लेकिन बगल में बैठ के वो बकायदा राजकाज चलाते थे.है न.सब को दण्डित भी करते थे.इनाम भी देते थे.जिसको जो मिलना था.सब कुछ करते थे.महल में भी रहते थे औत फिर उसके बाद महल से कुटिया में भी रहने लगे कि नही,नही यहाँ नही वहाँ सोउंगा.
तो ये क्या है?युक्त वैराग्य है.आप अपना काम कर रहे हैं.सब चीज कर रहे हैं.पर उसमे डूबेंगे नही.
तो भगवान ने कहा कि क्रोध को छोडना होगा और छोडनी होगी कामनाएं.क्रोध को मगर छोडना बहुत जरूरी है कामनाओं को छोडने के साथ-साथ.जब क्रोध आएगा तो क्या करोगे?आपके पास तो बहुत अच्छा उपाय है.कहोगे
"हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे |
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ||"
भगवान का दिव्य नाम.जब भी आप ये नाम लेंगे क्रोध काफूर की तरह उड़ जाएगा.पास नही फटक सकता.हो ही नही सकता कि आपको क्रोध आये और आपने नाम लिया तो भी किसी पे क्रोध आएगा.आप सचेत हो जायेंगे.क्रोध नही आएगा.
तो भगवान कहते हैं कि दो item ये हटा दे- भौतिक इच्छा और क्रोध.आगे क्या है जो स्वरुपसिद्ध हो.बहुत important बात है ये स्वरुपसिद्ध होना.ये छोटा-सा शब्द दिखता है स्वरुपसिद्ध लेकिन इसके पीछे,यहाँ तक पहुँचने में अथक प्रयास है.अथक प्रयास.
देखिये जब starting में इंसान भक्ति में आता है तो वो भगवान को अपनी तरह एक पुरुष के रूप में नही समझ पाता.वो यह कल्पना नही कर पाता कि भगवान भी एक व्यक्ति होंगे.अगर किसी को कहा जाता है कि भगवान जैसे तुम हो,जैसे मै हूँ वैसे ही एक व्यक्ति हैं तो वो मान नही पाते.भगवान भी हँसते हैं,बोलते हैं.उन्हें भी पसंद है,नापसंद है.सब कुछ है भगवान में.सारी-की-सारी क्रिया-प्रतिक्रिया भगवान में है.क्योंकि हम इतने तुच्छ हैं इसलिए हम सोचते हैं कि हमारे जैसे कैसे हो गए भगवान.आपकी तरह नही हैं पर एक व्यक्ति हैं.आपकी जड़ इन्द्रियाँ हैं और पंचभूत तत्त्वों से बना आपका शरीर है.है न.
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।(भगवद्गीता,7.4)
ये सब कुछ आपके अंदर है लेकिन भगवान इससे ऊपर हैं.ये भगवान के पास नही है.भगवान की सारी इन्द्रियाँ दिव्य हैं.भगवान के शरीर में,इन्द्रियों में और आत्मा में कोई फर्क नही है.सब एक हैं.
सत् चित् आनंद सचिदानंद.
भगवान आपकी तरह एक व्यक्ति हैं.कोई ये कहे तो हमें बड़ा अजीब लगेगा.तो हम क्या करते हैं.जब हम starting में भक्ति में जुडते हैं तो हम सोचते हैं कि भगवान एक शक्ति हैं.क्या यही सोचते हैं न?कई लोगों से मैंने बात की.जब मै बात करती हूँ तो वो कहते हैं कि मै ये तो नही जानता कि भगवान का नाम क्या है.but i believe भगवान हैं.एक शक्ति है कोई जो सब चला रही है.मैंने कहा कि शक्ति है तो फिर शक्तिमान भी होगा.शक्ति है तो शक्ति का स्रोत भी तो होगा न कोई.शक्ति ही तो नही चला रही.ये कैसे हो सकता है कि आपके पास शक्ति भी है और आपके पास आकार भी है और भगवान शक्ति हैं पर उनके पास आकार नही है.निराकार हैं.क्या हमारे भगवान इतने बेचारे हो गए.वो सबको आकार दे रहे हैं और वो बेचारे निराकार हो जायेंगे.not possible.सुन्दर,दिव्य आकार हैं उनका.हम उनसे परिचित नही हो पाते.हमारे शास्त्र बताते हैं पर हम परिचित होना नही चाहते क्योंकि हम सोचते हैं कि अगर अपनी तरह का सोच लिया तो जो हमारे अंदर कमजोरियां हैं वो भगवान में भी नजर आयेंगी.इसीलिए उनको कहते हैं कि नही नही वो एक light हैं.हम जायेंगे.जाकर के उनकी पूजा कर लेंगे.वो तो सर्वव्यापी हैं.वो सर्वव्यापी हैं पर कैसे?किस तरह?अपनी शक्तियों के द्वारा.
जैसे कि सूर्य आपको दिखता है लेकिन यहाँ भी मौजूद है धूप की रश्मियों द्वारा,किरणों द्वारा.लेकिन अगर आप कहेंगे कि ये सूरज नही है.तो ये सच है लेकिन ये सूरज की ही शक्ति है.ये जो किरणे हैं वो सूरज से ही निकली हैं.सूरज नही होगा तो ये भी नही होंगी.है बात कि नही सच.बताईये.सूरज नही तो किरणे नही.अब आप कहो कि नही ऐसा कैसे हो सकता है.कोई उत्तरी ध्रुव में रहनेवाला व्यक्ति कहे कि मेरे यहाँ तो सूरज उगता ही नही.सूरज नही है.आपको दिखता है.आप कह रहे हैं कि है,है,है.मै देख रहा हूँ.उसने कहा कि कहाँ है?कहाँ है.मै तो देख ही नही रहा हूँ.सूरज है पर एक को दिखता है और दूसरे को नही दिखता.आप समझ रहे हैं.
तो जो पीछे हैं.उस पर्वत के पीछे हैं जिसने सूरज को ढंका हुआ है,उसे सूरज नही दिखता है.जो आगे हैं उसे दिखता है.पर्वत क्या है?माया.माया के दीवार के पीछे बैठे हैं.दीवार के साये में बैठे हैं तो फिर साया ही दिखेगा.सूरज नही दिखेगा.भगवान नही दिखेंगे.
तो भगवान खुद सूरज हैं.आप समझने की कोशिश कीजिये इस दृष्टान्त से. जैसे कि आप कहेंगे कि माताजी छः बजे अँधेरा हो जाएगा यानि सूरज चले जायेंगे.अँधेरा हो जाएगा सूरज चले जायेंगे.अब आप मुझे बताओ अँधेरा हो जाएगा इसलिए सूरज चले जायेंगे या सूरज चले जायेंगे इसलिए अँधेरा हो जाएगा.सूरज चला जाएगा इसलिए अँधेरा हो जाएगा न.इसीप्रकार से जहाँ भगवान होते हैं वहाँ माया नही होती.माया है अंधकार.जहाँ भगवान होते हैं वहाँ माया नही होती.जहाँ सूरज है वहाँ अंधकार नही होता.बड़े गौर से समझना.जहाँ कृष्ण हैं वहाँ माया नही होगी क्योंकि माया है अंधकार.जहाँ कृष्ण है वहाँ सूरज है इसलिए अंधकार का सवाल ही नही उठता.
इसीलिए कहा जाता है कि माया कृष्ण को छू नही पाती.वैसे ही जैसे कि अंधकार सूरज को छू नही पाता.सूरज निकल गया अंधकार हो गया.अँधेरे में बैठे हो और इंतजार कर रहे हो.अब आप कितनी टॉर्च जला लो,flood light जला लो ऐसा साफ़ नजर नही आ सकता कि आप दूर-दूर तक एक-एक item साफ़ देख लो जैसे सूरज की रोशनी में नजर आता है.ये भगवान का बल्ब है.आप समझ रहे हो.इसीप्रकार आप सोचे कि मै माया से लड़ाई कर लूंगा.मै माया को परास्त कर दूंगा.मै अपनी भौतिक इच्छाएं छोड़ दूंगा.इच्छाओं की तो बात है छोड़ देते हैं.ये ही तो नही खाना है छोड़ देते हैं लेकिन मै आपको बताती हूँ कि छोडते जाओ पर दो साल के अंदर फिर से शुरू हो जायेंगी.क्यों शुरू हो जाएगा?क्योंकि आपकी इन्द्रियाँ demanding हैं.demanding हैं.उन्होंने आपके गले में फंदा डाला हुआ है.
लेकिन अगर आप अपनी इन्द्रियों को कहोगे कि नही कोई बात नही तुम देखे बिना नही रहोगे.तुम्हे देखना है तो मै तुम्हे बहुत सुन्दर जगह देती हूँ देखने को.भगवान को देखो.कृष्ण को.उनकी प्रतिमा को देखो.उनके सुन्दर स्वरुप को देखो.शास्त्रों को देखो.पढ़ो.नाक को बोलो कि भगवान को अर्पित जो तुलसी है उसे सूँघो.
तो ये क्या है?युक्त वैराग्य है.आप अपना काम कर रहे हैं.सब चीज कर रहे हैं.पर उसमे डूबेंगे नही.
तो भगवान ने कहा कि क्रोध को छोडना होगा और छोडनी होगी कामनाएं.क्रोध को मगर छोडना बहुत जरूरी है कामनाओं को छोडने के साथ-साथ.जब क्रोध आएगा तो क्या करोगे?आपके पास तो बहुत अच्छा उपाय है.कहोगे
"हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे |
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ||"
भगवान का दिव्य नाम.जब भी आप ये नाम लेंगे क्रोध काफूर की तरह उड़ जाएगा.पास नही फटक सकता.हो ही नही सकता कि आपको क्रोध आये और आपने नाम लिया तो भी किसी पे क्रोध आएगा.आप सचेत हो जायेंगे.क्रोध नही आएगा.
तो भगवान कहते हैं कि दो item ये हटा दे- भौतिक इच्छा और क्रोध.आगे क्या है जो स्वरुपसिद्ध हो.बहुत important बात है ये स्वरुपसिद्ध होना.ये छोटा-सा शब्द दिखता है स्वरुपसिद्ध लेकिन इसके पीछे,यहाँ तक पहुँचने में अथक प्रयास है.अथक प्रयास.
देखिये जब starting में इंसान भक्ति में आता है तो वो भगवान को अपनी तरह एक पुरुष के रूप में नही समझ पाता.वो यह कल्पना नही कर पाता कि भगवान भी एक व्यक्ति होंगे.अगर किसी को कहा जाता है कि भगवान जैसे तुम हो,जैसे मै हूँ वैसे ही एक व्यक्ति हैं तो वो मान नही पाते.भगवान भी हँसते हैं,बोलते हैं.उन्हें भी पसंद है,नापसंद है.सब कुछ है भगवान में.सारी-की-सारी क्रिया-प्रतिक्रिया भगवान में है.क्योंकि हम इतने तुच्छ हैं इसलिए हम सोचते हैं कि हमारे जैसे कैसे हो गए भगवान.आपकी तरह नही हैं पर एक व्यक्ति हैं.आपकी जड़ इन्द्रियाँ हैं और पंचभूत तत्त्वों से बना आपका शरीर है.है न.
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।(भगवद्गीता,7.4)
ये सब कुछ आपके अंदर है लेकिन भगवान इससे ऊपर हैं.ये भगवान के पास नही है.भगवान की सारी इन्द्रियाँ दिव्य हैं.भगवान के शरीर में,इन्द्रियों में और आत्मा में कोई फर्क नही है.सब एक हैं.
सत् चित् आनंद सचिदानंद.
भगवान आपकी तरह एक व्यक्ति हैं.कोई ये कहे तो हमें बड़ा अजीब लगेगा.तो हम क्या करते हैं.जब हम starting में भक्ति में जुडते हैं तो हम सोचते हैं कि भगवान एक शक्ति हैं.क्या यही सोचते हैं न?कई लोगों से मैंने बात की.जब मै बात करती हूँ तो वो कहते हैं कि मै ये तो नही जानता कि भगवान का नाम क्या है.but i believe भगवान हैं.एक शक्ति है कोई जो सब चला रही है.मैंने कहा कि शक्ति है तो फिर शक्तिमान भी होगा.शक्ति है तो शक्ति का स्रोत भी तो होगा न कोई.शक्ति ही तो नही चला रही.ये कैसे हो सकता है कि आपके पास शक्ति भी है और आपके पास आकार भी है और भगवान शक्ति हैं पर उनके पास आकार नही है.निराकार हैं.क्या हमारे भगवान इतने बेचारे हो गए.वो सबको आकार दे रहे हैं और वो बेचारे निराकार हो जायेंगे.not possible.सुन्दर,दिव्य आकार हैं उनका.हम उनसे परिचित नही हो पाते.हमारे शास्त्र बताते हैं पर हम परिचित होना नही चाहते क्योंकि हम सोचते हैं कि अगर अपनी तरह का सोच लिया तो जो हमारे अंदर कमजोरियां हैं वो भगवान में भी नजर आयेंगी.इसीलिए उनको कहते हैं कि नही नही वो एक light हैं.हम जायेंगे.जाकर के उनकी पूजा कर लेंगे.वो तो सर्वव्यापी हैं.वो सर्वव्यापी हैं पर कैसे?किस तरह?अपनी शक्तियों के द्वारा.
जैसे कि सूर्य आपको दिखता है लेकिन यहाँ भी मौजूद है धूप की रश्मियों द्वारा,किरणों द्वारा.लेकिन अगर आप कहेंगे कि ये सूरज नही है.तो ये सच है लेकिन ये सूरज की ही शक्ति है.ये जो किरणे हैं वो सूरज से ही निकली हैं.सूरज नही होगा तो ये भी नही होंगी.है बात कि नही सच.बताईये.सूरज नही तो किरणे नही.अब आप कहो कि नही ऐसा कैसे हो सकता है.कोई उत्तरी ध्रुव में रहनेवाला व्यक्ति कहे कि मेरे यहाँ तो सूरज उगता ही नही.सूरज नही है.आपको दिखता है.आप कह रहे हैं कि है,है,है.मै देख रहा हूँ.उसने कहा कि कहाँ है?कहाँ है.मै तो देख ही नही रहा हूँ.सूरज है पर एक को दिखता है और दूसरे को नही दिखता.आप समझ रहे हैं.
तो जो पीछे हैं.उस पर्वत के पीछे हैं जिसने सूरज को ढंका हुआ है,उसे सूरज नही दिखता है.जो आगे हैं उसे दिखता है.पर्वत क्या है?माया.माया के दीवार के पीछे बैठे हैं.दीवार के साये में बैठे हैं तो फिर साया ही दिखेगा.सूरज नही दिखेगा.भगवान नही दिखेंगे.
तो भगवान खुद सूरज हैं.आप समझने की कोशिश कीजिये इस दृष्टान्त से. जैसे कि आप कहेंगे कि माताजी छः बजे अँधेरा हो जाएगा यानि सूरज चले जायेंगे.अँधेरा हो जाएगा सूरज चले जायेंगे.अब आप मुझे बताओ अँधेरा हो जाएगा इसलिए सूरज चले जायेंगे या सूरज चले जायेंगे इसलिए अँधेरा हो जाएगा.सूरज चला जाएगा इसलिए अँधेरा हो जाएगा न.इसीप्रकार से जहाँ भगवान होते हैं वहाँ माया नही होती.माया है अंधकार.जहाँ भगवान होते हैं वहाँ माया नही होती.जहाँ सूरज है वहाँ अंधकार नही होता.बड़े गौर से समझना.जहाँ कृष्ण हैं वहाँ माया नही होगी क्योंकि माया है अंधकार.जहाँ कृष्ण है वहाँ सूरज है इसलिए अंधकार का सवाल ही नही उठता.
इसीलिए कहा जाता है कि माया कृष्ण को छू नही पाती.वैसे ही जैसे कि अंधकार सूरज को छू नही पाता.सूरज निकल गया अंधकार हो गया.अँधेरे में बैठे हो और इंतजार कर रहे हो.अब आप कितनी टॉर्च जला लो,flood light जला लो ऐसा साफ़ नजर नही आ सकता कि आप दूर-दूर तक एक-एक item साफ़ देख लो जैसे सूरज की रोशनी में नजर आता है.ये भगवान का बल्ब है.आप समझ रहे हो.इसीप्रकार आप सोचे कि मै माया से लड़ाई कर लूंगा.मै माया को परास्त कर दूंगा.मै अपनी भौतिक इच्छाएं छोड़ दूंगा.इच्छाओं की तो बात है छोड़ देते हैं.ये ही तो नही खाना है छोड़ देते हैं लेकिन मै आपको बताती हूँ कि छोडते जाओ पर दो साल के अंदर फिर से शुरू हो जायेंगी.क्यों शुरू हो जाएगा?क्योंकि आपकी इन्द्रियाँ demanding हैं.demanding हैं.उन्होंने आपके गले में फंदा डाला हुआ है.
लेकिन अगर आप अपनी इन्द्रियों को कहोगे कि नही कोई बात नही तुम देखे बिना नही रहोगे.तुम्हे देखना है तो मै तुम्हे बहुत सुन्दर जगह देती हूँ देखने को.भगवान को देखो.कृष्ण को.उनकी प्रतिमा को देखो.उनके सुन्दर स्वरुप को देखो.शास्त्रों को देखो.पढ़ो.नाक को बोलो कि भगवान को अर्पित जो तुलसी है उसे सूँघो.
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"श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारी हे नाथ नारायण वासुदेव"
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:जय जय श्री राधे:
:जय जय श्री राधे:
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"श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारी हे नाथ नारायण वासुदेव"
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:जय जय श्री राधे:
:जय जय श्री राधे:
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